जिस न्यायपालिका के प्रतीक चिन्ह में सिंह स्तंभ के शीश पर धर्मचक्र टिका हो और जिसके नीचे उसका ध्येय वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ लिखा हो, अपने कुछ निर्णयों के चलते प्रारंभ से ही विवादों के घेरे में रहे, यह गले नहीं उतरता। हाल के आठ वर्षों में तो उच्च और सर्वोच्च न्यायपालिका ने तो कुछ ऐसे निर्णय पारित किये हैं जो माननीय न्यायपालिका के गले में मरे सांप की तरह लटक गये हैं और माननीय न्यायालयों की निष्पक्षता पर प्रश्न चिन्ह की तरह चिपक गये हैं।
कुछ ताजा प्रकरणों के अनुसार सीएए आंदोलन, दिल्ली दंगा, पश्चिम बंगाल चुनाव हिंसा और किसान आंदोलन प्रकरणों में पंचायती रुख के चलते देश के करोडों लोगों के हितों को ठेस पहुंचाने वाले अगंभीरता पूर्ण निर्णयों, विभिन्न मसलों पर स्वत: संज्ञान लेकर कड़े निर्णय पारित करने वालों की बहुत गंभीर प्रकरणों पर चुप्पी, हाईकोर्टों से जमानत पाए व्यक्तियों की जमानतें रद्द करने और देश की एक महान पत्रकार जो बारह करोड़ के चंदे में से सीधे अपने पिता के खाते में धन डालने के आरोपों के कारण बारह करोड़ के आरोप को नगण्य मान कर विदेश जाने की अनुमति देने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के निर्णय पर स्वत: संज्ञान न लेकर अपनी छवि को क्षतविक्षत कर चुके हैं।
एक 4 साल की बच्ची का जघन्य रेप करके युवक द्वारा नृशंस हत्या कर करने पर पास्को एक्ट के बावजूद जिसमें कम उम्र की लड़कियों के साथ अपराध करने पर कड़ी सजा के प्रावधान हैं, हमारे सुप्रीम कोर्ट के जजों को जिन्हें अपराधी के भविष्य की ज्यादा चिंता थी, हत्या के लिए मौत की सजा देने के बजाये उम्रकैद दे दी और रेप के मामले में उम्रकैद को 20 साल की सजा में बदल दिया। अपने फैसले में तीन जजों की बेंच ने जिसमें एक महिला मीलार्ड भी थीं, ने निर्णय किया कि इस अपराधी को भी जीने का अधिकार है और सजा पूरी करके वापस समाज के लिए कुछ लाभकर काम करने का मौका दिया जाना चाहिये? देखते हैं छूटने के बाद ये कौन सा लाभकारी काम करेगा।
और अब देखें वो दो मामले जो दोनों बिल्कुल एक जैसे हैं। बीजेपी नेता किरीट सोमैया पर महाराष्ट्र सरकार ने यह आरोप लगाया कि उन्होंने आई एन एस विराट को बचाने के लिए लोगों से चंदा लिया और उस चंदे का कोई हिसाब सरकार को नहीं दिया। उनके खिलाफ गिरफ्तारी के वारंट जारी कर दिए गए। किरीट सोमैया निचली अदालत, फिर सेशन कोर्ट और फिर मुंबई हाई कोर्ट यानी तीन अदालतों में अग्रिम जमानत के लिए गए लेकिन उन्हें तीनों अदालत ने अग्रिम जमानत नहीं दी।’
अब आप ऐसा ही दूसरा उदाहरण देखिए। गुजरात दंगों पर ख्याति पाने वाली तीस्ता जावेद सीतलवाड़ ने खाड़ी के देशों अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई जगहों से लगभग 100 करोड़ रुपए डोनेशन लिया। जांच में पता चला कि उसकी तमाम खरीदारी का भुगतान उसके ट्रस्ट के खाते से किया गया है। यहां तक कि दुबई एयरपोर्ट पर सोने के गहने खरीदने और ब्रिटेन के एयरपोर्ट पर ड्यूटी फ्री लिकर (शराब) खरीदने का बिल भी उसने ट्रस्ट के पैसे से दिया था। पता लगने पर उसी के ट्रस्ट सबरंग के एक दूसरे ट्रस्टी ने ही पुलिस में केस दर्ज करवाया।
पुलिस ने पहले 6 महीने जांच की, सारे सुबूत जमा किए, उसके बाद तीस्ता जावेद को गिरफ्तार करने मुंबई गई। तीस्ता जावेद ने अपने घर का दरवाजा नहीं खोला। 10 मिनट में इलाके के एक पुलिस स्टेशन में सुप्रीम कोर्ट का फैसला मेल से आ जाता है कि तीस्ता को गिरफ्तार करने से रोक दिया गया है। चर्चा है कि कपिल सिब्बल ने फोन पर सुप्रीम कोर्ट के एक जज से यह आदेश पारित करवा दिया। यह पहला अवसर था जब सुप्रीम कोर्ट ने टेलीफोन पर सुनवाई की और सिर्फ 3 मिनट की टेलीफोनिक सुनवाई में आदेश दे दिया। जहांगीरपुरी स्टे प्रकरण तो बिलकुल ताजा है। बार बार अतिक्र मण के मामलों पर प्रशासनिक अधिकारियों को डांटने वाले माननीय जजों ने बीसियों वर्षों से अनेक सामूहिक अतिक्रमणों पर स्टे बरकरार रखे हैं।
सच लगता है कि सरकार की किसी भी अन्य संस्था की तरह भारतीय न्यायिक प्रणाली भी समान रुप से भ्रष्ट है। भारतीय न्यायपालिका ने काम के तरीकों में भी कमियां दिखाई हैं। यहां जवाबदेही की कोई व्यवस्था नहीं है। मीडिया भी अवमानना के डर से साफ तस्वीर पेश नहीं करता। इसके रिश्वत लेने वाले किसी जज के खिलाफ बिना मुख्य न्यायाधीश की इजाजत के एफआईआर दर्ज करने का कोई प्रावधान नहीं है। भारत के आर्थिक हब मुंबई और दूसरे शहरों में अदालतें सालों पुराने जमीनी प्रकरणों को दबाए पड़ी हैं जिससे शहर के औद्योगिक विकास में भी बड़ी रुकावट आती है।
