अथर्ववेद के एक मंत्र 1813 में कहा गया है कि मैंने विधवा युवती को जीवित मृतों के बीच से अर्थात शमशान भूमि से ले जाई जाती वह पति की मृत्यु के विरह जन्य दु:ख रूप घोर अंधकार से द्रवित थी इसलिए उसे पूर्व पत्नीत्व से हटाकर दूसरा पत्नीत्व प्राप्त करा दिया है। यह मन्त्र हमें समझा रहा है कि विधवा का पुन: विवाह किया गया।
विधवाओं की दुर्दशा के बारे में बहुत कुछ सुना व पढ़ा। इससे मन को अतीव पीड़ा हुई। पता नहीं अपने घर की इज्जत को इस तरह प्रताड़ित होते हुए देखकर लोगों के मन क्यों नहीं फटते? घर-परिवार में क्या एक विधवा का भरण-पोषण नहीं किया जा सकता? क्या उसके घर में वास करने से वहां कुछ घट जाता है? कुछ विधवाएं तीर्थ स्थानों में परिजनों के अत्याचारों से तंग आकर चली जाती हैं और कुछ जबरदस्ती भेज दी जाती हैं। वहां खाने-पीने को मोहताज, स्वास्थ्य की सभी सुविधाओं से वंचित अंधेरे व घुटन भरे कमरों में जीवन बिताती हैं। ये विधवाएँ कहीं-कहीं भिक्षा माँग कर जीवन यापन कर रही हैं। सभ्य समाज के लिए यह बड़े शर्म की बात है कि उसका एक अंश इतनी बदहाली में गुजर बसर कर रहा है और वह मौन होकर इस अन्याय की ओर से आंख मूंद कर सो रहा है।
हमारे भारत की संस्कृति तो ऐसे संस्कार नहीं देती कि अपने प्रिय जन को इस प्रकार असहाय छोड़ दिया जाए, चाहे वह मां हो, बहु हो, बेटी हो अथवा बहन हो, उसे इस प्रकार का जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर करना भी अपराध ही है। हालात ये हैं कि अंध रूढ़ियों के कारण किसी भी शुभकार्य में उसकी उपस्थिति अशुभ मानी जाती है।
विधवा का पुन: विवाह भी तो किया जा सकता है। प्राचीन काल में भी विधवा का विवाह हुआ करता था। आयु प्राप्त विधवा की बात मैं नहीं कर रही। हो सकता है उम्र के उस पड़ाव में जब उसके बच्चे बड़े व जीवन में सेटल हो जाते हैं वह शायद पुन: विवाह न करना चाहे परंतु अल्प वय विधवा के पुन: विवाह की अनुमति तो हमारे ग्रन्थ देते हैं।
विचारणीय है कि पुरुष किसी भी आयु में पुनर्विवाह कर सकता है तो महिला क्यों नहीं? उसे घर-परिवार की जिम्मेदारी का अहसास कराके या समाज का डर दिखा के पुनर्विवाह से रोक दिया जाता है जबकि उसे भी तो अपने जीवन के बारे में सोचने का बराबर का हक है।
अथर्ववेद के एक मंत्र 1813 में कहा गया है कि मैंने विधवा युवती को जीवित मृतों के बीच से अर्थात शमशान भूमि से ले जाई जाती वह पति की मृत्यु के विरह जन्य दु:ख रूप घोर अंधकार से द्रवित थी इसलिए उसे पूर्व पत्नीत्व से हटाकर दूसरा पत्नीत्व प्राप्त करा दिया है। यह मन्त्र हमें समझा रहा है कि विधवा का पुन: विवाह किया गया।
अथर्ववेद के ही अन्य मंत्रों 9/5/27-28 में कहा गया है कि जो स्त्री पहले पति की मृत्यु के पश्चात जब पुनरू दूसरे पति को प्राप्त करती है तो पुनरू पत्नी होनेवाली स्त्री के साथ दूसरा पति एक ही गृहस्थलोक में वास करने वाला हो जाता है अर्थात् दोनों पति-पत्नी के रूप में अपनी गृहस्थी चलाते हैं। पति की मृत्यु के बाद देवर से भी पुनर्विवाह के प्रमाण ऋग्वेद और निरुक्त 3/144 में भी मिलते हैं।
वेदों के यह प्रमाण सिद्ध करते हैं कि वेदों में विधवा विवाह को महापाप नहीं मानते थे अपितु पुनर्विवाह की अनुमति थी। इस प्रकार विधवा को उसके पूर्ण अधिकार के साथ जीवन व्यतीत करने की अनुमति थी। उन्हें घर से अलग रहकर यातनाएं सहने के लिए मजबूर नहीं किया जाता था।
वैसे कानून विधवा को व उसके बच्चों को ससुराल की धन-संपत्ति में बराबर का हक देता है। उसके पति के घर, व्यापार या पेंशन एवं सभी बचतों पर उसका पूरा हक होता है। आज इश्चीसवीं सदी के प्रगतिशील युग में इस प्रकार की रूढ़ियों को तोड़कर असहनीय यातनाओं को झेलने को लाचार इन विधवाओं के पुनर्वास व उन्हें यथोचित सम्मान देने की आवश्यकता है। सबसे प्रमुख बात है औरतों को शिक्षित करना जिससे उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी हो सके और वे इस जहालत से छुटकारा पा सकें तथा वे इन अंध रूढ़ियों को तोड़कर समाज में अपना स्थान बना सकें।