
एक बार फिर से किसान आंदोलन सुर्खियों में है। पिछले पांच वर्षों में ये पांचवां ऐसा दौर है, जब किसान अपने मुद्दों पर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए सड़कों पर हैं, वो वहीं खा रहे हैं, वहीं पका रहे हैं, वहीं कड़कड़ाती सर्दी में बैठे अपने नारों से नीति निर्माताओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए गुहार लगा रहे हैं। किसान आंदोलन का ये स्वरूप देश में 1980 के दशक में भी इसी प्रकार उभरा था। उस समय भी दिल्ली में केवल किसान आंदोलन के चर्चे थे। दिल्ली में आज पुन: वही राजनीतिक माहौल देखने को मिल रहा है।
परंतु इस बार का किसान आंदोलन पहले से अलग है। ये आंदोलन देश की राजनीति में आए गुणात्मक परिवर्तन का संकेत है। सबसे बड़ा अंतर तो ये है कि ये आंदोलन अपने आपको केवल आंदोलन की तरह देखना चाहता है, किसी राजनीतिक दल से वो अपने संघर्ष को सम्बंधित दिखाना नहीं चाहता। हर बार किसान संगठन स्पष्टीकरण देते हुए दिखाई देते हैं कि वे केवल किसान हितों को बचने के लिए संघर्षरत हैं और उनका चुनावों से सम्बंधित कोई ‘राजनीतिक एजेंडा’ नहीं है। इसे किसान आंदोलनों का दलीय राजनीति से अलग दिखने का प्रयास भी कहा जा सकता है। साथ ही इसका उद्देश्य किसान आंदोलनों को एक अलग प्रकार के दबाव समूह के रूप में अपने आप को स्थापित करना भी हो सकता है। ये न तो केवल वामपंथी राजनीति का एक स्वरूप है और न ही क्षेत्रीय किसान संगठनों की दबाव की राजनीति की अभिव्यक्ति। यह प्रदर्शन किसान आंदोलन का हिस्सा है क्योंकि वह किसानों द्वारा संचालित है। शहरी पढ़े-लिखे वर्ग द्वारा नियंत्रित और निर्देशित वामपंथी किसान आंदोलनों से ये आंदोलन इन्हीं मायनों में अलग है।
यह तथ्य तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम इन किसान आंदोलनों को अलग-अलग किसान संगठनों के सामूहिक प्रयास के रूप में देखते हैं। अस्सी के दशक के किसान आंदोलन जहां किसी क्षेत्र-विशेष में, किसी एक संगठन या फिर एक व्यक्ति विशेष द्वारा संचालित थे, आज का किसान आंदोलन एक संचालन समिति द्वारा निर्देशित और नियंत्रित है। इस समिति में अलग-अलग किसान संगठनों का प्रतिनिधित्व है। प्रदर्शन और उसके नियंत्रण में समिति को अन्य वर्गों, जैसे-विद्यार्थियों, अन्य गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) और अन्य आंदोलनों से जुड़े व्यक्तियों का भी समर्थन हासिल है। दूसरे शब्दों में, इस दौर में किसान आंदोलनों में अधिक लोकतान्त्रिक समन्वयन और कार्य पद्धति देखने को मिलती है। इतने सारे अलग-अलग संगठनों और घटकों के बीच समन्वय निश्चित तौर पर चुनौतीपूर्ण है, परंतु किसान संगठन लगातार इस कार्य प्रणाली से सीखकर अपने आंदोलनों और प्रदर्शनों को अधिक बेहतर ढंग से आयोजित करते आए हैं।
