चुनाव आयोग द्वारा प्रोटोटाइप रिमोट इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों (आरवीएम) से वोटिंग, जिससे नौकरी, रोजगार व शिक्षा समेत अनेक कारणों से अपने चुनाव क्षेत्रों से दूर रह रहे मतदाता अपने मताधिकार के प्रयोग के लिए लंबी-लंबी यात्राएं करके वहां पहुंचने के झंझट से छुटकारा पा जाएंगे और जहां हैं, वहीं वोट देने की सुविधा पा जाएंगे, की तैयारी की बाबतएक वाक्य में टिप्पणी करनी हो तो कह सकते हैं कि सुनने में यह बात बहुत अच्छी लगती है। शायद इसीलिए भूतपूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी ने भी इसका स्वागत करने में देर नहीं की है। लेकिन इससे जुडे कई अपेक्षाकृत बडे सवालों की अनदेखी नहीं की जा सकती। इनमें सबसे बड़ा सवाल यह कि आयोग की नजर में मतदान की यह सुविधा ज्यादा महत्वपूर्ण है या उसकी प्रक्रिया की शुचिता यानी पवित्रता? अगर पवित्रता, जो देश के लोकतंत्र में मतदाताओं के विश्वास को अगाध बनाए रखने के लिए लाजिमी है, तो पूछना ही होगा कि आयोग ने आगामी 16 जनवरी को राजनीतिक पार्टियों को आरवीएम की कार्यप्रणाली दिखाने के लिए आमंत्रित करने से पहले यह क्यों नहीं बताया कि उसकी इस तैयारी में वे उपाय कहां हैं, जिनसे वह निर्भय व निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित करेगा?
दूसरे शब्दों में पूछें तो इस सुविधा से प्रचार-क्षेत्र के असीम हो जाने से प्रत्याशियों के समक्ष मतदाताओं तक पहुंचने से जुड़ी जो समस्याएं पैदा होंगी, उनका निवारण आयोग कैसे करेगा? क्या दूरस्थ मतदान सुविधा की तर्ज पर वह दूरस्थ मतदाताओं से संपर्क के लिए प्रत्याशियों को दूरस्थ प्रचार की सुविधा भी उपलब्ध कराएगा? हां, तो कैसे और नहीं तो क्यों? प्रत्याशियों के क्षेत्र के मतदाता उनसे दूर रहकर उनके या उनके एजेंटों/प्रतिनिधियों की गैरहाजिरी में मतदान करेंगे तो तकनीक के इस युग में यह तो मान सकते हैं कि उनकी पहचान से जुडे सारे संदेहों का निवारण कर लिया जाएगा, लेकिन यह कैसे पक्का किया जाएगा कि अपेक्षाकृत बड़ी या सबल पार्टी अथवा प्रत्याशी द्वारा लोभ-लालच देकर, ‘इमोशनल अत्याचार’ या भयादोहन करके उन्हें अपने पक्ष में मतदान के लिए विवश नहीं किया गया है? और इसे पक्का नहीं किया जाएगा तो क्या यह मतदान प्रक्रिया की शुचिता से समझौता करना नहीं होगा? होगा तो वह सत्ता दल को छोड़ और किसके पक्ष में जाएगा? रिमोट वोटिंग से पहले इन और इनसे जुडे कई दूसरे सवालों के जवाब दिए जाने इसलिए भी बहुत जरूरी हैं कि इन दिनों न सिर्फ चुनाव प्रक्रिया बल्कि चुनाव आयोग की शुचिता भी बुरी तरह संदेहों के घेरे में है। आयोग में नियुक्तियों को लेकर तो सर्वोच्च न्यायालय तक को सवाल उठाने पड़ रहे हैं।
मुख्य निर्वाचन आयुक्त के अपने कार्यकाल में शेषन कहा करते थे कि चूंकि आयोग राष्ट्रपति तक के चुनाव कराता है और हर चुनाव में स्वतंत्रता व निष्पक्षता सुनिश्चित करने का गंभीर दायित्व निभाता है, इसलिए संविधान निर्माताओं ने उसे ‘भारत के चुनाव आयोग’ की हैसियत बख्शी है और वह ‘भारत सरकार का चुनाव आयोग’ नहीं है। लेकिन अब आयोग अपनी ज्यादातर पहलों व कार्रवाइयों में भारत सरकार चुनाव आयोग ही नजर आता है। निस्संदेह, संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण का नमूना भी।
