राजस्थान में अगले साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होने हैं। अभी यहां अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार है हालांकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सरकार बनने के बाद से ही कई बार उन्हें अपनी पार्टी के भीतर के असंतोष से ही चुनौती मिलती रही है तथा इसका लाभ भाजपा को मिलने की संभावना है क्योंकि 1993 से यहाँ हर पांच साल में सरकार बदलने का ट्रेंड चला आ रहा है। ऐसे में ट्रेंड के अनुसार 2023 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का सत्ता में आना तय माना जा सकता है।
राजस्थान में बीते दो दशकों से वसुंधरा राजे भाजपा की एकक्षत्र नेता हैं जो यहां दो बार मुख्यमंत्री का पद भी संभाल चुकी हैं लेकिन पिछले दिनों कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिससे अनुमान लगाया जा रहा है कि वसुंधरा राजे और भाजपा के केंद्रीय नेताओं में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। राजस्थान में मुख्यमंत्री पद को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और प्रदेश भाजपा अध्य्क्ष सतीश पूनिया के बीच खींचतान चल रही है।
साल 2018 के विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा नेतृत्व ने केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की तैयारी कर ली थी लेकिन वसुंधरा राजे इसके विरोध में आ गयी थी जिसके कारण इनके करीबी मदन लाल सैनी को अध्यक्ष बनाया गया था।इस बार भी विधानसभा चुनाव के पहले बीजेपी नेतृत्व एक बार फिर पार्टी को वसुंधरा राजे के प्रभाव से बाहर लाकर, सबको साथ लेकर चुनाव मैदान में जाने की कोशिश में है और इसी के तहत पार्टी ने केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को प्रदेश में सक्रि य रखा है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि वसुंधरा राजे प्रदेश में भाजपा की कद्दावर नेता मानी जाती हैं। राजस्थान में दो बार मुख्यमंत्री व दो बार प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही केंद्र सरकार में मंत्री रह चुकी हैं। राजस्थान में भाजपा के अंदर बड़ी संख्या में उनके समर्थक मौजूद हैं। वहीं दूसरी ओर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डा. सतीश पूनिया वसुंधरा राजे विरोधी खेमे के नेता माने जाते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निकटता के चलते पूनिया को संघ का पूरा समर्थन प्राप्त है। पूनिया चाहते हैं कि अगला विधानसभा चुनाव पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम व चेहरे पर लड़ा जाय।
पूनिया का कहना है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। पार्टी ने उन्हें ही अगला मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ा था। तब वसुंधरा राजे के नेतृत्व में पार्टी को हार मिली थी। विधायकों की संख्या 163 से सिमटकर 73 रह गई थी। पूनिया गुट के नेताओं का कहना है कि यदि वसुंधरा राजे का मतदाताओं पर प्रभाव रहता तो उनके मुख्यमंत्री रहते पार्टी बुरी तरह से चुनाव क्यों हारती? विधानसभा चुनाव के कुछ महीनों बाद ही 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा राजस्थान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ी थी और सभी 25 सीटों पर जीत हासिल की थी।
विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाब चंद कटारिया भी सतीश पूनिया के साथ मिलकर वसुंधरा राजे की खिलाफत कर रहे हैं। वहीं केंद्र में जल शक्ति मंत्रलय में कैबिनेट मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नजदीकी लोगों में शुमार होते हैं। उनका अपना तीसरा धड़ा प्रदेश में सक्रि य है मगर वसुंधरा राजे को प्रदेश की राजनीति से दूर रखने में वह भी प्रदेश अध्यक्ष डा. सतीश पूनिया के खेमे से जुड़ गए हैं। गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रधानमंत्री मोदी से नजदीकी के चलते ही जल शक्ति जैसा बड़ा मंत्रलय दिया गया है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला भी राजस्थान भाजपा के बड़े नेता माने जाते हैं मगर संवैधानिक पद पर रहने के कारण वह खुले तौर पर किसी भी गुट से संबंद्ध नहीं हैं हालांकि समय आने पर ओम बिरला मुख्यमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदारों में शामिल हैं।
