हिमालयी क्षेत्रों में बाढ़ आना, बादल फटना और भूस्खलन होना आम बात है, लेकिन इनकी मारक क्षमता और ऐसी घटनाओं की संख्या अब लगातार बढ़ रही है। जहां एक ओर असुरक्षित और बेतरतीब निर्माण को लेकर कई विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं, तो कई जानकार मानते हैं कि जंगलों के कटने और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव का भी असर है। कई बार आपदाओं में छोटे बच्चे भी शिकार हो रहे हैं और अक्सर मीडिया में इसकी खबर तक नहीं होती।
उत्तराखंड में साल 2013 की केदारनाथ आपदा के बारे में अखबारों में खूब लिखा गया, मीडिया में खूब दिखाया गया, लेकिन रुद्रप्रयाग जिले के ही उखीमठ में इस घटना के एक साल पहले यानी 2012 में भूस्खलन से 28 लोग मरे थे। ये हादसा चुन्नी-मंगोली नाम के गांव में हुआ, जहां उस घटना के बाद लोग आज भी दहशत में हैं। साल 2010 में बागेश्वर के सुमगढ़ गांव में एक प्राइमरी स्कूल के 18 बच्चे बादल फटने के बाद हुए भूस्खलन में दबकर मर गए। मरने वाले सभी बच्चों की उम्र 10 साल से कम थी।
सभी हिमालयी राज्य भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन में हैं। पिछले साल फरवरी में चमोली में आई बाढ़ के बाद जिला प्रशासन ने आपदा प्रबंधन विभाग से रैणी क्षेत्र का भूगर्भीय और जियो-टेक्निकल सर्वे करने को कहा। इस सर्वे के लिए उत्तराखंड डिजास्टर रिकवरी इनीशिएटिव के तीन जानकार वेंकटेश्वरलु, जीवीआरजी आचार्युलूऔर मनीष सेमवाल शामिल थे। इन विशेषज्ञों ने सर्वे के बाद सरकार को जो रिपोर्ट दी है, उसमें साफ कहा है कि रैणी गांव अपने मौजूदा हाल में काफी असुरक्षित है। इसके स्लोप स्टैबिलाइजेशन (ढलानों को सुरक्षित बनाने) की जरूरत है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ऋषिगंगा और धौलीगंगा का संगम उस पहाड़ी की तलहटी पर है, जिस पर रैणी गांव बसा हुआ है।
रिपोर्ट में चेतावनी देते हुए कहा गया है कि नदी के बहाव के कारण कमजोर पहाड़ का टो-इरोजन (नदी के पानी से आधार का क्षरण) हो रहा है। इससे आने वाले दिनों में फिर आपदा आ सकती है, इसीलिए या तो यहां के ढलानों को ठीक किया जाए या फिर इस गांव को खाली कराया जाए। जानकारों ने नदी के बहाव को माइक्रोपाइलिंग टेक्नोलॉजी (छोटे-छोटे पत्थर लगाकर प्रवाह को काबू करना) से नियंत्रित करने और इस जगह कुछ मीटर की दूरी पर दो-तीन चेक डैम बनाने की सलाह दी है।
रिपोर्ट कहती है कि सरकार रैणी गांव के लोगों को कहीं दूसरी जगह बसाए। विशेषज्ञों ने इसके लिए आस-पास कुछ जगहों की पहचान भी की है, जहां पर विस्थापितों का पुनर्वास किया जा सकता है। हालांकि यह काम इतना आसान नहीं है, जितना कहा जा रहा है। उत्तराखंड में समस्या ये है कि असुरक्षित इलाकों से हटाकर लोगों के पुनर्वास के लिए बहुत जमीन नहीं है। यह भी एक सच है कि किसी गांव के लोग विस्थापित को अपने यहां बसाना नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे पहले से उपलब्ध सीमित संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा।
अधिकारियों का कहना है कि रैणी गांव के पास अपनी कोई सुरक्षित जमीन नहीं है, इसीलिए वहां गांव वालों को नहीं बसाया जा सकता। पड़ोस के जिस गांव में लोगों को बसाने की कोशिश की जा रही है, वहां के लोग अभी अपने गांव में किसी के पुनर्वास के लिए तैयार नहीं हैं। इस तरह की अड़चन पुनर्वास में आती ही है। पहले भी इस समस्या का सामना किया जा चुका है।
हालांकि अधिकारियों का कहना है कि इससे पहले चमोली जिले में 13 गांवों का विस्थापन कराया गया है, लेकिन यह बहुत आसान नहीं है। इस बारे में दूसरे अधिकारी कहते हैं कि ग्रामीण जमीन खरीदें और सरकार उनका पैसा दे दे, यह एक विकल्प जरूर है। हालांकि सवाल है कि अगर सुरक्षित जमीन उपलब्ध नहीं होगी तो ग्रामीण जमीन खरीदेंगे कहां। इसका एक पहलू ये भी है कि पलायन के कारण बहुत से गांव खाली हो चुके हैं, जिन्हें अब भुतहा गांव कहा जाता है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इन गांवों में लोगों को बसाने की बात करते हैं, लेकिन इसमें कई व्यावहारिक और कानूनी
अड़चनें हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि जमीन और विस्थापन की समस्या विकास योजनाओं और वन संरक्षण की नीति से जुड़ी हुई है। वन भले ही 47 फीसदी पर हों, लेकिन 72 फीसदी जमीन वन विभाग के पास है। भूस्खलन और आपदाओं के कारण लगातार जमीन का क्षरण हो रहा है और सरकार के पास आज उपलब्ध जमीन का कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड भी नहीं है। प्रदेश में 1958-64 के बीच आखिरी बार जमीन की पैमाइश हुई थी। ऐसे में न्यायपूर्ण पुनर्वास कैसे कराया जा सकता है। कुल मिलाकर देवभूमि उत्तराखंड के पहाड़ी गांव भारी संकट में हैं। इन्हें संकट से निकालने के लिए सरकार और प्रशासन के साथ आम आदमी को भी आगे आना होगा। समय रहते यह कदम नहीं उठाया गया तो दरकते पहाड़ गांवों का अस्तित्व समाप्त कर देंगे।