Wednesday, December 4, 2024
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आस्था की रपटीली पगडंडियां

Samvad 51


MANISH KUMAR CHAUDHARYथोड़ा फ्लैशबैक में चलते हैं। वर्ष 1995, तारीख 21 सितंबर। एकाएक ही यह खबर उड़ी कि भगवान गणेश की मूर्तियां दुग्धपान कर रही हैं। फिर क्या था। चमत्कार को नमस्कार। जिसे देखो वह दूध का पात्र और चम्मच लिए मंदिर की ओर दौड़ पड़ा था। गणेश की प्रतिमाओं के मुंह पर दूध भरा चम्मच सटा कर खाली होते चम्मच की ओर विस्मय और श्रद्धा भाव से देखा जाने लगा। गणपति दूध पी रहे हैं, गणपति दूध पी रहे हैं..प्रचार की बयार चलने लगी और वक्रतुण्ड महाकाय देशभर में छा गए। उस घटना ने यह साबित किया था कि चमत्कार पर लोगों की धार्मिक आस्था जब हावी हो जाती है तो कोई वैज्ञानिक तर्क काम नहीं करता। घटना के पीछे पृष्ठ तनाव और कैपिलरी प्रभाव को बताया गया तो अच्छे-अच्छों ने इसे कुतर्क बता दिया। हालांकि अगले ही दिन गणेश जी ने दूध का पान करना बंद कर दिया था। परंतु सब जानने-समझने के बाद भी कुछ लोगों की आस्था उनके मुंह से कहलवाती रही कि नहीं, उस विशेष दिन चमत्कार हुआ था और गणेश ने दुग्धपान किया था। कहा जाता है किसी की आस्था का मजाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए, बल्कि उसकी आस्था का सम्मान किया जाना चाहिए। परंतु चमत्कारों पर आस्था की विजय का गुणगान तो नहीं किया जा सकता। दुनिया में आज तक न कोई चमत्कार हुआ और न भविष्य में होगा। जिसे हम चमत्कार की संज्ञा देते हैं, उसके पीछे या तो प्राकृतिक तथ्य छुपे हैं अथवा वैज्ञानिक। जिस घटना के पीछे का तर्क और उसके घटने की प्रक्रिया हमारी समझ से बाहर होती है, हम उसे ही चमत्कार मान लेते हैं। इसलिए एक छुटकी स्मार्ट घड़ी पर दस हजार किलोमीटर दूर से किसी की आवाज जब हमें सुनाई देती है तो वह हमें इतना चकित नहीं करती, जितना कोई दुग्धपान करती पाषाण प्रतिमा..।

ज्यादातर ऐसे मामलों को हम दैवीय चमत्कार मानने से भी गुरेज नहीं करते। अगर कोई व्यक्ति यह मान ले कि उसकी कठिनाइयों और परेशानियों का निवारण कोई ‘देवता’ ही आकर करेगा तो वह आपके तर्कों में भी कुतर्क ढूंढने लगेगा। चमत्कारों पर अंधविश्वास किसी भी समाज को कमजोर बनाता है। उसके विवेक से सोचने की शक्ति को भी कुंद कर देता है। अगर अफवाहों की चपेट में आने भर से महज आस्था के चलते किसी समाज की संवेदनशीलता ढह जाए तो ऐसे समाज पर कोई भी विजय प्राप्त कर सकता है। देखा गया है, व्यापारिक बुद्धि लिए बुरी प्रकृति के लोग समाज के ऐसे लोगों की आस्था का अक्सर अपने हितों के लिए फायदा उठाते हैं। ऐसे में लगता है सभ्यता के विकास को हमने पगडंडियों के हवाले कर दिया है। ‘चमत्कार को नमस्कार’ इसी पगडंडी का मूल मंत्र है। आज के वैज्ञानिक युग को सामान्यत: हम विवेक का युग यानी ‘एज आॅफ रीजन’ मानते हैं, पर इस दौर में भी हमारे समाज में भावना ने तर्कों को कई बार हाशिये पर लाकर पटका है। इसके पीछे हमारी यह धारणा बलवती रहती है कि मनुष्य अपने भावनात्मक आधार से कट ही नहीं सकता।

ईश्वर या भगवान पर बढ़ती आस्था को बेशक मौजूदा जीवनशैली की आपाधापी से जोड़कर देखा जा सकता है। दरअसल जब हम पूजा-पाठ कर देवी-देवताओं का आवाहन करते हैं, तो अपनी छिपी ताकतों को जगाकर खुद में साहस का संचार करते हैं। यानी यह एक मनोवैज्ञानिक अवस्था से ज्यादा कुछ नहीं है। जिस सीमा के बाद स्थितियों या हालात पर हमारा वश नहीं चलता, तब हम अपने आराध्य की शरण में पहुंचकर खुद को इस भाव से जोड़ लेते हैं कि अब जो कुछ करना है, वह हमारे ईष्ट को ही करना है। ऐसा करके हम राहत भी महसूस करते हैं। यही स्थिति हमारी आस्था को और बढ़ा देती है।

