नवदुर्गों के शक्ति पर्व की महायात्रा समाप्त होकर विजयदशमी तक पहुंच गई। राम के चरित्र का गुणगान करतीं रामलीलाएं अपने अंतिम पड़ाव पर हैं। ऐसा माना जाता है कि धर्म-अधर्म और अच्छाई व बुराई के प्रतीक क्रमश: राम और रावण के युद्ध के बाद निश्चित ही धर्म की विजय होगी और अधर्म पराजित होगा। इस कालक्रम को चलते-चलते सदियां बीत गर्इं। सदियों पुरानी राम कथा हमें आज भी मर्यादा पुरुषोत्तम के पुरुषार्थ का स्मरण कराती है। उनके इसी पुरुषार्थ के कारण भारतीय संस्कृति सामाजिक व धार्मिक रूप से अक्षुण्ण रह सकी। यही वजह है कि राम कथा आज भी जनमानस के मनोमष्तिष्क में गंगा की अविरल धारा के समान गतिमान है। इसका श्रेय दरअसल तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस को भी जाता है, जिसने राम के पारिवारिक चरित्र और सामाजिक संस्कारों को आमजन की भाषा में गांव-गांव तक पहुंचाया। देखा जाए तो तुलसी के मानस में भगवान श्रीराम एक धनुर्धर योद्धा ही नहीं हैं, बल्कि एक लोकतात्रिंक राजा भी हैं, जिनके लिए प्रजा के सुख पहले हैं। अयोध्या से लेकर लंका तक विशाल भूभाग पर विजय प्राप्त करने के बाद भी वे अपनी प्रजा को ही प्राथमिकता पर रखते हैं। दरअसल, रामकथा एक ऐसे अद्वितीय चरित्र की कथा है, जो एक युवराज के राजतिलक के निर्णय के बावजूद वनगमन की विषम परिस्थिति के बीच पिता की आज्ञा को प्राथमिकता देकर पारिवारिक मूल्यों को स्थापित करती है। गौर करने लायक बात यह है कि हजारों साल के बाद भी पारिवारिक मूल्यों को प्रतिस्थापित करने के यही मानक आज भी हमारे पास हैं।
राम के वनगमन की गाथा के सकेंत ये हैं कि वहां की विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने अपना अधिकांश समय अयोध्या की आर्य स्ांस्कृति के विस्तार में ही लगाया। राम के चित्रकूट से जुड़ा उनका राजनीतिक अध्याय बताता है कि वहां आर्यों और अनार्यों की संस्कृति का जबरदस्त टकराव था। क्योंकि चित्रकूट के आस-पास अभ्यारण्य था, इसलिए वहां आर्यों और अनार्यों के बीच एक प्रकार की संधि थी कि उस क्षेत्र में कोई भी शस्त्र के साथ प्रवेश नहीं करेगा। वहां आर्य इस अभ्यारण्य का प्रयोग यज्ञ इत्यादि के लिए करते थे। इसलिए यह स्थान अनार्यों के लिए बंधित था। परंतु फिर भी अनार्य इस संधि का निरन्तर उल्लंघन करते रहे। इसी वजह से ऋषि-मुनि उनसे बुरी तरह क्षुब्ध हो गए।
राम कथा का इतिहास साक्षी है कि चित्रकूट में राम को किस प्रकार असुरों के रोष का सामना करना पड़ा। आर्यों व असुरों के बीच लगातार इसी प्रतिक्रिया स्वरूप आर्यों की ओर से सूपर्नखा प्रसंग, खर-दूषण वध और तत्पश्चात रावण द्वारा सीता हरण दोनों पक्षों के बीच यह जवाबी कार्यवाही का ही परिणाम रही थी। इस कथा का सामाजिक दर्शन गवाह है कि राम चाहते तो अयोध्या से सेना बुला सकते थे। परंतु उन्होंने स्थानीय वनवासियों से सीधा संवाद बनाकर उनकी सहायता और अपनी सूझ-बूझ और अपने सामरिक कौशल से बाली वध करके अनार्यों के रुप में खड़े असुरों की कमर तोड़ी। इसके पश्चात अपने कौशल से ही रावण का वध करके वहां का राज-पाठ रावण के कनिष्ठ भ्राता विभीषण को सौंपकर आर्य संस्कृति का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया।
