Saturday, July 27, 2024
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रूस-यूक्रेन युद्ध के दो साल बाद

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Samvad 51


SATYENDRAयूक्रेन में रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई के चलते दो साल पूरे हो गए हैं। रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने 24 फरवरी 2022 को यूक्रेन में विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू की थी। उसके एक रोज बाद इस स्तंभकार ने लिखा था-‘आधुनिक काल का जब कभी इतिहास लिखा जाएगा, 24 फरवरी 2022 को उस दिन के रूप में दर्ज किया जाएगा, जब 1991 में अस्तित्व में आए कथित एक-ध्रुवीय विश्व के अंत की पुष्टि हो गई। अभी ये युद्ध अपनी परिणति तक नहीं पहुंचा है। ऐसे में युद्ध के कभी भी कोई नया मोड़ ले लेने की गुंजाइश बनी हुई है। इसलिए अभी ऐसी बड़ी घोषणा करना बेशक एक बड़ा जोखिम उठाना है। लेकिन कई ऐसे संकेत हैं, जिनके आधार पर यह जोखिम उठाया जा सकता है।’ दो साल बाद आज यह तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि वह अनुमान सटीक साबित हुआ। उस टिप्पणी में विशेष सैनिक कार्रवाई से पहले के घटनाक्रमों की चर्चा करते हुए यह दलील दी गई थी कि रूस को विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू करने के लिए मजबूर कर अमेरिका और उसके नेतृत्व वाले नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी आॅर्गनाइजेशन) ने अपने लिए एक बड़ा जोखिम मोल लिया है, जिसमें उसके सफल होने की संभावना न्यूनतम है। अब आज दो साल बाद क्या सूरत है? एक लंबी योजना के तहत नाटो ने यूक्रेन को अपना प्रॉक्सी बनाया। उसके जरिए रूस के खिलाफ प्रॉक्सी वॉर शुरू किया गया। मकसद था रूस को घेरना और अंतत: उसे हमेशा के लिए पंगु बना देना। लेकिन साफ है कि यह दांव उलटा पड़ा। नाटो का प्रॉक्सी बनने की बहुत महंगी कीमत यूक्रेन को चुकानी पड़ी है। आज वह सैनिक और आर्थिक रूप से बर्बाद हो चुका है। दूसरी तरफ इस युद्ध ने रूस को अपनी अर्थव्यवस्था को आत्म-निर्भर बनाने के लिए प्रेरित किया। यह जाहिर हुआ कि रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने 2014 में यूक्रेन में अमेरिका प्रायोजित बहुचर्चित माइदान तख्ता पलट के बाद से युद्ध का अनुमान लगा कर तैयारियां शुरू कर दी थीं। उसका नतीजा विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू होने के बाद दिखा।

फरवरी 2022 में इतिहास के सबसे सख्त प्रतिबंध लगाने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा था कि वे रूसी मुद्रा रुबल को मलबा) बना देंगे। लेकिन हुआ उसके विपरीत है। रूस ने अपने सोवियत युग के मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स में दोबारा जान फूंक दी है। उसने एक मजबूत युद्ध अर्थव्यवस्था खड़ी कर ली है। नतीजतन, पिछले दो वर्षों में रूसी अर्थव्यवस्था स्थिर गति से आगे बढ़ी है। जर्मनी को पीछे छोड़ते हुए रूस क्रय शक्ति समतुल्यता के पैमाने पर दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। दूसरी तरफ रूस को पंगु बनाने की अमेरिकी योजना में शामिल होकर यूरोप ने अपने पावों पर कुल्हाड़ी मारी है। रूस यूरोप के लिए सस्ती ऊर्जा का स्रोत था। यूरोपीय उद्योग रूस से आने वाली प्राकृतिक गैस पर निर्भर थे। प्रतिबंध लगाकर यूरोपीय देशों ने खुद यह स्रोत बंद कर दिया। इसका असर उन देशों के नागरिकों को ऊंची महंगाई के रूप में चुकानी पड़ी। उधर जर्मनी जैसा देश, जो दो साल पहले तक दुनिया में एक प्रमुख औद्योगिक शक्ति था, अपने उद्योगों की जड़ खोदने की तरफ जा बढ़ा।

