Tuesday, May 20, 2025
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उपन्यास की दुनिया में नई बयार है-आसमान के ताक पर

Ravivani 31


सुधांशु गुप्त |

सोचता हूं, हिन्दी उपन्यासों की कथा आमतौर पर कहां से आती है? लगता है, बाहरी दुनिया में होने वाली घटनाएँ-सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक, नाटकीयता, प्रेम-परिवार, भावुकता, करुणा और चौंकाने वाले तत्व, दैहिक संबंधों का सांगोपांग वर्णन और समकालीन सूचनाओं का जखीरा उपन्यासों की जमीन तैयार करता है। भाषा का जादू और डिटेलिंग इन उपन्यासों को लोकप्रियता देती है। पाठक अक्सर वही उपन्यास पसन्द करते हैं, जिनकी कथा सीधे रूट पर चलती हो। यानी जो आसानी से समझ आते हों।

प्रयोगधर्मिता न हिन्दी लेखक को रास आती है और न पाठक को। हालांकि बहुत से प्रयोगधर्मी उपन्यास लिखे भी गए और पसंद भी किए गए। लेकिन हिन्दी पाठक के माइंड की ‘कंडीशनिंग’ ऐसी होती चली गई कि वह उपन्यासों (कहानियों में भी) में वही पसन्द करने लगा, जो बाहरी दुनिया में दिखाई देता है,जो उसके ‘कॉग्निटो’ में आता है, जिससे वह खुद को रिलेट कर सके, ऐसे किरदार उसे रास आने लगे जो उससे मिलते-जुलते हों।

प्रेम को वह ठोस रूप में पसंद करने लगा, प्रेम को वह काव्यात्मक या कलात्मक रूप में पसंद नहीं कर पाया। अपने इस गुनाह को ही उसने अपना देवता मान लिया। यह अनायास नहीं है कि मौजूदा समय में भी जो उपन्यास लिखे जा रहे हैं, उनमें घटनाएँ ही प्रमुख हैं। लेखक का काम घटनाओं को क्रम देना और एक घटना को दूसरी घटना से जोड़ना भर रह गया है। उसे समकालीन और वैश्विक बनाने के आप किसी बड़ी वैश्विक घटना को (आंकड़ों समेत) उपन्यास में दर्ज कर सकते हैं।

लेखक और पाठक दोनों ही इस बात को भूलते चले गए कि जो दुनिया बाहर दिखाई देती है, उससे कहीं अधिक बड़ी दुनिया मनुष्य के भीतर की दुनिया है। यह दुनिया स्वप्न, स्मृतियां, फैंटेसी और अवचेतन से बनती है। यही रियल दुनिया है। बाहर की दुनिया तो रोज बदलती है लेकिन भीतर की दुनिया में ठहराव होता है।

पिछले दिनों रवीन्द्र आरोही का उपन्यास ‘आसमान के ताक पर’ (राजपाल एण्ड सन्स) पढ़ा। इससे पहले उनका लिखा कुछ नहीं पढ़ा था। एक कहानी तक नहीं। इस उपन्यास को पढ़ने के काफी दिनों बाद भी यह मन से निकल नहीं पा रहा। यह आरोही का पहला उपन्यास है, इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण है। सोचता रहा इस उपन्यास में ऐसा क्या है, जो भीतर तक छूता है।

शानदार गद्य इस उपन्यास की ताकत है। लेकिन आरोही के पास केवल भाषा का वैभव नहीं है, उनके पास परिवेश और कथ्य का बड़प्पन भी है। स्मृतियाँ और स्वप्न रवीन्द्र आरोही के गद्य की आत्मा है। लेकिन स्मृतियों और स्वप्न के मोह में वह कथा की समाधि नहीं बनाते, बल्कि कथा निरंतर प्रभावशाली बनती चली जाती है। इस उपन्यास की एक और खास बात है।

यह एक कालखण्ड की कथा तो है लेकिन यह कालखंड अतीत, वर्तमान और भविष्य को भी अपने भीतर समेटे है। रवीन्द्र आरोही वर्तमान में खड़े होकर, अतीत और भविष्य दोनों की डोर थामे रहते हैं। वह कहीं भी डोर को टूटने या छूटने नहीं देते। कई बार पाठक को यह भ्रम भी हो सकता है कि कथा किस दौर में चल रही है। आरोही पाठक के इस भ्रम को अपने शिल्प और कथा से ही तोड़ते चलते हैं।

गाँव की एक साधारण जिन्दगी से उठकर सुजांव नाम का एक युवा कोलकाता के अकादमिक और सांस्कृतिक जगत में स्थान बनाने के लिए पहुँचता है। उपन्यास में प्रेम है, स्मृतियाँ हैं, उदासी है, गाँव है, नदी है, दोस्त है, रंगमंच है, कविता है और जीवन दर्शन है। उपन्यास में आए कुछ वाक्यों पर गौर फरमाइये:

