पृथ्वी के दो तिहाई हिस्से पर पानी होने के बावजूद पानी की कमी की बात कई बार अविश्वसनीय लगने लगती है। इसका कारण है कि पृथ्वी पर उपलब्ध पानी का ज्यादातर हिस्सा नमकीन है और उसे पीने या अन्य गतिविधियों में प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
पानी एक नवीकरणीय स्रोत है। वाष्पीकरण और बारिश की चक्र के माध्यम से पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल खत्म नहीं होता। इसलिए खतरा इस बात का नहीं है कि पृथ्वी पर पानी खत्म हो जाएगा। खतरा यह है कि हमारी जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त साफ पानी होगा या नहीं।
नीदरलैंड् की यूनिवर्सिटी आॅफ ट्वेंटे के 2016 के एक अध्ययन के मुताबिक, आने वाले समय में दुनिया की करीब चार अरब आबादी को साल में कम से कम एक महीने पानी की गंभीर कमी का सामना करना पड़ेगा। देखा जाए तो कई देशों में ऐसी स्थिति आने भी लगी है।
साफ पानी की कमी में कुछ योगदान जलवायु परिवर्तन के कारण आए बदलावों का है लेकिन इसमें बड़ी हिस्सेदारी हमारी लापरवाही की है। भूजल का जरूरत से ज्यादा दोहन, नदियों व तालाबों को सूखने देना और साफ पानी के अन्य स्रोतों को इतना प्रदूषित कर देना कि उनका इस्तेमाल ही न किया जा सके।
खाने-पीने का सामान खरीदते समय कभी नहीं सोचा होगा कि आप जो खरीद रहे हैं, असल में उत्पादन से लेकर आप तक उसे पहुंचाने की पूरी प्रक्रि या में कितना पानी लग चुका है। एक कप काफी के लिए पर्याप्त बीन्स उगाने, उसे प्रोसेस करने और उसके परिवहन की कुल प्रक्रिया में औसतन 140 लीटर पानी लग जाता है।
यूएन फूड एंड एग्रीकल्चर आगेर्नाइजेशन का यह आकलन है।
20 लीटर पानी औसतन खर्च करता है एक व्यक्ति खाने-पीने व साफ-सफाई के जरूरी कामों के लिए। इसके अलावा कपड़े धोने और नहाने आदि में खर्च होता है। 140 लीटर पानी का औसत खर्च है जर्मनी में एक व्यक्ति का प्रतिदिन। इसमें 30 लीटर पानी शौचालय में फ्लश हो जाता है।
पृथ्वी पर उपलब्ध कुल मात्र में से 2.5 प्रतिशत ही ताजा पानी है। इसमें से भी दो तिहाई हिस्सा ग्लेशियर और बफीर्ली चोटियों के रूप में है यानी मनुष्य के खाने, पीने, खेती व अन्य कार्यों के लिए उपलब्ध ताजा पानी बमुश्किल एक प्रतिशत है।
विश्व के कुल भूभाग का मात्र 2.4 प्रतिशत क्षेत्रफल ही भारत के पास है और दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी निवास करती है। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक दबाव स्वाभाविक है। भारत के पास विश्व के कुल जल संसाधनों का मात्र 4 प्रतिशत ही है। उस पर खराब बात यह है कि जितना भूजल पूरा विश्व प्रतिवर्ष खींचता है, उसमें 25 प्रतिशत भागीदारी अकेले भारत की है।
जिस तरह से धरती की कोख में सुरक्षित पेयजल का दोहन हो रहा है, उसमें प्रदूषक तत्व मिल रहे हैं, हमारा बेपानीदार भविष्य स्पष्ट दिख रहा है। पेयजल संकट बारहमासी हो चुका है। जहां उपलब्ध है तो दूषित मिल रहा है। इंसानों को होने वाली बीमारियों में बड़ा हिस्सा इसी दूषित जल का है। दुनिया में करीब जितना भी ताजा जल मौजूद है, वह भूजल के रूप में है। इसी से पीने, सिंचाई, साफ-सफाई, कृषि, उद्योग और पारिस्थितिकी तंत्र की जरूरतें पूरी होती है।
भूजल हमारे पास उपलब्ध ऐसा अनमोल संसाधन है जो हमें दिखता नहीं, हमारे पैरों के नीचे मौजूद होकर हमारे सर्वांगीण उर्ध्वाधर और क्षैतिज विकास में सहायक होता है। दरअसल सदियों से यही भूजल हमारे अस्तित्व का आधार रहा है। हर साल धरती पर बारिश के रूप में इतना पानी बरस जाता है कि उससे कई पृथ्वी के लोगों की प्यास और जल जरूरतें पूरी की जा सकती है।
