भाग्य का हमारे जीवन पर बहुत ही गहरा प्रभाव होता है। इस संसार में मनुष्य जब जन्म लेता है तो अपना भाग्य साथ ही लिखवाकर आता है, ऐसा हमारी भारतीय संस्कृति मानती है। भाग्य कौन लिखता है? यह कैसे बनता है? आदि प्रश्न हमारी जिज्ञासा को बढ़ाते हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति विशेष ऊपर आसमान में नहीं है जो हमारा भाग्य लिखने का कार्य करता है बल्कि हम स्वयं अपने भाग्य के निमार्ता हैं। सीधा स्पष्ट-सा गणित है कि हम जो भी अच्छे कार्य(सुकर्म) या बुरे कार्य(कुकर्म) करते हैं वही हमारा भाग्य बनाते हैं। दोनों कर्म और यानी सुकर्मों का फल हमें सफलताओं एवं सुख-समृद्धि के रूप में मिलता है। इसके विपरीत कुकर्मों का फल हमें असफलता व कष्ट-परेशानियों के रूप में मिलता है।
कुछ कर्मों का फल हम इसी जन्म में भोग लेते हैं और कुछ शेष बच जाते हैं। यही बचे कर्म जन्म-जन्मांतर तक हमारा साथ निभाते हैं। उन्हीं शेष बचे हुए कर्मों से हमारा भाग्य बनता है। भाग्य और कर्म अन्योन्याश्रित हैं। कर्म के बिना भाग्य फलदायी नहीं होता और भाग्य के बिना कर्म। इस बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि वे एक दूसरे के पूरक हैं और एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
यदि मनुष्य का भाग्य प्रबल होता है तब उसे थोड़ी-सी मेहनत करने पर उसे आशातीत फल प्राप्त होता है पर यदि वह श्रम नहीं करता तो अपने स्वर्णिम अवसर से चूक जाता है। तब पश्चाताप करने का भी कोई लाभ नही होता। परंतु इसके विपरीत कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि मनुष्य कठोर परिश्रम करता है पर उसे आशा के अनुरूप फल नहीं मिलता। इसका यह अर्थ नहीं कदापि नहीं कि वह परिश्रम करना छोडकर हाथ पर हाथ रखकर निठल्ला बैठ जाए और भाग्य को कोसता रहे या ईश्वर को गाली देता रहे।
मनुष्य को सदा अपने भाग्य और कर्म दोनों को एक समान मानना चाहिए। फिर बार-बार सफलता की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए। भाग्य भी तभी फल देता है जब मनुष्य स्वयं श्रम करता है। अब भाग्य से हमें भोजन प्राप्त हो गया है। उसे खाने के लिए भी तो मेहनत करनी पड़ेगी। रोटी का निवाला खुद मुँह में नहीं जाएगा। हाथ हिलाना पड़ेगा, रोटी का ग्रास तोड़ेंगे तभी तो निवाला मुँह में जाएगा और हमारा पेट भरेगा।
जब-जब अपने बाहुबल पर विश्वास करके कठोर परिश्रम करेंगे तब-तब हमारा भाग्य हमें अवश्यमेव फल देगा। भाग्य के भरोसे बैठकर कर्म करना नहीं त्यागना है। उन्नति करने का अवसर हर किसी को जीवन में अवश्य मिलता है। शर्त बस यही है कि उस अवसर की प्रतीक्षा करते हुए हमें अपने हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठना है बल्कि भविष्य को सुखद बनाने का सार्थक प्रयास करना है।