Saturday, July 27, 2024
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फाल्गुन महीने में यहां लगता है बाबा खाटू श्याम का वार्षिक मेला

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नमस्कार, दैनिक जनवाणी डॉट कॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन है। तो चलिए आज हम आपको बताते है कि बाबा खाटू श्याम के वार्षिक मेला के बारे में…फाल्गुन महीने में बाबा खाटू श्याम का वार्षिक मेला राजस्थान के सीकर में धूम धाम से हर साल मनाया जाता है। इस मेले में लाखों की संख्या में देश विदेश के श्रद्धालु खाटू श्याम नगरी में पहुंच कर बाबा के दर्शन करते है। क्योंकि फाल्गुन महीना रंगों से सराबोर रहता है इसलिए खाटू नगरी भी कई रंगों में रंगी होती है। खाटू श्याम का वार्षिक मेला हर साल फाल्गुन महीने ​की शुक्ल पक्ष की षष्टी से द्वादशी तक मनाया जाता है। खाटू शयाम का सम्बंध महाभारत काल से है।

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इस मंदिर में भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की श्याम यानी कृष्ण के रूप में पूजा की जाती है। इस मंदिर के लिए कहा जाता है कि जो भी इस मंदिर में जाता है उन्हें श्याम बाबा का नित नया रूप देखने को मिलता है। कई लोगों को तो इस विग्रह में कई बदलाव भी नजर आते है। कभी मोटा तो कभी दुबला। कभी हंसता हुआ तो कभी ऐसा तेज भरा कि नजरें भी नहीं टिक पातीं। श्याम बाबा का धड़ से अलग शीष और धनुष पर तीन वाण की छवि वाली मूर्ति यहां स्थापित की गईं। कहते हैं कि मन्दिर की स्थापना महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद स्वयं भगवान कृष्ण ने अपने हाथों की थी।

बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे श्याम बाबा

श्याम बाबा की कहानी महाभारत काल से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे तथा भीम के पुत्र घटोतकच और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र थे। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होने युद्ध कला अपनी मां से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और उनसे तीन अभेध्य बाण प्राप्त कर तीन बाणधारी के नाम से प्रसिद्ध हुये। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया जो उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।

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कौरवों और पाण्डवों के मध्य महाभारत युद्ध का समाचार बर्बरीक को प्राप्त हआ तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुयी। जब वे अपनी मां से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब मां को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया। महाभारत के युद्ध में भाग लेने के लिये वे अपने नीले रंग के घोडे पर सवार होकर धनुष व तीन बाणों के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की और अग्रसर हुये।

भगवान कृष्ण ने खाटू श्याम को दी चुनौती

भगवान कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिये उसे रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापिस तरकस में ही आयेगा। यदि उन्होने तीनो बाणों को प्रयोग में ले लिया गया तो तीनो लोकों में हाहाकार मच जायेगा। इस पर कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस पीपल के पेड के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ। जिसके नीचे दोनो खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तो की और चलाया।

तीर ने क्षण भर में पेड के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा। क्योंकि एक पत्ता उन्होनें अपने पैर के नीचे छुपा लिया था। तब बर्बरीक ने कृष्ण से कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिये वर्ना ये आपके पैर को चोट पहुंचा देगा। कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस और से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी मां को दिये वचन दोहराते हुये कहा कि वह युद्ध में निर्बल और हार की और अग्रसर पक्ष की तरफ से भाग लेगा। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है। अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।

भगवान कृष्ण ने खाटू श्याम से मांगा शीश

ब्राह्मण बने कृष्ण ने बालक बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की। इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा। कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप में आने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। तब कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।

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उन्होने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिये एक वीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यक्ता होती है। उन्होनें बर्बरीक को युद्ध में सबसे बड़े वीर की उपाधि से अलंकृत कर उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है। श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होनें अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।

युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी खींचाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है। इस पर कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है। उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि कृष्ण ही युद्ध मे विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं। उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था। महाकाली दुर्गा कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थी।

कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि कलियुग में हारे हुये का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ होगा। ऐसा माना जाता है कि एक बार एक गाय उस स्थान पर आकर अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतरू ही बहा रही थी बाद में खुदायी के बाद वह शीश प्रकट हुआ।

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