लेकिन पिछली सदी से हम लोगों ने धरती के भीतर मौजूद इस संसाधन का इतना दोहन किया कि उसकी मात्र संकुचित होती चली गई। बदले में बारिश से धरती पर आए पानी को उसकी कोख तक पहुंचाने में भी विफल रहे। एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। धरती पर मौजूद ज्यादातर जलस्रोत ताल, तलैया, पोखर, झील और छोटी सहायक नदियों का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है। पहले बारिश का पानी इन्हीं जलस्रोतों में जमा होकर सालभर धरती की कोख में रिस-रिसकर जाता रहता था और भूजल स्तर को ऊपर करने के साथ उसे निर्मल भी बनाता रहता था।
अब न वे जलस्रोत रहे और धरती के एक बड़े हिस्से का कंक्रटीकरण भी हो चुका है जो भूजल के स्वत: रिचार्ज होने की प्रक्रि या के आड़े आता है। लिहाजा कम जमा और ज्यादा निकासी के चलते भूजल की स्थिति गंभीर बन चली है। देश के कई हिस्से डार्क जोन हैं।
भावी जल संकट से निजात पाने के लिए कैचमेंट में जल संचयन, संरक्षण और भूजल संवर्धन के कार्य व्यापक पैमाने पर सघनता से करने होंगे। इसके लिए भारत सरकार ने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के प्रावधान किए हैं। तमाम योजनाओं से कई प्रक्षेत्रों में कुआं, तालाब जिआओ अभियान से भूजल स्तर में बढ़ोतरी देखी जा रही है।
आगे भूजल उपयोग की बात करें तो हम देखते हैं कि विभिन्न कमान क्षेत्रों में दो नलकूपों में न्यूनतम दूरी का अंतराल क्या होना चाहिए इसके लिए समुचित व्यवस्था नहीं है। यदि है भी तो राष्ट्रीय स्तर या विभिन्न राज्य स्तरों पर क्रि यान्वित करने योग्य सरल नियमावली या दिशानिर्देश नहीं हैं।
अब जरूरत है कि भूजल को लेने व उसे वापस लौटाने के अनुपात को हम बनाए रखें। बारिश के संरक्षण का कार्य गांवों के अंदर जहां तालाब व जोहड़ को पुनर्जीवित करके किया जा सकता है वहीं शहरों में रूफटाप वर्षा जल संरक्षण के माध्यम से ऐसा संभव है। राजस्व रिकार्ड के अनुसार भारत में करीब 36 लाख जलाशय दर्ज हैं जिनमें 3० प्रतिशत अपना अस्तित्व खो चुके हैं। शेष 95 प्रतिशत अतिक्र मण की मार झेल रहे हैं और मात्र 5 प्रतिशत ही अपने स्वरूप में बचे हुए हैं।
वर्तमान में मौजूद कुल जलाशयों में से करीब 50 प्रतिशत सूखे हुए हैं और 30 प्रतिशत गंदगी से बजबजा रहे हैं। कुल मौजूद जलाशयों में से 80 प्रतिशत जलाशय अपनी जल संभरण क्षमता खो चुके हैं। पानी की आपूर्ति और संग्रह के ढांचे में ज्यादा निवेश करना होगा। साथ ही खेती को ऐसा बनाना होगा, जिससे उसमें पानी की खपत कम हो। अभी ताजा पानी का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई में प्रयोग हो जाता है।
देश के भूजल संकट को दूर करने के लिए सरकार व समाज दोनों को युद्ध स्तर पर प्रयास करने होंगे। इसमें जहां चुने हुए गांव प्रमुखों की महती भूमिका होगी, वहीं धार्मिक गुरूओं का भी महत्वपूर्ण योगदान होगा। भारत में भूजल उपयोग के लिए कठोर कानूनों की आवश्यकता है क्योंकि यहां साफ पीने वाला पानी ही प्रत्येक कार्य में उपयोग में लाया जाता है। हमें सिंचाई, उद्योग व कुछ घरेलू कार्यों में कस्बों व शहरों से निकलने वाले सीवेज को शोधित करके इस्तेमाल करना होगा।
संविधान में प्रदत्त सभी नागरिकों को जल के मौलिक अधिकार मुहैया कराने के लिए भूजल प्रबंधन, नियंत्रण और संचालन हेतु शीघ्र समुचित कानून अथवा अधिनियम बनाया जाए, तत्पश्चात उसका अनुपालन हो। भूजल संवर्धन का क्रि यान्वयन कम से कम अगले 50 वर्षों तक सतत हो, तभी अपेक्षित परिणाम प्राप्त होंगे।
नरेन्द्र देवांगन