रामकथा से जुड़े मानस में प्रभु श्रीराम के अयोध्या से चित्रकूट तथा फिर पचंवटी और किष्किन्धा पर्वत तक की यात्रा के बीच हमें तीन आदर्श साफतौर पर परिलक्षित होते हैं। पहला यह कि अयोध्या में राम की वनगमन की घोषणा के बाद उन्होंने पिता की आज्ञा मानते हुए समाज के सामने पारिवारिक मूल्यों को स्थापित किया। दूसरे, अपनी वनगमन की यात्रा के दौरान तमाम विद्वानों के साथ वनवासियों के साथ-साथ मूक प्शु व पक्षियों तक से संवाद कायम करके उनसे आत्मीय रिश्ता कायम किया। तीसरे, सूर्यवंशी यानि आर्य जाति से जुड़ा अपना क्षत्रिय धर्म निभाते हुए अनार्यों से धर्मयुद्ध किया। साथ ही लंका में विजय प्राप्त करने के बाद जहां एक ओर आर्य समाज की प्रतिष्ठा को स्थापित किया, वहीं दूसरी ओर अयोध्या में नीति व संस्कृतिनिष्ठ साम्राज्य की भी स्थापना की।
आज विजयदशमी के पर्व के पीछे छिपी विजयगाथा को जब हम पढ़ते हैं तो यहां यह भी साफ हो जाता है कि राम महापुरुष थे ही, इसलिए क्योंकि उनकी दृष्टि संकुचित न होकर विस्तारवादी रही। इसी दृष्टि के तहत उन्होंने अनार्यों से संघर्ष करके एक सनातनी संस्कृति का प्रादुर्भाव किया। उनके द्वारा लंका की ऐतिहासिक विजय समस्त भारत में धर्म और संपन्नता की स्थापना का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती है। आज नरेंद्र मोदी सबका साथ और सबके जिस विकास के दर्शन को सामने रखकर आगे बढ़ रहे हैं।
दरअसल, वह सही मायनों में श्रीराम के चरित्र का ही आदर्श है। देखा जाए तो श्रीराम ने भी परिवार व समाज में अपना आदर्श प्रस्तुत करके तमाम प्रकार के क्लेशों से उभारा है। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने अपने बुद्धि कौशल और पराक्रम से अपने राज्य का विस्तार भी किया। इससे भी आगे जाकर उन्होंने अपने जीवन के अनुशासन और मर्यादाओं का पालन करके समाज के सामने एक राजा के कर्तव्यों का बोध कराया। वनगमन की तमाम बाधाओं के बीच उनका संदेश कभी भी धर्मविरुद्ध नहीं रहा। उन्होंने पूरे महाद्वीप में समाज और प्रकृति के बीच संतुलन बनाते हुए भावनात्मक एकीकरण का भी स्पष्ट संदेश दिया।
विजयदशमी का यह पर्व हर साल आकर हमें झकझोर कर संदेश देता तो है, परंतु हमारी कथनी और करनी का बढ़ता अंतर हर साल प्रभु श्रीराम के चरित्र का सांकेतिक ही प्रभाव छोड़ पाता है। शायद यही वजह है कि प्रभु श्रीराम का चरित्र और उससें जुड़ा दर्शन भी केवल रामलीलाओं के प्रदर्शन और भारी-भरकम वेशभूषा और चमकदार शैली तक ही सीमित हो रहा है। श्रीराम के चरित्र से जुड़ा दर्शन यह है कि कम से कम हमारा आचरण धमार्नुकूल हो। दूसरों के प्रति हमारा भाव द्वेष से परे हो। हमारी कार्यशैली लोकतात्रिंक रहे। आपसी व्यवहार संवाद से परिपूर्ण होने के साथ-साथ प्रेम से भरा हो। हमारी रामायण, गीता और महाभारत जैसी धार्मिक पुस्तकें हमेशा मानव को धर्म की लौकिक दुनिया को आगाह करते हुए समाजोन्मुख जीवन जीने के लिए ही रची गर्इं थीं।
इन्हीं के जरिये समाज व राष्ट्र को सामाजिक धार्मिक प्राणवायु मिलती रही है। लोगों के बीच इसी कर्तव्यरूपी धर्म को प्रतिस्थापित कराकर ही भगवान श्रीराम के धार्मिक व चारित्रिक दर्शन को आत्मसात किया जा सकता है। अन्यथा की स्थिति में चारों दिशाओं से उठती आसुरी ताकतें हमें श्रीराम के सम्यक दर्शन से दूर करती रहेंगी। विजयदशमी का यह पर्व हमें प्रभु श्रीराम जैसे युगपुरुष के जरिये मानव से महामानव बनने और हर परिस्थिति से संघर्ष करते हुए धर्म के अनुकूल आचरण के जरिये विजयी बनने की अनवर्त यात्रा का संदेश है।