अभी गुजरात विधानसभा के गत चुनाव के दौरान गृहमंत्री अमित शाह के 25 नवम्बर के बयान कि ‘2002 में इन्हें सबक सिखाया, अब यहां स्थायी शांति’ में कतई कुछ आपत्तिजनक न पाकर भी उसने अपना भारत सरकार का चुनाव आयोग होना ही सिद्ध किया था। रिमोट वोटिंग की उसकी तैयारी को लेकर विपक्षी दल अभी से संदेह जताने लगे हैं तो उसके कारणों का एक सिरा उसकी इस सत्तोन्मुख कार्यशैली तक भी जाता है और उसकी नीयत अच्छी हो तो भी अच्छी नजर नहीं आती-भले ही चुनावों की निष्पक्षता में जनविश्वास की असंदिग्धता के लिए उसका अव्छी नजर आना बहुत जरूरी हो।
काश, आयोग उस राजा से ही थोड़ी सीख लेता, जिसने अपनी टकसाल में ढाली गई मुद्रा में खोट की शिकायत आने पर पहले मुद्रा को खोटरहित प्रमाणित करने के जतन किए, फिर उसमें खोट के जिम्मेदार टकसाल के अधिकारियों को दूसरे आरोपों में दंडित किया। मंत्री ने इसका कारण पूछा तो उसको बताया कि मुद्रा में खोट प्रमाणित हो जाने के बाद उसके ‘शील’ की किसी भी हालत में भरपाई संभव न होती।
बहरहाल, चुनाव आयोग ने पार्टियों से रिमोट वोटिंग की बाबत 31 जनवरी तक उनके विचार मांगे हैं और उसकी मांग पर देश सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की प्रतिक्रिया कोई संकेत है तो अभी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि विपक्ष की ओर से किस तरह के विचार सामने आएंगे और सत्तापक्ष की ओर से किस तरह के। कांगे्रस की मानें तो इस तैयारी से पहले आयोग को कम से कम परम्परागत इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों को लेकर विपक्ष के सारे संदेहों का सम्यक निवारण कर देना चाहिए था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया है।
मतदान के दौरान ईवीएमों के इधर-उधर पाए जाने को लेकर भी उसके पास कोई उचित सफाई नहीं है। क्या आश्चर्य कि अनेक मतदाता अभी भी ईवीएमों में वीवीपैट यानी सत्यापनयोग्य पेपर आडिट ट्रेल की व्यवस्था के बावजूद आश्वस्त नहीं हो पाते कि उन्होंने जिस प्रत्याशी या दल को वोट दिया है, वह से ही प्राप्त हुआ है। इसे लेकर उनका संदेह चुनाव दर चुनाव इसलिए भी गहरा होता जा रहा है कि जब भी कहीं चुनाव नतीजे को लेकर विवाद की स्थिति बनती है, आयोग के अधिकारी वीवीपैट की गिनती कराकर उसकी पुष्टि कराने से साफ इनकार कर देते हैं।
ऐसे में मतदाता रिमोट वाली ईवीएमों में कितना विश्वास जता पाएंगे? और नहीं जता पाएंगे तो चुनाव नतीजों में उनका विश्वास घटेगा कि बढ़ेगा? घटेगा तो क्या उससे हमारे लोकतंत्र की शान भी बढ़ेगी? दूसरे पहलू पर जाएं तो आयोग को यह भी बताना ही चाहिए कि अगर रिमोट वोटिंग इतनी ही सुविधाजनक और बढ़िया है तो उसका फायदा सिर्फ दूरस्थ मतदाताओं को ही क्यों मिले? क्यों नहीं व्यापक चुनाव सुधारों के रास्ते प्रक्रिया की शुचिता सुनिश्चित करते हुए सारे मतदाताओं को देश में कहीं भी अपने क्षेत्र व प्रत्याशी के लिए मतदान कर सकने की सुविधा उपलब्ध कराई जाती?
लेकिन ऐसा क्योंकर हो जब चुनाव आयोग ‘पात-पात को सींचिबो, बरी-बरी को लोन’.की राह पर चल रहा है और व्यापक चुनाव सुधारों पर जोर देना या सरकार से उनकी मांग करना उसके एजेंडे पर ही नहीं है। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने पिछले दिनों चुनावों में कालेधन के इस्तेमाल पर रोक और चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता के नाम पर विधि मंत्रालय को जो पत्र लिखा था, उन्होंने उसने भी ‘पात-पात को सींचिबो’ की ही याद दिलाई थी। पत्र में उन्होंने राजनीतिक पार्टियों को एक व्यक्ति से एक बार में मिलने वाले नकद चंदे की सीमा 20,000 से घटाकर 2000 रुपये करने और कुल चंदे में नकद को 20 प्रतिशत या अधिकतम 20 करोड़ रुपये तक सीमित रखने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का प्रस्ताव किया था।