Tuesday, March 19, 2024
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पांच दशक पहले की पत्रकारिता की दुनिया दिखाता उपन्यास

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सुधांशु गुप्त
सुधांशु गुप्त

पत्रकारिता की दुनिया आज बहुत बदल गई है। गति, मोटे-मोटे पैकेज, सत्ता के करीब पहुंचने की चाह, शोषण के तरीके, पत्रकारों के पास करोड़ों की संपत्ति का होना पत्रकारिता की दुनिया के नये संकेत हैं। आज तो पत्रकारिता जगत को ‘गोदी मीडिया’ तक कहा जा रहा है। यह दुनिया अचानक नहीं बदली है। इस तरह के बदलाव के संकेत बहुत पहले से मिलने लगे थे। लेकिन 90 के दशक में उदारीकरण और वैश्वीकरण ने पत्रकारों की आकांक्षाओं को एक नयी उड़ान दे दी। दस-दस हजार रूपए प्रतिमाह पर काम करने वालों को पचास पचास हजार रुपए मिलने लगे। पत्रकारों के पास गाड़ियां, बंगले और सुख सुविधा के सारे साजो सामान आ गए। जाहिर है पत्रकारिता और मूल्य सब पिछले पायदान पर खिसकते गए। आज अगर आप साढ़े चार दशक या पांच दशक पहले की पत्रकारिता की दुनिया को देखना चाहें तो आपके पास पत्रकारिता पर लिखे उपन्यास या पत्रकारिता के इतिहास को पढ़ने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। संयोग से 21वीं सदी के तीसरे दशक में प्रवेश करते समय वरिष्ठ रचनाकार अशोक अग्रवाल का 1975 में छपा उपन्यास ‘वायदा माफ गवाह’ (संभावना प्रकाशन) पढ़ने का अवसर मिला। अशोक अग्रवाल आठवें दशक के शुरूआती समय से निरंतर लिख रहे हैं। उनके अनेक कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। सहजता, सरलता और पठनीयता उनके लेखन की अदा भी है और शैली भी। इस उपन्यास को पढ़कर आप उस समय की जटिलताविहीन दुनिया को देख, जान और पहचान सकते हैं। ऐसा नहीं है कि पत्रकारिता की दुनिया उस समय ईमानदारी, पारदर्शिता और प्रतिबद्धता का प्रतीक थी। चापलूसी उस समय भी आगे बढ़ने का आसान रास्ता था। लेकिन  मौजूदा दौर में चापलूसी के जो नये-नये तरीके सामने आए हैं, पत्रकारों में जो भक्तिभाव दिखाई पड़ने लगा है, वह पहले नहीं था। पहले पूरी लड़ार्ई सिर्फ अपनी नौकरी बचाने की हुआ करती थी। शोषण उस समय भी था, लेकिन शोषक दिखाई पड़ता था। आप उसे पहचान सकते थे। चाहें तो उसका विरोध कर सकते थे। उस समय ऐसा कतई नहीं था कि आप जीवन भर यही ना जान पाएं कि आपका शोषक कौन है। आपके मन में यह सवाल उठ सकता है कि अगर यह उपन्यास आज लिखा गया होता तो क्या इसी रूप में होता? और आज यह उपन्यास कितना प्रासंगिक है? अशोक अग्रवाल स्वयं इस सवाल का जवाब भूमिका में देते हैं, मैंने आज इसे लिखा होता तो उसका वह रूप कतई नहीं होता। भाषा का उन्मुक्त आवेग-शब्दों के पास ठहरने की जैसे फुर्सत ही न हो, शिल्प की अनगढ़ता और तराश और भी बहुत कुछ।