एक और बात जो वर्तमान किसान आंदोलनों को अन्य किसान आंदोलनों और सामाजिक आंदोलनों से अलग करता है, वह है, इस आंदोलन द्वारा ग्रामीण समाज और अर्थव्यवस्था के दूसरों वर्गों से समर्थन हासिल करने का प्रयास। पिछले कुछ समय से किसान आंदोलन लगातार इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि वे केवल खेती से संबंधित मुद्दों और उससे जुड़े लोगों को साथ लेने के साथ-साथ एक वृहत्तर आर्थिक गठबंधन के रूप में अपने आपको स्थापित करें। इसमें न केवल छोटे, मध्यम किसान सम्मिलित हैं, बल्कि आढ़तिया, साहूकार, मजदूर वर्ग और साथ ही किसान जीवन से जुड़े, ग्रामीण व्यवस्था से जुड़े छोटे कारोबारी, नौकरीपेशा वर्ग इत्यादि भी शामिल हैं। इन अन्य वर्गों की किसान आंदोलन के प्रति संवेदनशीलता जहां प्रदर्शनों में सम्मिलित अलग-अलग वर्गों के लोगों से है, वहीं वे चाहे किसान आंदोलनों के नारे हों, उनके नेताओं के भाषण हों, जारी प्रेस विज्ञप्तियां हों या फिर उनकी कार्य-प्रणाली, इनमें किसान आंदोलन की भी समाज के अन्य वर्गों के प्रति संवेदनशीलता साफ दिखाई देती है।
इसके अतिरिक्त किसान आंदोलन लगातार देश के अलग-अलग क्षेत्रों के किसानों की मांगों को उठाते आए हैं। तीन वर्ष पहले वो मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों से संबंधित था, फिर महाराष्ट्र के जनजातीय समाज की भूमि संबंधी मांगों में, राजस्थान में कर्ज और किसानी की समस्या के बारे में, फिर पश्चिमी उत्तरप्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा के किसानों की दिल्ली में रैली, पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसानों का दिल्लीं में प्रवेश का प्रयास और अब पुन: पंजाब और देश के अन्य किसानों का आंदोलन, इन आंदोलनों में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का संघवादी ढांचा स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
आंदोलन की ये राजनीति किसी संगठित राजनीतिक गतिविधि का परिणाम नहीं है। ये विरोध प्रदर्शन अचानक से किन्हीं मुद्दों पर हो जाने वाली राजनीतिक लामबंदी को दर्शाते हैं। दूसरे शब्दों में, यह प्रदर्शन वास्तव में किसी विचारधारा और संगठनात्मक गतिविधियों को लेकर खड़े हुए जन-आंदोलन जैसे नहीं हैं। यह भारतीय राजनीति में तत्क्षण राजनीति के अभ्युदय का परिचायक है जिसमें पहले से यह बता पाना अत्यंत कठिन होता है कि कब, किस मुद्दे पर, कहां जन-आक्रोश भड़क उठेगा और उसका चरित्र क्या होगा।
अक्सर इस बात को लेकर सवाल उठाए जाते हैं कि यह आंदोलन किस हद तक अपनी मांगों को मनवाने में समर्थ होंगे। या फिर क्या किसान प्रदर्शनों का स्वरूप क्षण-भंगुर है? वास्तव में इन विरोध प्रदर्शनों को भारतीय राजनीति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। आज जब शहरी राजनीति का स्वरूप मध्यमवर्गीय व्यक्तिगत आर्थिक लाभ के मुद्दों तक सीमित हो चुका है, जिसे प्रोपेगेंडा आधारित एजेंडा निर्धारित करता है, जब धर्मनिरपेक्ष राज्य व्यवस्था की अवधारणा केवल किताबी शब्दावली की तरह प्रतीत होती है और राज्य के तंत्र और उसकी एजेंसियों का मकड़जाल हर प्रकार की सक्रिय राजनीतिक भागीदारी को कमजोर कर रहा है, किसानों द्वारा किए जाने वाले प्रदर्शन राजनीति में लोकतंत्र की एकमात्र उम्मीद की किरण प्रतीत होते हैं। किसानों के मुद्दे पर बहस जारी रह सकती है और उन पर सवाल भी उठाए जा सकते हैं, परंतु देश के राजमार्गों पर खड़े ये किसान वास्तव में भारतीय लोकतंत्र और मानवता के पहरेदारों से कम नहीं हैं। उनका योगदान इससे तय नहीं होगा कि उन्होंने क्या हासिल किया, अपितु इससे तय होगा कि उन्होंने लोकतंत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए बहादुरी दिखाई।