भारतीय न्यायिक प्रणाली की एक और समस्या उसमें पारदर्शिता की कमी है। यह देखा गया है कि सूचना के अधिकार को पूरी तरह से कानून प्रणाली से बाहर रखा गया है। इसलिए न्यायपालिका के कामकाज में महत्वपूर्ण मुद्दों, जैसे न्याय और गुणवत्ता को ठीक से नहीं जाना जा सकता।
यह बहुत जरुरी है कि किसी भी देश की न्यायपालिका समाज का अभिन्न अंग हो और उसका समाज से नियमित और प्रासंगिक और परस्पर संवाद होता रहे। कुछ देशों में न्यायिक निर्णयों में आम नागरिकों की भी भूमिका होती है। सूचना और संचार में तरक्की से देश के लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव आया है लेकिन इसके बाद भी भारतीय कानून प्रणाली अब भी ब्रिटिश असर वाली दबंग और कपटाचारी लगती है जो कि अमीर लोगों के लिए है और देश और आम लोगों से बहुत दूर है। सच तो यह है कि वर्तमान न्याय प्रणाली लोकतांत्रिक प्रक्रि या, मानदंड और समय के अनुकूल है ही नहीं और सिर्फ समाज के मुट्ठी भर वर्ग को खुश करने और उनके निहित स्वार्थ के लिए काम करती लगती है। इसलिए इसके तुरंत पुनर्गठन की आवश्यकता है जिससे इसे लोकतांत्रिक और प्रगतिशील समाज के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके।
किसी जज की हठधर्मिता का मुख्य कारण कार्यरत जज को उसके पद से हटाए जाने की प्रक्रिया बेहद जटिल है। उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रि या शुरू करने के लिये प्रस्ताव लोकसभा के कम से कम 100 सदस्यों या राज्यसभा के 50 सदस्यों द्वारा पेश किया जाना चाहिये। अगर प्रस्ताव को लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति स्वीकार कर लेते हैं तो वे एक जांच समिति का गठन करते हैं, इस जांच समिति में तीन सदस्य होते हैं। उच्चतम न्यायालय का कोई न्यायाधीश, किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश और कोई जाने-माने विधिवेत्ता इसके सदस्य होते हैं। यह समिति आरोप तय करती है और संबंधित न्यायाधीश से लिखित में जवाब मांगती है।
अगर जांच समिति न्यायाधीश को दोषी नहीं पाती तो आगे कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। अगर दोषी पाती है तो संसद के जिस सदन ने प्रस्ताव पेश किया था, वह प्रस्ताव को आगे बढ़ाने पर विचार कर सकता है। प्रस्ताव पर तब चर्चा होती है और न्यायाधीश या उनके प्रतिनिधि को अपना पक्ष रखने का अधिकार होता है। उसके बाद प्रस्ताव पर मतदान होता है। अगर प्रस्ताव को सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत का तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत का समर्थन मिल जाता है तभी उसे पारित माना जाता है। यही प्रक्रि या फिर दूसरे सदन में भी दोहराई जाती है।
उसके बाद सदन राष्ट्रपति को समावेदन भेजकर उनसे न्यायाधीश को पद से हटाने को कहता है। भारत में आज तक किसी जज को महाभियोग लाकर हटाया नहीं गया क्योंकि इससे पहले के सारे मामलों में कार्यवाही कभी पूरी ही नहीं हो सकी। या तो प्रस्ताव को बहुमत नहीं मिला, या फिर जजों ने उससे पहले ही इस्तीफा दे दिया। हालांकि इस पर विवाद है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जज वी. रामास्वामी को महाभियोग का सामना करने वाला पहला जज माना जाता है। उनके खिलाफ मई 1993 में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था।
यह प्रस्ताव लोकसभा में गिर गया क्योंकि उस वक्त सत्तासीन कांग्रेस ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया और प्रस्ताव को दो-तिहाई बहुमत नहीं मिला। कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन देश के दूसरे ऐसे जज थे जिन्हें अनुचित व्यवहार के लिए महाभियोग का सामना करना पड़ा था। यह भारत का अकेला ऐसा महाभियोग का मामला है जो राज्य सभा में पास होकर लोकसभा तक पहुंचा हालांकि लोकसभा में इस पर वोटिंग होने से पहले ही जस्टिस सेन ने इस्तीफा दे दिया था। और अंत में अवमानना का अमोघ अस्त्र तो है ही जो मीलार्ड को अभय प्रदान करता है।
राज सक्सेना