कल्पना कीजिए कि जब आपके सर पर छत और पैर के नीचे भूमि ही न बचे तो आप क्या करेंगे? भूस्खलन की स्थिति में लोगों का जीवन त्रासदी का शिकार हो जाता है और वे दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो जाते है। भारत में भी यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। हिमालयी क्षेत्र में दरकते पहाड़ों को लेकर लगातार चिंता बढ़ रही है। बादलों का फटना हो या भूस्खलन। तारीख बदलती है, साल बदलता है, लेकिन मानसून में पहाड़ों से चट्टानों के खिसकने और भूस्खलन की घटनाएं नहीं बदलती हैं। इसकी वजह से जान-माल का भारी नुकसान होता है। अक्सर सड़कें और घर बर्बाद हो जाते हैं। बहुत ज्यादा बारिश, बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई और अवैध निर्माण ने इस समस्या को काफी बढ़ा दिया है। हमेशा से ही भारत के लिए बड़ा खतरा रहा भूस्खलन एक बार फिर जोशीमठ में हो रहे भूस्खलन से चर्चा में आ चुका है। कुछ समय से जोशीमठ के फिसलने की गति अचानक तेज हो गई है। जमीन के धंसने से समूचा जोशीमठ धंस रहा है।
सैकड़ों भवन रहने लायक नहीं बचे हैं। कई जगह जमीन पर भी चौड़ी दरारें उभरने लगी हैं।कुछ स्थानों पर जमीन फटने से पानी बाहर निकल रहा है। जोशीमठ अकेला नहीं है, जो ध्वस्त होने की कगार पर है। पूरे हिमालय विशेषकर उत्तराखंड में दर्जनों कस्बे हैं, जो टाइम बम पर बैठे हैं। उत्तराखंड का केस इसलिए भी विशेष है क्योंकि भूविज्ञानियों के अनुसार संपूर्ण हिमालय में उत्तराखंड क्षेत्र ही है जहां आठ स्केल से अधिक के भूकंप आने की सर्वाधिक संभावना है। इसी कारण भूवैज्ञानिक इस क्षेत्र को सेंट्रल सिस्मिक गैप की संज्ञा देते हैं और कोढ़ में खाज यह कि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में भवन निर्माण में साधारण मानकों का भी पालन नहीं हुआ है। देहरादून, हल्द्वानी जैसे इलाकों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) के अनुसार, भारत में, 420,000 वर्ग किमी, या कुल भूमि के 12.6 फीसदी क्षेत्र में चट्टानों के गिरने का खतरा हमेशा बना हुआ है। इसमें बर्फ वाले इलाके को शामिल नहीं किया गया है। भूस्खलन के खतरे वाले क्षेत्र में उत्तर पूर्व हिमालय (दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय क्षेत्र), उत्तर पश्चिम हिमालय (उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू एवं कश्मीर), पश्चिमी घाट और कोंकण की पहाड़ियां (तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र) और आंध्रप्रदेश में अरुकु क्षेत्र का पूर्वी घाट शामिल है।
इन क्षेत्रों में पहाड़ों से चट्टानों के गिरने की संभावना इसलिए है क्योंकि जलवायु परिवर्तन से जोखिम बढ़ रहा है। जीएसआई ने देश में पूरे 420,000 वर्ग किलोमीटर के चट्टानों के लिए संवेदनशील माने जाने वाले क्षेत्र के 85 फीसदी हिस्से के लिए 1:50,000 पैमाने पर एक राष्ट्रीय भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्र बनाया है और बाकी को पूरा करने पर काम चल रहा है।
भूस्खलन भूकंप या भारी वर्षा जैसे प्राकृतिक कारणों के साथ- साथ कुछ मानवीय निर्माण कार्यो से उत्पन्न होते हैं और मानसून में खास तौर पर हर साल ऐसी घटनाएं होती है। अप्रत्याशित मौसम, जलवायु संकट, भारी और तीव्र वर्षा से देश में भूस्खलन की घटनाएं और बढ़ रही हैं। जलवायु संकट जोखिम को और बढ़ा रहे हैं, खासकर हिमालय और पश्चिमी घाट में, लेकिन एक बात देखने वाली है कि भारत मे भूस्खलन पश्चिमी घाट की अपेक्षा हिमालयी क्षेत्र में ही ज्यादा होता है।
