एक प्राकृतिक आपदा में अंधों के देश के सभी लोग मर जाते हैं। केवल नायक, नायिका को बचाकर अपने देश ले जाता है। यहां अंधापन विवेकहीनता है, कट्टरता है, सांप्रदायिकता है। नायिका इसलिए बच पाई क्योंकि वह कट्टर नहीं थी। वह नायक की बात पर यकीन करती थी। कहानी यहीं खत्म नहीं होती। नायक-नायिका दोनों उस समय में प्रवेश करते हैं, जब भारत विभाजन के समय दंगे हो रहे हैं। यहां यह भाव भी आता है कि यह सब देखने से अच्छा अंधा होना है। जितेन्द्र भाटिया की यह कहानी वास्तव में कट्टरता को ही अंधता कहती है। हिटलर ने यहूदियों के साथ जो कुछ किया वह भी अंधता ही थी। आप अपने चारों ओर ‘अंधों का यह देश’ देख सकते हैं।
जितेन्द्र भाटिया विचारक हैं, अनुवादक हैं, संपादक हैं। इन सबके साथ वह नितांत मौलिक भी हैं। ‘सोचो साथ क्या जाएगा’ के चार खण्ड (संभावना प्रकाशन) पढ़ने के बाद इस बात का भी अहसास हुआ कि विश्व साहित्य का भी उन्होंने भरपूर अध्ययन किया है, अनुवाद किया है। यही वजह है कि कहानी की उनकी समझ वैश्विक है। उनका मानना है कि जो चीजें या घटनाएँ हमें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं, जो साफ हैं, उनपर कहानी लिखना कहानी को जाया करना है। इस्राइली लेखक एमोस ओज के हवाले से वह यह भी कहते हैं कि यदि मुझे सरकार को गाली देनी है तो मैं उस पर कहानी नहीं लिखूंगा, बल्कि सड़क पर आकर लोगों को कहूंगा कि यह सरकार भाड़ में जाए। जितेन्द्र भाटिया अपनी कहानियों में वंचितों के लिए स्पेस खोजते हैं। हाल ही में, उनका कहानी संग्रह ‘रुकावट के लिए खेद है’ (संभावना प्रकाशन) लगभग दस वर्ष बाद प्रकाशित हुआ है। इस देरी पर भी उनका साफ कहना है कि जब तक कोई घटना या बात या विचार आपको उद्वेलित न कर दे, कहानी नहीं लिखनी चाहिए।
संग्रह की पहली कहानी है ‘अंधों का देश।’ कहानी शुरू होने से पहले ही जितेन्द्र भाटिया ने लिखा है कि लगभग सौ वर्ष पहले एचजी वेल्स ने कहानी लिखी थी-दि कंट्री आॅफ दि ब्लाइंड। इसके तीस बरस बाद उन्होंने इसी कहानी को नये सिरे से लिखा। ‘अंधों का देश’ कहानी को सौ बरस पुराने उसी रूपक का तीसरा किनारा माना जा सकता है। कहानी का नायक किन्हीं परिस्थितियों के चलते एक दिन ऐसे देश में पहुंच जाता है, जहां सब अंधे हैं। नायक पाता है कि उन्हें किसी भी तरह का काम करने में दिक्कत नहीं होती। दरअसल उन्हें इस बात का अहसास हीं नहीं है कि शरीर में आंखों जैसा कोई अंग हो सकता है। नायक की मुलाकात जीवो (नायिका) से होती है।
वह भी अंधी है। लेकिन वह नायक की बातों पर यकीन करती है। नायक उसे ‘देखने’ के अर्थ समझाता है। नायक-नायिका एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं। एक प्राकृतिक आपदा में अंधों के देश के सभी लोग मर जाते हैं। केवल नायक, नायिका को बचाकर अपने देश ले जाता है। यहां अंधापन विवेकहीनता है, कट्टरता है, सांप्रदायिकता है। नायिका इसलिए बच पाई क्योंकि वह कट्टर नहीं थी। वह नायक की बात पर यकीन करती थी। कहानी यहीं खत्म नहीं होती। नायक-नायिका दोनों उस समय में प्रवेश करते हैं, जब भारत विभाजन के समय दंगे हो रहे हैं। यहां यह भाव भी आता है कि यह सब देखने से अच्छा अंधा होना है। जितेन्द्र भाटिया की यह कहानी वास्तव में कट्टरता को ही अंधता कहती है। हिटलर ने यहूदियों के साथ जो कुछ किया वह भी अंधता ही थी। आप अपने चारों ओर ‘अन्धों का यह देश’ देख सकते हैं।