इन सारे सवालों के बावजूद यह उपन्यास इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि लगभग 80 के दशक से पत्रकारिता की दुनिया से जुड़े लोगों को इसमें अपना अक्स दिखाई देगा। उपन्यास की शुरुआत एक युवक अमर के इंटरव्यू से होती है। इससे पहले ही लेखक यह नैरेट कर देता है कि इस प्रजातांत्रिक युग में भी सिर्फ राजा का पुत्र ही राजयोग का अधिकार रखता है, और उनका राजवंश से दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं था। इंटरव्यू के दौरान अमर की पहली मुलाकात मानव संदेश नामक एक साप्ताहिक पत्र के प्रधान और उनकी कथित सचिव से होती है। इस सचिव को गुलाबी खुशबू कहा गया है। पाखंड की शुरुआत यहीं से होती है। प्रधान अमर को बताते हैं…हमारी संस्था एक आदर्श संस्था है। इसकी अपनी एक आचार संहिता है। इसका पालन आपको पूर्णरूपेण करना होगा। हमारी संस्था भारतीय संस्कृति और उच्च नैतिक मापदंडों पर टिकी हुई है। इसके उज्ज्वल भविष्य के लिए आपको सब कुछ न्यौछावर कर देना होगा। गुलाबी खुशबू प्रधान की सहमति में कहती है, शर्मा जी का हर वाक्य हमारे लिए वेदवाक्य होता है। दिलचस्प बात है कि अंदाज बेशक बदल गया हो लेकिन कमोबेश इसी तरह की बात एक पत्रकार को, वरिष्ठ पत्रकार से, (जो उस समय उनके बॉस थे) 21वीं सदी के पहले दशक में कहते सुना गया था। पत्रकार ने कहा था, सर आपकी डांट हमारे लिए पूजा की तरह है, जब तक आप डांटते नहीं हम काम नहीं कर पाते। बॉस हर समय अपने अंडर में काम करने वालों को डांटा करते थे। यानी चापलूसी की भाषा आज के समय में बदल गई है।

बहरहाल, अमर इस साप्ताहिक में काम करना शुरू करता है। नए-नए चेहरों से अमर की मुलाकात होती है। देव, वर्मा, रामस्वरूप, मिस जायसवाल, विजया, नौटियाल, जगदीप और गुलाबी खुशबू मिस टीना। किरदार और भी हैं, जैसे आमतौर पर अखबारों में होते हैं। मसलन सुल्तान और दरबान। इन सबके बीच है प्रधान। प्रधान सब कर्मचारियों पर नजर रखता है। वह जैसे चाहता है, सबको उसी तरह हांकता है। अशोक अग्रवाल ने इन सारे किरदारों को चेहरों की तरह चित्रित किया है। सचमुच अखबारों में काम करने वाले चेहरों में ही तो बदल जाते हैं। उनका कोई नाम, पहचान और काम मायने नहीं रखता। उपन्यास में किरदारों के दुख-सुख हैं। उनकी थोड़ी बहुत निजी जिंदगियां भी हैं। हर कर्मचारी की जद्दोजहद सिर्फ अपनी नौकरी बचाना और प्रधान की नजर में ऊपर उठना ही है। प्रधान यह बात जानता है। दफ्तर में ऐसे कर्मचारी भी हैं, जो हर बात प्रधान तक पहुंचाते हैं। पत्रकारिता का पहला सबक यही है कि यहां कोई व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है। जब तक आप प्रधान के काम के हैं आप बने रहेंगे। जिस दिन प्रधान को लगेगा कि आप उसके उपयोग के नहीं रहे, उस दिन आप संस्था से बाहर कर दिए जाएंगे। कुर्सी कोई भी कभी खाली नहीं रहती। एक जाता है, दूसरा उसकी जगह बैठ जाता है। यही प्रक्रिया है। हर संस्थान की तरह मानव संदेश में भी परिस्थितियों से कुछ लोग विरोध करते हैं और उन्हें बाहर का रास्ता देखना पड़ता है। अमर भी प्रधान के प्रति काफी नाराजगी मन में पाले रहता है। लेकिन शायद उसमें विद्रोह करने की ताकत नहीं है। उपन्यास में यह भी दर्ज किया गया है कि प्रधान किस तरह स्टोरीज का अपने लिए उपोयग करता है। मिस टीना का किरदार उस समय खुलता है, जब वह अमर से बात करती है। अमर को पता चलता है कि टीना वैसी नहीं है जैसी वे सब समझा करते थे।

अमर को बराबर यह लगता रहता है कि शायद प्रधान उससे और उसके काम से प्रभावित है। उसे नौकरी करते हुए छह महीने होने वाले हैं। एक दिन प्रधान उसे अपने केबिन में बुलाकर प्लेन पेपर उसके सामने रख देते हैं और उससे इस्तीफा लिखने के लिए कह देते हैं। क्योंकि छह माह बात कर्मचारी को परमानेंट करना पड़ता है। जाहिर है अमर के जाने के बाद उसकी जगह लेने के लिए कोई और तैयार है।  अमर पत्रकारिता की इस दुनिया का गवाह बनता है, लेकिन वायदा माफ गवाह।


फीचर डेस्क Dainik Janwani

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