युद्ध शुरू होते ही मशहूर अर्थशास्त्री माइकल हडसन ने कहा था कि प्रतिबंधों के जाल में फंसा कर अमेरिका ने तीसरी बार जर्मनी को परास्त कर दिया है- लेकिन इस बार उसने ऐसा बिना युद्ध लड़े किया है। पिछले दो वर्षों की घटनाओं ने हडसन की बात को सही साबित किया है। जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों ने रूस से ऊर्जा पाना बंद कर दिया और इसकी भरपाई के लिए चार से पांच गुना महंगी कीमत पर अमेरिका से लिक्वीफाइड नेचुरल गैस (एलएनजी) की खरीदारी शुरू की। इससे अमेरिकी तेल कंपनियों का मुनाफा बढ़ा है, जबकि यूरोप का आर्थिक संकट गहरा होता जा रहा है।

आरोप है कि इस रुझान को स्थायी बनाने के प्रयासमें ही अमेरिका ने नॉर्ड स्ट्रीम गैस पाइपलान को समुद्र के अंदर विस्फोट से उड़ा दिया। बेशक इस युद्ध से अमेरिका आर्थिक रूप से कम प्रभावित हुआ है। बल्कि कई मामलों में उसे लाभ हुआ है। जर्मनी में अपना कारोबार बंद करने वाले कई उद्योग अपने कारखाने अमेरिका ले गए हैँ। अमेरिका में यूरोपीय निवेश में भारी बढ़ोतरी हुई है। लेकिन अमेरिका का नुकसान सामरिक और भू-राजनीतिक है। युद्ध के मैदान यूक्रेन की पराजय को सीधे अमेरिका की कमजोर पड़ी ताकत और घटते प्रभाव के साथ जोड़ कर देखा गया है। यह बात दुनिया के सामने आई है कि गोला-बारूद उत्पादन की अमेरिकी क्षमता क्षीण हो चुकी है। उच्च तकनीक वाले हथियारों की आपूर्ति उसने की है, लेकिन युद्ध में आज भी आम गोला-बारूद का महत्त्व बचा हुआ है। यूक्रेन की नाकामियों का एक प्रमुख कारण इस मामले में रूस से पिछड़ जाना बताया गया है।

हकीकत यह है कि यूक्रेन इस सदी में सैनिक उद्देश्य हासिल करने में अमेरिका की लंबी नाकामियों की शृंखला में शामिल हो गया है। अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया आदि इस शृंखला की पूर्व कड़ियां रही हैं। इससे अमेरिकी सैनिक शक्ति के रुतबे में गहरी सेंध लगी है। यह धारणा टूटी है कि अपनी सैनिक महाशक्ति की हैसियत से अमेरिका दुनिया को अपने ढंग से चलाने में सक्षम है। यह क्षति बहुत गहरी है और इसके परिणाम दूरगामी होंगे।

इस घटनाक्रम ने खुद अमेरिका के शासक वर्ग और रणनीतिक समुदाय में विभाजन पैदा कर दिया है। यूक्रेन को समर्थन देने की जो आम सहमति आज से दो साल पहले वहां दिखी थी, वह आज टूट चुकी है। इस हद तक कि जो बाइडेन प्रशासन अपना पूरा जोर लगाने के बावजूद अमेरिकी कांग्रेस (संसद) से यूक्रेन के लिए और सैनिक एवं वित्तीय मदद का नया प्रस्ताव पारित नहीं करवा पा रहा है। यह प्रस्ताव कई महीनों से लंबित पड़ा है।रिपब्लिकन पार्टी का एक बड़ा खेमा यूक्रेन को दी गई मदद को संसाधनों की अब बबार्दी मानने लगा है।

नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में फिर से रिपब्लिकन उम्मीदवार बनने जा रहे डॉनल्ड ट्रंप ने एलान किया है कि राष्ट्रपति बनते ही 24 घंटों के अंदर वे यूक्रेन युद्ध को समाप्त कर देंगे। यहां तक कि एक भाषण में उन्होंने यूरोपीय देशों को चेतावनी दे दी कि वे अपनी रक्षा का खर्च खुद वहन करें और नाटो के लिए अपना आर्थिक योगदान बढ़ाएं। उन्होंने यहां तक कह दिया कि वे रूस को उन यूरोपीय देशों पर कब्जा कर लेने के लिए प्रोत्साहित करेंगे, जो अपना आर्थिक योगदान नहीं करेंगे। चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षणों में ट्रंप की स्पष्ट बढ़त को देखते हुए उनके इस बयान ने नाटो के अंदर भारी उथल-पुथल मचा रखी है। इस तरह कहा जा सकता है कि गुजरे दो साल अमेरिकी पराभव के स्पष्ट होने का काल हैं।


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