जितेन्द्र भाटिया वैश्वीकरण को भी अलग निगाह से देखते हैं। ऐसा लगता है कि गांवों से लोग शहर की ओर पलायन कर रहे हैं, लेकिन जितेन्द्र भाटिया का मानना है कि शहरों में वैश्वीकरण ने वैसी ही स्थितियां पैदा कर दी हैं, जैसी गांवों में किसानों के लिए पैदा हुई हैं। ‘रुकावट के लिए खेद है’ का मूल पाठ यही है। कैसे मशहूर कपड़ा मिल में काम करने वाल वीविंग मास्टर बची हुई जिन्दगी में अपने लिए कोई स्पेस नहीं तलाश पाता। कपड़ा मिल की जगह मॉल बन गये हैं, लोगों की जरूरतें और प्राथमिकताएं बदल रही हैं। अलग तरह की नौकरियां सामने आ रही हैं। इस सारे माहौल में नायक खुद को ‘अजनबी (स्ट्रेंजर)’ पाता है। जितेन्द्र भाटिया की कहानियों में समय बहता दिखाई देता है। उनकी कहानियां और उनमें चित्रित यथार्थ लगातार बदलता रहता है। उनके पास विज्ञान और इतिहास की समझ है।
उनकी कल्पनाशीलता बेहद उर्वर है। ‘जहर-मोहरा’ कहानी का नायक एक दिन पाता है कि वह जो शब्द बोलना चाहता है, उसकी जगह दूसरा शब्द उसके मुंह से निकल रहा है। कई बार ये शब्द हिंसक और सांप्रदायिक भी हो जाते हैं। उसे लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई मेरे दिमाग को नियंत्रित कर रहा हो। वही बुलवाना चाहता हो जो उसके हित में है। अपना ईलाज कराते हुए वह डॉक्टर बुर्नेज के क्लिनिक पहुंच जाते हैं। वहां उन्हें यह अहसास होता है कि हिंसा और सांप्रदायिक विचारों के प्रत्यारोपण का मुकाबला करने के साथ-साथ एक खास तरह की समझ और विचारधारा को विकसित करना भी उनका मकसद था। कहानी में वह कहना चाहते हैं कि कट्टरता का मुकाबला कट्टरता से नहीं किया जा सकता।
विकास को भी जितेन्द्र भाटिया अलग तरह से देखते हैं। ‘ख्वाब एक दीवाने का’ कहानी में लेखक एक ऐसी भावी दुनिया में पहुंच जाता है, जहां प्रकृति, पशु पक्षी, पेड़ पौधे पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं। जहां हवा-पानी तक बाजार मूल्य पर बिक रहे हैं। व्यापारी चांद पर बस्तियां बसाने की सोच रहे हैं। बिल्डरों के दबाव में सरकार चांद पर जाने के इच्छुक प्रत्याशियों को इंश्योरेंस की योजना के तयत ‘वन फॉर वन फ्री’ की छूट दे रही है। कहानी का नायक त्रोएका की नौकरी कंप्यूटर के हार्डवेयर से ताल्लुक रखती है। त्रोएका अपनी प्रेमिका लाइका के साथ पानी की खोज में है। कहानी में परमाणु युद्ध के बाद का अब तक असर भी दर्शाया गया है। अंत में, त्रोएका किसी ऐसी जगह को खोज लेता है, जहां पानी है।
त्रोएका और लाइका दोनों अपने वस्त्र उतारकर उसमें नहाने लगते हैं। तभी सोलर जीप के सिपाही अपनी लेजर बंदूक से उन्हें मार गिराते हैं। सिपाहियों को ताज्जुब था कि अपनी सारी कोशिशों के बाद भी वे इन दोनों के चेहरों से मुस्कराहट और तृप्ति की उस आखिरी परछाई को मिटा सकने में नाकामयाब रहे थे। क्या यह तृप्ति पुन: प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों को खोज लेने की है? क्या यह तृप्ति विकास के पहिये को वापस मोड़ देने की है? यह पूरी कहानी किसी विज्ञान कथा-सी लगती है।
जितेन्द्र भाटिया की कहानियां, समय इतिहास, वैश्वीकरण, बाजारवाद, और विज्ञान को साथ लेकर चलती हैं। किसी भी तरह की सांप्रदायिकता और कट्टरवाद के वह खिलाफ हैं। ‘शहर की आंख’ भी ऐसी ही कहानी है। वंचितों के लिए उनकी कहानियों में खास जगह है। वह दरअसल वंचितों के लिए ही जगह खोज रहे हैं। संयोग से इस संग्रह में एक रिपोर्ताज भी है। ‘झुलसे हुए चेहरों के अक्स’। यह रिपोर्ताज महाराष्ट्र में 1973 के अकाल का है। लगभग पचास साल बाद भी आपको यही लगेगा कि वंचितों को स्थिति जस की तस बनी हुई है।
उनके जीवन में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं आया। उनके लिए न पीने का पानी है, न खाने के लिए रोटी। इस रिपोर्ताज को पढ़कर आपको कतई यह नहीं लगेगा कि यह पचास साल पुराना है। आप खुली आंखों से देखेंगे तो इस बयां सारी स्थितियां वही की वही हैं। कहीं कुछ भी नहीं बदला।
छह कहानियों और एक रिपोर्ताज का यह संग्रह जेहन की बहुत सी बंद खिड़कियां खोलता है। विकास, बाजार, वैश्वीकरण के नए और ठोस अर्थ समझाता है, इसलिए इसे पढ़ा जाना जरूरी है। पढ़ा जाना चाहिए।
सुधांशु गुप्त