अमेरिका के शेफील्ड यूनिवर्सिटी के शोधकतार्ओं ने एक अध्ययन में पाया कि 2004-16 की अवधि में इंसानों की वजह से घातक भूस्खलन होने के मामले में भारत सबसे बुरी तरह प्रभावित देशों में से एक था। अध्ययन में दुनिया भर के 5,031 घातक भूस्खलन का विश्लेषण किया गया। जिसमें भारत की 829 घटनाएं शामिल थी। भारत में 28 फीसदी मामलों में निर्माण कार्य की वजह से पत्थर गिरने की घटनाएं होती हैं।
भूस्खलन के अन्य कारण भी है। जैसे कि कभी- कभी भारी बारिश के कारण भी भूस्खलन देखने को मिलता है। साथ ही वनोन्मूलन भी भू-स्खलन का एक प्रमुख कारण है क्योंकि वृक्ष, पौधे आदि मिट्टी के कणों को सघन रखते हैं तथा वनोन्मूलन के कारण पर्वतीय ढाल अपनी सुरक्षात्मक परत खो देते हैं जिसके कारण वर्षा का जल इन ढालों पर निर्बाध गति से बहता रहता है।
एक कारण भूकंप भी है जिससे भूस्खलन प्रभावित होता है। जैसे कि हिमालय में भूकंप आया क्योंकि भूकंप ने पहाड़ों को अस्थिर कर दिया, जिससे आये दिन भूस्खलन होते रहता है। इसके अतिरिक्त उत्तर पूर्वी भारत के क्षेत्रों में, कृषि को स्थानांतरित करने के कारण भूस्खलन होता है। बढ़ती आबादी के कारण बड़ी संख्या में घर बन रहे हैं, जिससे बड़ी मात्रा में मलबा पैदा होता है जो भूस्खलन का कारण बन सकता है।
अगर हम अपने उत्तराखंड और हिमाचल के पहाड़ों की बात करें तो हमें थोड़ा यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि जब हम कोई भी स्ट्रक्चर बनाएं, जैसे रोड, बिल्डिंग, डैम एवं टनल बनाएं तो वहां की भूगर्भीय स्थिति का व्यापक सर्वे कर वास्तविक स्थिति को समझना बहुत जरूरी है। जैसे हमारे पहाड़ों में ज्यादातर बसावट पहाड़ी ढालों पर पूर्व में बड़े-बड़े भूस्खलनों द्वारा जमे हुए मलबे के ऊपर है। इन ढलानों को मानव ने मॉडीफाई कर अपनी आजीविका को बढ़ाने के लिए खेती के लायक बना दिया है।
ऐसे जगहों को समझने की बहुत आवश्यकता है। क्योंकि जब ये ढाल बने थे, उस समय का वातावरण आज के वातावरण से भिन्न था। तब बारिश बहुत कम होती थी। वातावरण का तापमान कम था, जिसके चलते पहाड़ी ढालों पर रुके हुए इस मलबे में ठहराव था। आज वही मलबा वातावरण में बढ़ते तापमान के कारण तथा भारी बारिश के चलते भूस्खलन के रूप में नीचे सरकता जा रहा है।
आज हम देख रहे है कि गांव के गांव धसकते जा रहा हैं। हमारे पहाड़ों में बहुत सारे उदारहण हैं, जहां गांव के गांव और शहर इस प्रक्रिया के चलते आपदाग्रसित हैं। उदाहरण के तौर पर जोशीमठ, मसूरी, नैनीताल और पौड़ी। कई ऐसे शहर हैं जो पहाड़ी ढालों पर बसे हैं, वो आज धीरे-धीरे सरकने की कगार पर हैं और इसमें हमें बड़ा ध्यान देना होगा कि यहां पर जो स्ट्रक्चर्स, बिल्डिंग या फिर कोई प्लानिंग है, उसको वहां की धरती और मिट्टी के हिसाब से बनाया जाए। जोखिम वाले क्षेत्रों में निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
देश को संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करनी चाहिए और इस संबंध में प्राथमिकता के आधार पर कार्रवाई की जानी चाहिए। इसमें भूस्खलन की अधिक संभावना वाले क्षेत्रों की पहचान करने के लिए खतरनाक मानचित्रण किया जा सकता है।