Sunday, January 5, 2025
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धुरंधरों के सामने सरधना का ‘निजाम’ बदलने की चुनौती

  • निकाय चुनाव: परिवर्तन के लिए मंथन में लगे हुए राजनीतिक चाणक्य, मुस्लिम बाहुल्य का मिलता है अधिक लाभ
  • तीन बार जीत दर्ज करा चुकी चेयरपर्सन सबीला अंसारी व उनके पति निजाम अंसारी

जनवाणी संवाददाता |

सरधना: समय के साथ निकाय चुनाव को लेकर राजनीतिक गर्मी भी बढ़ती जा रही है। सरधना में नगर पालिका अध्यक्ष पद पर परिवर्तन के लिए राजनीति के चाणक्य मंथन में लग गए हैं। तीन बार जीत का ताज अपने सिर पहन चुकी वर्तमान चेयरपर्सन सबीला अंसारी व उनके पति निजाम अंसारी की प्रतिष्ठा भी दाव पर है। जहां एक ओर राजनीति के धुरंधर सरधना का निजाम बदलने का गणित बैठा रहे हैं। वहीं वर्तमान चेयरर्सन गुट भी फिर से जनता का विश्वास जीतने के लिए पूरी टीम के साथ मैदान में उतर चुका है।

सरधना मुस्लिम बाहुल्य और उसमें भी अंसारी वोट अधिक होने के कारण निजाम अंसारी गुट का तिलिस्म तोड़ना बड़ी चुनौती है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गत चुनाव में भाजपा प्रत्याशी को चुनाव लड़ाने के लिए खुद पूर्व विधायक संगीत सोम मैदान में उतर गए थे, लेकिन इसके बाद भी सीट हाथ नहीं आई थी। इस बार भी भाजपा से एक मजबूत प्रत्याशी उतारने की तैयारी की जा रही है। वहीं अन्य विपक्षी भी अपनी राजनीति जमीन मजबूत करने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं।

सरधना नगरी का इतिहास जितना पुराना है, यहां का राजनीतिक खेल भी उतरा ही पेचीदा है। सरधना में नगर पालिका के चुनाव में चेयरमैन पद लंबे समय से मुस्लिम वर्ग के खाते में चला आ रहा है। उसमें भी निजाम अंसारी गुट सीट पर सबसे अधिक समय तक काबिज रहने में शीर्ष पर है। इसके पीछे का कारण साफ है। वो यह कि कस्बा मुस्लिम बाहुल्य है। उसमें भी सबसे अधिक वोट अंसारी समाज की मानी जाती है। जिसका पूरा फायदा निजाम अंसारी को मिलता है। वर्ष 2003 में पहली बार निजाम अंसारी चेयरमैन बने थे।

इसके बाद महिला सीट आने पर वर्ष 2007 में उनकी पत्नी सबीला अंसारी के सिर जीत का ताज सजा। वर्ष 2012 में सामान्य सीट पर आने के बाद निजाम अंसारी को जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ा और कुर्सी असद गालिब के खाते में गई। मगर फिर से लोगों ने मन बदला और 2017 में सबीला अंसारी को कस्बे की जिम्मेदारी सौंपी। अब निकाय चुनाव आए तो राजनीतिक गर्मी भी बढ़ गई है। जहां राजनीति के धुरंधरों के सामने सरधना का निजाम बदलने की चुनौती है। वहीं निजाम अंसारी गुट के सामने भी अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखने की परीक्षा है।

एक ओर निजाम अंसारी गुट ने जनता के बीच उतरकर विश्वास जीतने का काम शुरू कर दिया है। वहीं अन्य दावेदारों ने भी अपनी जीत के लिए दिन रात एक कर दिए हैं। उधर, भाजपा नेता भी इस बार भी पूरी गंभीरता से मंथन कर रहे हैं कि ऐसा प्रत्याशी मैदान उतार जाए जो लंबे समय से चले आ रहे सूखे को दूर कर सके। भाजपा का सिंबल लेने के लिए अब तक तीन दावेदार आवेदन कर चुके हैं और कई अभी भी कतार में हैं। कुल मिलाकर सत्ता परिवर्तन के लिए विपक्षियों के सामने बड़ी चुनौती है। जिससे पार पाने के लिए नेता हर संभव गठजोड़ करने में लगे हुए हैं।

