Friday, May 30, 2025
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भारत में भ्रष्टाचार का दायरा बहुत व्यापक है

RAVIWANI


Shalander Chauhan 1आजादी के बाद भारत में भी राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की यह परिघटना तेजी से पनपी है। एक तरफ शक किया जाता है कि बड़े-बड़े राजनेताओं का अवैध धन स्विस बैंकों के खुफिया खातों में जमा है और दूसरी तरफ तीसरी श्रेणी के क्लर्कों से लेकर आईएएस अफसरों के घरों पर पड़ने वाले छापों से करोड़ों-करोड़ों की सम्पत्ति बरामद हुई है। ट्रांस्पेरेन्सी इंटरनेशनल द्वारा जारी करप्शन परसेप्शन इंडेक्स 2021 के अनुसार 180 देशों की सूची में भारत की भ्रष्टाचार रैंक 85 रही। 2020 में भारत 86वें पायदान पर था। गौरतलब है कि हर साल दुनिया भर में भ्रष्टाचार की स्थिति को बताने वाला यह इंडेक्स ट्रांस्पेरेन्सी इंटरनेशनल द्वारा जारी किया जाता है। विशेषज्ञों और व्यवसायियों के अनुसार यह सूचकांक 180 देशों और क्षेत्रों को सार्वजनिक क्षेत्र के भ्रष्टाचार के कथित स्तरों के आधार पर रैंक करता है। इस इंडेक्स में भारत को कुल 40 अंक दिए गए हैं। भारत के बारे में ट्रांस्पेरेन्सी इंटरनेशनल का कहना है कि भारत में स्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है। वहीं 2019 के लिए जारी इंडेक्स को देखें तो उसमें भारत को 41 अंकों के साथ 80वें पायदान पर रखा था जो दिखाता है कि देश में भ्रष्टाचार की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है। भारत दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में बना हुआ है।

कोरोना के समय अमीरों के यहां मूसलाधार धन वर्षा हुई। भारत में राजनीतिक एवं नौकरशाही का भ्रष्टाचार बहुत ही व्यापक है। ट्रांस्पेरेन्सी इंटरनेशनल ने देश में लोकतांत्रिक स्थिति को लेकर चिंता जताई है। इतना ही नहीं उनके अनुसार पत्रकार और कार्यकर्ता विशेष रूप से खतरे में हैं। जो पुलिस, राजनैतिक उग्रवादियों, आपराधिक गिरोहों और भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों के हमलों के शिकार हुए हैं।

चुनावों में काले धन का उपयोग बहुत गंभीर मामला है। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, लोकसभा चुनाव के उम्मीदवार केवल 70 लाख रुपये की कानूनी सीमा के खिलाफ कम से कम 30 करोड़ खर्च करते हैं। पिछले 10 वर्षों में लोकसभा चुनावों के लिए घोषित खर्च में 400 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। जबकि उनकी आय का 69 प्रतिशत अज्ञात स्रोतों से आया है। ध्यातव्य है देश के 30 प्रतिशत से अधिक विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। जब कानून तोड़ने वाले कानून निमार्ता बन जाते हैं, तो कानून का शासन में भ्रष्टाचार सबसे पहले होता है।

चुनाव लड़ने के लिए पार्टी-फंड के नाम पर उगाही जाने वाली रकमें, वोटरों को खरीदने की कार्रवाई, बहुमत प्राप्त करने के लिए विधायकों और सांसदों को खरीदने में खर्च किया जाने वाला धन, संसद-अदालतों, सरकारी संस्थाओं, नागर समाज की संस्थाओं और मीडिया से अपने पक्ष में फैसले लेने या उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए खर्च किये जाने वाले संसाधन और सरकारी संसाधनों के आबंटन में किया जाने वाला पक्षपात आता है।

राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार को समझने के लिए जरूरी है कि इन दोनों श्रेणियों के अलावा एक और विभेदीकरण किया जाए। यह है शीर्ष पदों पर होने वाला बड़ा भ्रष्टाचार और निचले मुकामों पर होने वाला छोटा-मोटा भ्रष्टाचार।
पिछले चालीस-पैंतालीस वर्षों से भारतीय लोकतंत्र में राज्य सरकारों के स्तर पर सत्तारूढ़ निजाम द्वारा अगला चुनाव लड़ने के लिए नौकरशाही के जरिये नियोजित उगाही करने की प्रौद्योगिकी लगभग स्थापित हो चुकी है। इस प्रक्रिया ने क्लेप्टोक्रैसी और सुविधा शुल्क के बीच का फर्क काफी हद तक कम कर दिया है।

भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में चुनाव लड़ने और उसमें जीतने-हारने की प्रक्रिया अवैध धन के इस्तेमाल और उसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार का प्रमुख स्रोत बनी हुई है। यह समस्या अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण के दिनों में भी थी, लेकिन बाजारोन्मुख व्यवस्था के जमाने में इसने पहले से कहीं ज्यादा भीषण रूप ग्रहण कर लिया है।

एक तरफ चुनावों की संख्या और बारम्बारता बढ़ रही है, दूसरी तरफ राजनेताओं को चुनाव लड़ने और पार्टियाँ चलाने के लिए धन की जरूरत। नौकरशाही का इस्तेमाल करके धन उगाहने के साथ-साथ राजनीतिक दल निजी स्रोतों से बड़े पैमाने पर खुफिया अनुदान प्राप्त करते हैं। यह काला धन होता है। बदले में नेतागण उन्हीं आर्थिक हितों की सेवा करने का वचन देते हैं।

भारत में हर प्रकार के भ्रष्टाचार का मुख्य सूत्र भारत की राजनीतिक व्यवस्था के हाथ में है। यदि भ्रष्टाचार को समाप्त करने की कभी कोई भी सार्थक पहल हो तो अवश्य ही उसमें राजनीतिक व्यवस्था में व्यापक बदलाव एक मुख्य आधार होगा। भ्रष्टाचार (आचरण) की कई किस्में और डिग्रियां हो सकती हैं, लेकिन समझा जाता है कि राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार समाज और व्यवस्था को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है।

अगर उसे संयमित न किया जाए तो भ्रष्टाचार मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों के मानस का अंग बन सकता है। मान लिया जाता है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक सभी को, किसी को कम तो किसी को ज्यादा, लाभ पहुँचा रहा है। राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार एक-दूसरे से अलग न हो कर परस्पर गठजोड़ से पनपते हैं।
इस भ्रष्टाचार में निजी क्षेत्र और कॉरपोरेट पूंजी की भूमिका भी होती है। बाजार की प्रक्रियाओं और शीर्ष राजनीतिक-

प्रशासनिक मुकामों पर लिए गये निर्णयों के बीच साठगाँठ के बिना यह भ्रष्टाचार इतना बड़ा रूप नहीं ले सकता। आजादी के बाद भारत में भी राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की यह परिघटना तेजी से पनपी है। एक तरफ शक किया जाता है कि बड़े-बड़े राजनेताओं का अवैध धन स्विस बैंकों के खुफिया खातों में जमा है और दूसरी तरफ तीसरी श्रेणी के क्लर्कों से लेकर आईएएस अफसरों के घरों पर पड़ने वाले छापों से करोड़ों-करोड़ों की सम्पत्ति बरामद हुई है।

राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार को ठीक से समझने के लिए अध्येताओं ने उसे दो श्रेणियों में बाँटा है। सरकारी पद पर रहते हुए उसका दुरुपयोग करने के जरिये किया गया भ्रष्टाचार और राजनीतिक या प्रशासनिक हैसियत को बनाये रखने के लिए किया जाने वाला भ्रष्टाचार।

