बच्चों के संतुलित और मजबूत व्यक्तित्व विकास के लिए सुविधाओं के साथ साथ बच्चे को जिंदगी में ‘अभाव’ के महत्व को भी समझाएं। उस ‘अभाव’ के प्रति भी एक सकारात्मक स्वीकार्यता उत्पन्न करें। और यह तब होगा जब अभिवावक बच्चे की गैर जरूरी सुख सुविधाओं के प्रति ‘अभाव’ का भाव दिखाएंगे, तभी बच्चा एक मजबूत व्यक्तित्व का स्वामी बन आपकी और अपनी जरूरत के समय एक मजबूत सहारा बन कर खड़ा हो पाएगा।
हमारा बच्चा तो किसी का कहना ही नहीं मानता है , बहुत जिद्दी हो गया है। या फिर मेरा बेटा तो बिल्कल मेरे कहने से बाहर हो गया पता नहीं स्कूल वाले क्या पढ़ाते हैं? अभिवावकों का यह वार्तालाप सुनने में भले ही कुछ विशेष नजर नहीं आए, पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह बच्चे के पूरे व्यक्तित्व को प्रस्तुत करने के लिए काफी है।
इसे मात्र बच्चे का जिद्दीपन मानकर अनदेखा किया जाना, बच्चे के सामान्य व्यवहार और उसके पूरे व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। आज जब से एकल परिवारों का चलन बढ़ा है, साथ ही समय की मांग के अनुसार प्रत्येक परिवार में एक या दो ही बच्चे का नियम बना लिया हैं। युवा दंपती अपनी संतान को जीवन की हर खुशी देने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते है।
पर अभिवावक यह भूल जाते हैं कि सुविधाओं का अर्थ खुशी नहीं है। और न ही ऐसा करके आप बच्चे का कोई भला कर रहे होते हैं। यह जरूरी है कि ऐसा करके आप अपने बच्चे का एक कमजोर व्यक्तित्व बनाने में योगदान दे रहे होते हैं।
सोचिए…अगर किसी दिन या कभी बच्चों को उपलब्ध करवाई जा रही इन सारी सुविधाओं में जरा भी कटौती होगी तो बच्चा कैसी प्रतिक्रिया देगा? बच्चे की प्रतिक्रिया वैसी ही होगी जैसी की ऊपर वर्णित वार्तालाप में झलक रही है। यदि हम पुराने समय की बात करें तो परिवार में बच्चे एक दो नहीं अपितु तीन चार तक हुआ करते थे। समय सस्ता था, तो पालन-पोषण में कोई परेशानी नहीं आती थी।
अभिवावक बच्चे के अच्छे भविष्य के लिए आवश्यक सभी चीजें उपलब्ध करवाते थे। हां…कई बार धन का अभाव होने पर उन्हें बच्चों को बताना पड़ता था कि इस बार ये चीज आपको नहीं मिल पाएंगी। अर्थात बच्चे को धन के महत्व और उसके ‘अभाव’ का अहसास समय-समय पर करवाया जाता था, जिसके कारण बच्चों के व्यक्तित्व में सुविधाएं न मिलने के प्रति सहज ही स्वीकार्यता उत्पन्न हो जाती थी, जो बच्चे को भविष्य में लक्ष्य प्राप्ति के लिए ही नहीं प्रोत्साहित करता था, बल्कि मजबूत व्यक्तित्व की नींव रखने में भी सहयोग देता था।
आज स्थिति पहले से बिलकुल अलग है। आज अभिवावक बच्चे की हर सुविधा को पूरी करने के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। फिर चाहे इसके लिए उन्हें बैंक से ऋण लेना पड़े या अपनी गाढ़ी कमाई का भविष्य निधि का पैसा ही क्यों न निकालना पड़े। ऐसे अभिवावक अपने बच्चों को किसी भी ‘अभाव’ का अहसास ही नहीं होने देना चाहते। वे बच्चे को यह सिखाने के प्रति गंभीर नहीं होते कि जिससे बच्चे को अनुभव हो कि ईमानदारी से पैसा कमाने में कितने परिश्रम की जरूरत पड़ती है।
उसी का परिणाम होता है कि बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है, बच्चे को माता पिता, एक पैसे कमाने वाली मशीन भर से ज्यादा कुछ नहीं लगते। बच्चों के लिए अभिवावक की छवि ‘अलादीन के चिराग’ जैसी बन जाती है। बच्चे के व्यक्तित्व और उसका व्यवहारात्मक विकास भी उसी तरह से होता है जिसमें किसी भी ‘अभाव’ की स्थिति के लिए बच्चे के मन में स्वीकार्यता नहीं होती। उसे कभी लगता ही नहीं की अलादीन के चिराग का जिन्न कभी मनचाही चीज देने में असफल भी हो सकता है। या जिन्न कभी बीमार भी पड़ सकता है या उसके पास धन का अभाव भी हो सकता है या उसकी नौकरी भी जा सकती है, आदि आदि।
यहीं से आरंभ होता है बच्चे के व्यवहार में जिद का समावेश। बच्चे का अत्यधिक जिद्दी होना, जो उसके व्यवहार को किसी भी दिशा में ले जा सकता है। नाबालिग बच्चों द्वारा अंजाम दिए जाने वाले घिनौने अपराधों के विषय में समाचार पत्रों में आए दिन सुनने और पढ़ने को मिल जाता है। कई बार बहुत संभ्रांत परिवारों के बच्चे भी ऐसे अपराधों में लिप्त पाए जाते हैं या फिर माता -पिता के बच्चे को कुछ कह देने भर से बच्चे आत्मघाती कदम उठाने से भी परहेज नहीं करते।
इन सभी का कारण है बच्चे की परवरिश में कमी। जहां बच्चे को खुशियां का अर्थ मात्र सांसारिक और भौतिक सुख सुविधाओं को ही दिखाया और बताया जाता है। बच्चे को बताया ही नहीं गया कि माता-पिता का प्रेम और उनका अपने बच्चे के प्रति लगाव, अपने बच्चे की देखभाल का जज्बा और उनकी वात्सल्य से परिपूर्ण भावनाएं, बच्चे के लिए कितने अनमोल उपहार हैं। अभिवावक मात्र पैसा कमाने वाली मशीन या फिर अलादीन के चिराग नहीं है
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