विधायक भी नहीं दिला पाए थे जीत

राजनीति तौर पर सरधना सीट बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंंकि सरधना को पूर्व विधायक संगीत सोम का गड़ माना जाता है। विधायक अतुल प्रधान भी सरधना पर पूरी दावेदारी करते हैं। गत चुनाव में परिवर्तन के लिए संगीत सोम खुद चुनावी मैदान में उतरे थे। मगर इसके बाद भी भाजपा प्रत्याशी नहीं जीत पाया था। सपा प्रत्याशी के रूप में सबीला अंसारी को जीत मिली थी। इस लिहाज से यह सीट बहुत ही महत्वपूर्ण मानी जा रही है।

अभी पार्टी के पत्ते खुलना भी बाकी

फिलहाल तमाम दावेदार चुनावी मैदान में हैं। मगर पार्टी के हिसाब से पत्ते खुलने बाकी हैं। क्योंकि सिंबल का मतलब अपने आप में एक मुकम्मल वोट बैंक होता है। भाजपा से सिंबल लेने के लिए दावेदारों की लाइन लगी है। अब तक तीन दावेदार सिंबल के लिए आवेदन कर चुके हैं। वहीं, सपा से सिंबल लेने के लिए भी कई लोग दावेदारी कर रहे हैं। दोनों की पार्टी के नेता एक-दूसरे के पत्ते खुलने के इंतजार में हैं।

हल्की राजनीति हो बने बात

सरधना निकाय सीट जीतने के लिए हल्की राजनीति की जरूरत है। क्योंकि किसी भी एक वर्ग की वोट से चुनाव जीतना संभव नहीं है। यह बात भाजपा के नेता भी समझ रहे हैं। इसलिए भाजपा की ओर से भी ऐसे दावेदार को सिंबल मिलने की संभावना है, जो सभी वर्ग के लोगों की वोट पा सके। इसी नीति पर ही चुनाव को मजबूत बनाया जा सकता है।

दिग्गज दादाओं की सियासी विरासत को पोतों में होगा महासंग्राम

फलावदा: जंगे आजादी के दौर में जमींदार घरानों के बीच होने वाले सत्ता संग्राम की कहानी निकाय चुनाव में फिर शुरू होने जा रही है। मुद्दतों पंचायत की सत्ता में अपना वर्चस्व दिखाने वाले दिग्गज सूरमा पूर्व चेयरमैन मरहूम अलीमुद्दीन व मियां सय्यद की सियासी पारी उनके पोते खेलने जा रहे हैं। वर्ष 1885 ने अस्तित्व में आई स्थानीय नगर पंचायत की सत्ता एक सदी से भी अधिक मुद्दत तक स्व. सैयद अलीमुद्दीन व सैयद सईद अहमद के इर्द गिर्द रही है।

आजादी से पहले और आजादी के बाद कई दशकों तक चले इस सत्ता संग्राम को में पहली बार 1940 में चेयरमैन बने मियां सैयद ने पंचायत की सत्ता पर 1953 तक राज किया। अगली बार अलीमुदीन चुनाव जीत गए, लेकिन मियां सैयद ने पटीशन से एक वर्ष बाद सत्ता की बागडोर वापस ले ली थी। फिर वे 1957 तक चेयरमैन रहे। कई चुनाव मियां अलीमुद्दीन ने भी जीते तथा उनका लम्बे अरसे तक दबदबा रहा। उन्होंने सद्भाव के सारथी के रूप में अपना वर्चस्व रखा। उनके बेटे मैराजुद्दीन भी 1988 में चेयरमैन निर्वाचित हुए थे।

इस खेमे ने आरक्षण प्रणाली लागू होने पर पिछड़ी जाति से सैनी बिरादरी की लक्ष्मी देवी को भी चेयरमैन बना दिया था। कस्बे के दिग्गज चेयरमैन रहे मियां सय्यद के पौत्र सैयद मो. ईसा व अलीमुद्दीन के पौत्र शहबान अपने दादाओं की तरह सियासी जंग शुरू कर रहे हैं। इन दोनों भावी उम्मीदवारों ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया है।

निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में दोनो पक्षों ने चुनाव का शंखनाद कर दिया है। दोनों गुटों की पुरानी बैठकें गुलजार हो उठी है, जहां समर्थकों का जमावड़ा लग रहा लगा है। हालांकि इन दिग्गजों के उत्तराधिकारियों को अपनी सफलता की इबारत लिखने को भाजपा के उम्मीदवार से भी लोहा लेना पड़ेगा।

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