चुनावों के बाद नेताओं की संपत्ति बुलेट ट्रेन की रफ्तार से बढ़ने लगती है। वे लखपति से अरबपति तक हो जाते हैं। जाहिर है नेतागीरी अंधाधुंध पैसे का व्यवसाय है। ये पैसा कहां से आता है इसपर सभी दल मौन साधे रहते हैं। अगर बड़े नेताओं को छोड़ भी दिया जाए जो अगाध संपत्ति के मालिक बन चुके हैं और महज छुटभैयों की बात की जाए तो सिर्फ विधायकों का क्या रंगारंग हाल है यह सभी प्रांतों में देखा जा सकता है।

राजाओं नबाबों के ठाठ इनके सामने पानी भरते नजर आएंगे। यह है विधायकों की स्थिति सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों की स्थिति तो सरकार ने छह माह बाद बताई थी जहां सभी मंत्री मालामाल थे। किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। भारत में राजनीतिक दलों की व्यवस्था चुनाव आयोग के कितने नियंत्रण में है, इसका आकलन जन प्रतिनिधित्व कानून की केवल एक धारा-29 से लगाया जा सकता है।

इस धारा-29 में नया राजनीतिक दल गठित करने के लिए चुनाव आयोग को पूर्ण विवरण सहित एक आवेदन दिया जाता है जिसमें मुख्य कार्यालय तथा पदाधिकारियों और सदस्यों की संख्या का विवरण दिया जाना होता है। इसी धारा में यह प्रावधान है कि कोई भी राजनीतिक दल व्यक्तिगत नागरिकों या कम्पनियों से दान स्वीकार कर सकता है। इसी धारा में यह प्रावधान है कि हर राजनीतिक दल का कोषाध्यक्ष चुनाव आयोग को अपने दल की वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा जिसमें उन व्यक्तियों या कम्पनियों के नाम शामिल करने आवश्यक होंगे जिन्होंने क्रमश: 20,000 और 25,000 रुपए से अधिक दान विगत वर्ष में दिया हो।

इस धारा-29 में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जिसमें राजनीतिक दल द्वारा वित्त के संबंध में अनियमितता बरते जाने पर सजा या जुर्माने आदि की कोई आपराधिक व्यवस्था हो। इसी कमी का लाभ उठाते हुए भारत के सभी राजनीतिक दल पूरी तरह से गुप्त रहकर कार्य करने में सफल हो जाते हैं जिससे कि उनके वित्तीय लेन-देन जनता के सामने न आ पाएं।

अभी हाल ही में राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाने की आवाज उठी तो सभी राजनीतिक दल अपने सारे मतभेद भुलाकर इस बात पर एकजुट हो गए कि ऐसा नहीं होना चाहिए। स्पष्ट था कि राजनीतिक दल अपनी कार्यप्रणाली को विशेष रूप से वित्तीय लेन-देन को जनता के समक्ष नहीं लाने देना चाहते थे।

राजनीतिक दलों पर कार्यवाई के लिए भी चुनाव आयोग को ऐसे अधिकार दिए जाने चाहिए। भ्रष्टाचार की कई किस्में और डिग्रियां हो सकती हैं, लेकिन समझा जाता है कि राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार समाज और व्यवस्था को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। अगर उसे संयमित न किया जाए तो भ्रष्टाचार मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों के मानस का अंग बन सकता है। मान लिया जाता है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक सभी को, किसी को कम तो किसी को ज्यादा, लाभ पहुँचा रहा है।

राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार एक-दूसरे से अलग न हो कर परस्पर गठजोड़ से पनपते हैं। खास बात यह है कि इस भ्रष्टाचार में निजी क्षेत्र और कॉरपोरेट पूँजी की भूमिका भी होती है। बाजार की प्रक्रियाओं और शीर्ष राजनीतिक- प्रशासनिक मुकामों पर लिए गये निर्णयों के बीच साठगाँठ के बिना यह भ्रष्टाचार इतना बड़ा रूप नहीं ले सकता।


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