पिछले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री रहते वसुंधरा राजे को फ्री हैंड दिया गया था। प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार तक की पूरी कमान वसुंधरा राजे व उनके विश्वस्त लोगों के हाथों में थी पर इस समय अपनी उपेक्षा से क्षुब्ध वसुंधरा राजे इन दिनों बहुत भाग दौड़ कर सक्रि य हो रही हैं। हाल ही में वे दिल्ली में सरकार व संगठन के कई बड़े नेताओं से मिल चुकी हैं। उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में भी पहुंचकर वसुंधरा राजे ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी। राजस्थान में वसुंधरा राजे विचार मंच के नाम पर उनके समर्थक पार्टी के समानांतर एक संगठन चला रहे हैं जिसके माध्यम से समय-समय पर वसुंधरा राजे को प्रदेश नेतृत्व सौंपने की मांग की जाती रही है।
प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद डा. सतीश पूनिया लगातार राजस्थान में दौरे कर रहे हैं। पूनिया ने पिछले दिनों भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे घनश्याम तिवारी की भी पार्टी में पुन: वापसी करवाई है। घनश्याम तिवारी वसुंधरा राजे से नाराजगी के चलते ही पिछले विधानसभा चुनाव से पूर्व पार्टी छोडकर अपनी अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़े थे जिसमें वह बुरी तरह फेल हो गए थे। फिर घनश्याम तिवारी कांग्रेस में शामिल हो गए थे मगर प्रदेशाध्यक्ष पूनिया के प्रयासों से वह फिर से भाजपा में शामिल होकर धीरे-धीरे सक्रि य हो रहे हैं।
हाल ही में राजस्थान भाजपा में वसुंधरा राजे द्वारा हाशिये पर लगाए गए सभी नेता प्रदेश अध्यक्ष डा. पूनिया के साथ लगे हुए हैं। उनका प्रयास है कि किसी भी स्थिति में वसुंधरा राजे को फिर से प्रदेश की कमान नहीं सौंपी जाए, न ही उनके नेतृत्व में उनको मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर विधानसभा का अगला चुनाव लड़ा जाए। वसुंधरा राजे के भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होने व उन्हें केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाने के बाद पार्टी आलाकमान वसुंधरा राजे को पूरी तरह से राजस्थान से बाहर करने के मूड में नजर आ रहा है। इस बात की वसुंधरा राजे को भी पूरी जानकारी है। इसीलिए अपने को प्रदेश की राजनीति में ही सक्रि य रखने के लिए वसुंधरा राजे आलाकमान पर दबाव बना रही हैं।
एक समय था जब वसुंधरा राजे राजस्थान की एक छात्र नेता हुआ करती थीं। भैरों सिंह शेखावत के उपराष्ट्रपति बनने के बाद पूरे प्रदेश की भाजपा पर उनका नियंत्रण था। उपराष्ट्रपति से हटने के बाद जब भैरों सिंह शेखावत फिर से राजनीति में सक्रि य होने का प्रयास करने लगे तो वसुंधरा राजे ने उन्हें सिरे से खारिज कर ऐसी परिस्थितियां बना दी थीं कि भैरों सिंह शेखावत को अपने दामाद नरपत सिंह राजवी की विधानसभा सीट जिताने के लिए घर-घर जाकर चुनाव प्रचार करना पड़ा था। आज भाजपा की राजनीति में वही वसुंधरा राजे अप्रासंगिक हो चुकी हैं। इस बात का उन्हें भी पता है मगर फिर भी वह राजनीति में बने रहने के लिए अपना अंतिम प्रयास कर रही हैं।
हालांकि इस बात का पता तो आगे जाकर ही चलेगा कि राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा अपनी उपस्थिति बरकरार रख पाती है या बाहर हो जाती हैं मगर फिलहाल तो भाजपा की फूट का सीधा लाभ कांग्रेस को मिलता नजर आ रहा है परंतु यह भी आसानी से कहा जा सकता है कि वसुंधरा राजे का गिनती जल्द हार न मानने वाले नेताओं में होती है। पिछले पांच साल से प्रदेश में भाजपा ने दूसरे नेताओं को उभारने की काफी कोशिशें की हैं लेकिन वसुंधरा राजे के सामने उसकी हर कोशिशें फेल ही हुई हैं। ऐसे में अगर भाजपा वसुंधरा राजे के जगह प्रदेश में किसी और नेता को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करता है तो इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ सकता है।
अशोक भाटिया