आखिर क्यों, विज्ञान के इतने विकास के बाद भी हम काल्पनिक भूत-प्रेतों, जादू-टोना, पुनर्जन्म, बलि, फलित ज्योतिष एवं अन्य मिथकों व अंधविश्वासों में विश्वास करते हैं? अंधविश्वास के विरुद्ध जनजागरण का कार्य नि:संकोच निडरता से और प्रभावी ढंग से होना चाहिए। यह जाग्रति विज्ञान का प्रसार है। इस कार्य की कुछ सीमाएं भी होती हैं। अधिकांश समय, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में, इसमें धर्म की चर्चा होती है। इसीलिए इस कार्य का विरोध किया जाता है। सर्वधर्म समभाव की आड़ में किसी भी धर्म की चर्चा को टाला जाता है। लेकिन कटु सत्य यह है कि जनजागरण के प्रमुख स्थानों पर ही अंधविश्वास का डेरा है। ऐसा भी नहीं है कि दुनिया में चमत्कारों पर विश्वास के लिए हम सिर्फ भारतीय समाज को ही दोषी ठहराएं। ईश्वर में आस्था मनुष्य की प्रकृति है। जब आदमी गुफाओं में रहता था, तब भी ईश्वरीय शक्ति को मानता और उससे प्रेरित रहता था।

ईसा से पूर्व भी दुनिया के लगभग सभी देशों में चाहे वह रोम हो या मिस्र, फारस अथवा यूरोप, जर्मनी हो या आॅस्ट्रेलिया..हर जगह आदमी तालाबों, नदियों, वृक्षों और देवी-देवताओं की मूर्तियों में अपनी आस्था तलाशता या स्थापित करता रहा है। परंतु आज दुनिया के तमाम देशों में वैज्ञानिक चेतना के विभिन्न पहलू हैं। वैज्ञानिक चेतना लोगों की रोज की समस्याओं और चिंताओं से जुड़ी होती हैं। अपने भीतर असुरक्षा की भावना ही हमें ईश्वरीय शक्तियों के प्रति विश्वास को अधिक सुदृढ़ता प्रदान करती है। जिंदगी से जुड़ी आस्थाएं और उनके प्रतीक समय और जरूरत के हिसाब से बदलते रहते हैं, पर विश्वास का मूल तत्व कभी हमसे नहीं छिटकता। नेट से लेकर मोबाइल की रिंगटोन और लॉकेट से लेकर चैनलों और फिल्मों में भगवान की महिमा खूब गायी जा रही है। कारों की चाबियों, छल्लों और डेशबोर्ड पर हमारे ईष्टदेव की छोटी-छोटी प्रतीकात्मक मूर्तियां और चिन्ह नजर आते हैं। कहें तो आस्था का एक बाजार पनप गया है।

बेलगाम आस्था की चपेट में आए ऐसे लोगों को चमत्कार से प्रभावित कर अपना उल्लू सीधा करने वाला ‘इंटरेस्ट ग्रुप’ हर समाज में होता है, जो मौके-बेमौके इसका फायदा उठाता है। सोशल मीडिया पर जब-तब ऐसे ही मैसेज कई बार वायरल होते हैं, जो लोगों की भावना व आस्था को भड़काते हैं और अपने ‘लाइक्स’ की संख्या बढ़ा लेते हैं। प्रसिद्ध नृशास्त्री रॉबर्ट आॅर्डरे ने अपनी चर्चित किताब ‘हंटिंग हाइपोथीसिस’ में आस्था से जुड़ी एक महत्वपूर्ण बात कही है- ह्यचाहे हम निरक्षर हों या साक्षर, असभ्य हों या सभ्य, दो ऐसे मानसिक गुण हैं जो हम सबमें व्याप्त हैं। एक है ऐसी शक्तियों में विश्वास, जिन्हें हम अपने से ज्यादा शक्तिशाली और उम्र का मानते हैं और दूसरा है खुद को दुनिया के केंद्र में होने का भ्रम। दोनों हमारे शिकारी जीवन के ऐसे अवशेष हैं, जिन्हें हमारे चरित्र से निकाला नहीं जा सकता। यानी आस्था की रपटीली पगडंडियों पर फिसलने का खतरा तो बरकरार रहता ही है। ऐसे में हमें ‘दिल’ से ज्यादा ‘दिमाग’ की सुननी चाहिए।


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