आठवीं शताब्दी की बात है। आदि शंकराचार्य सांस्कृतिक दिग्विजय के लिए भारत भ्रमण पर निकले। रास्ते में मिथिला प्रदेश में उनके और मंडन मिश्र के बीच सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला। शास्त्रार्थ में निर्णायक मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारती को बनाया गया था। निर्णय की घड़ी आ गई थी, पर शास्त्रार्थ चल ही रहा था। यह कब समाप्त होगा, कुछ कहना कठिन था। दोनों एक से बढ़कर एक तर्क दे रहे थे। इस बीच देवी भारती को कुछ समय के लिए बाहर जाना पड़ गया। जाते-जाते उन्होंने दोनों विद्वानों को पहनने के लिए एक-एक फूल माला दी और कहा, ये दोनों मालाएं मेरी अनुपस्थिति में आपकी हार और जीत का फैसला करेंगी। भारती थोड़ी देर बाद अपना काम पूरा करके लौट आर्इं। उन्होंने शंकराचार्य और मंडन मिश्र को बारी-बारी से देखा और अपना निर्णय सुना दिया। आदि शंकराचार्य विजयी घोषित किए गए और उनके पति मंडन मिश्र की पराजय हुई थी। लोग हैरान हो गए कि बिना किसी आधार के इस विदुषी ने अपने पति को ही पराजित करार दे दिया। एक विद्वान ने देवी भारती से नम्रतापूर्वक जिज्ञासा की, हे देवी, आप तो शास्त्रार्थ के मध्य ही चली गई थीं, फिर वापस लौटते ही आपने ऐसा फैसला कैसे दे दिया? भारती ने उत्तर दिया, जब भी कोई विद्वान शास्त्रार्थ में पराजित होने लगता है और उसे हार की झलक दिखने लगती है, तो वह क्रोधित होने लगता है। मेरे पति के गले की माला उनके क्रोध की ताप से सूख चुकी है, जबकि शंकराचार्य जी की माला के फूल अब भी पहले की भांति ताजे हैं। इससे पता चलता है कि शंकराचार्य की विजय हुई है। विदुषी भारती का फैसला सुनकर सभी दंग रह गए। सबने उनकी काफी प्रशंसा की।