‘जो लोग घर से भागते होंगे, कभी-कभी रास्ते में कितना डर जाते होंगे’

‘जीवन भी कितने इत्तेफाकों से भरा है, यदि सारे इत्तेफाक लिख दिए जाएं तो कहानियां भी झूठी लगने लगें’
‘कैरेक्टर को अपने रोल की एडिटिंग करते रहना चाहिए…कोई ड्राफ्ट अंतिम नहीं होता’

‘किसी को जानने और जिन्दा रहने के लिए जरूरी है कि उसकी कहानी जान ली जाए-चाहे वह गढ़ी हुई ही क्यों न हो’
‘काश कि तुम किताब में रखा फूल होती, मेरे शब्दों के बीच…’

‘जो लोग कुछ नहीं होते वे सड़क हो जाते हैं, जिसपर चलकर दूसरे लोग कहीं पहुँच जाते हैं…’

जीवन का यह दर्शन थोपा हुआ कतई नहीं है। बल्कि स्थितियों और परिवेश से पैदा हुआ है। इसलिए ये दर्शन पाठक को अपनी-अपनी दुनिया में ले जाता है। वह इस दर्शन से खुद को रिलेट करता है। किरदार के तौर पर उपन्यास में सुजांव के अलावा उसका दोस्त उत्पल है, देबजानी है, घोष है, सुलोचना है। रवीन्द्र आरोही ने उपन्यास में घाघरा, हावड़ा, रेलगाड़ी और बरगद के पेड़ को भी किरदार बना दिया है। यह उपन्यास की ताकत है।

बरगद तो इतना अहम किरदार रवीन्द्र आरोही ने बना दिया है कि हर व्यक्ति बरगद होना चाहे। ‘सुजांव के सारे किस्से बरगद को अपने किस्से लगते थे और बरगद खुद भी तो सुजांव के एक बड़े जीवन का साथी रहा था।’ उपन्यास में बरगद एक ऐसा पेड़ है जो कथा का शिल्प बदल रहा है। देबजानी और सुजांव के प्रेम का किस्सा भी कुछ इस तरह सुनाई देता है।

‘मैंने पूछा कि पीठ पर होंठ कैसे और कहाँ रखे जाएं कि सेक्स के बाद का नहीं, पहले का चुंबन लगे। मैंने ये बात उसकी पीठ पर होंठ रखे-रखे ही कही।’

देबजानी ने कहा, कोई मेरे कानों में हार्डी की प्रेम कविताएँ घोलते हुए मुझसे सेक्स करे। सेक्स नहीं कोई मुझे भोगे।
रवीन्द्र आरोही यहां प्रेम को भी काव्यात्मक, वायवीय और आत्मीय बना देते हैं। देबजानी और सुजांव के बीच का रिश्ता महज शारीरिक या बैद्धिक नहीं है। यह दो इनसानों के बीच का सहज रिश्ता है, रंगमंच जिसका बुनियाद है। आरोही उपन्यास के उपन्यास में ममता कालिया की लिखी किताब-थियेटर रोड के कौवे का जिक्र आता है तो बाबा नागार्जुन की कविताओं का भी जिक्र आता है।

केदारनाथ सिंह सशरीर एक साहित्यिक कार्यक्रम में उपस्थित दिखाई देते हैं, पूरे परिवेश के साथ। सत्यजीत रॉय, अशोक कुमार, संजीव कुमार और कई अन्य हस्तियों से सुजांव की मुलाकात होती है। ये मुलाकातें सच में हुई होंगी या स्वप्न में ये बेमानी है। रवीन्द्र आरोही ने पूरे उपन्यास को कालखण्ड में बांधने का कोई प्रयास नहीं किया है। ऐसा लगता है कालखण्ड भी उनके अनुरूप अपनी भूमिका बदल रहा है।

सचमुच जीवन इसी तरह चलता है। उसमें एक साथ बहुत सी कथाएँ चलती हैं। ये कथाएँ स्वप्न में हो सकती हैं, व्यक्ति की फैंटेसी में, अतीत की हो सकती हैं या आने वाले कल की। व्यक्ति की कथा इसी तरह पूर्ण होती है। और इसी तरह पूरा होता है उपन्यास। नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा के पास भाषा का वैभव है।

इस उपन्यास को पढ़कर लगता है कि भाषा से बड़ा वैभव परिवेश का होता है। यह वैभव आसमान के ताक पर उपन्यास में दिखाई देता है। हिन्दी उपन्यास की रूढ़िवादिता को तोड़ता यह उपन्यास, उपन्यास की दुनिया में नयी बयार पैदा करेगा। इसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए।


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