Sunday, January 19, 2025
- Advertisement -

राजनीति में खत्म होती नैतिकता

SAMVAD


DR SNEHVEER PUDIRनैतिकता का शाब्दिक अर्थ है, नीति के अनुरूप आचरण। राजनीति में नैतिकता का अर्थ भी राज्य को नीति के अनुरूप संचालित करना है, परंतु आज राजनीति में नीति की परिभाषाएं बदल चुकी हैं। बेशर्मी के साथ येन केन प्रकारेण सत्ता हथियाना और अपने और अपनी भावी पीढ़ियों के लिए राजसी सुखों का प्रबंध करना ही राजनीति का उद्देश्य दिखाई देता है। यह भी सोचना सही नहीं है कि जनसाधारण के दबाव से ही राजनीति सही दिशा में चलती है। इतिहास बताता है कि यह काम आम आदमी का दायित्व नहीं है। मूल्यों और दिशाओं को तय करने काम असल में बुद्धिजीवी करते हैं और यह वे तभी कर सकते हैं, जब वे या तो सत्य की खोज करते हैं या लोगों के प्रति अपने को उत्तरदायी समझते हैं। लेकिन जब बौद्धिक समाज में जड़ता आ जाती है, तब जनसाधारण भी मूल्यों के प्रति उदासीन हो जाता है। देखा जाए तो जब सामाजिक व्यवस्था की देखभाल करने वाली सत्ता नीतिविहीन हो जाती है, उसकी कार्यप्रणाली एवं व्यवहार में मानवीय मूल्यों का समावेशन खत्म हो जाता है तो ऐसी राजनीति नैतिकता विहीन हो जाती है। ऐसे में इसका परिणाम अनर्थकारी होता है।

वर्तमान दौर पर निगाह डालें तो राजनीति में संवेदनाएं और नैतिकता लगातार कम होती जा रही है। लखीमपुर खीरी जैसी घटना केवल राजनीति पर ही सवाल खड़ा नहीं करती बल्कि मानवीय संवेदना को भी कठघरे में लाती है। अभी तक हम लोगों की स्मृति में अमीर बापों की नशे में धुत बिगडैल संतानों के द्वारा गरीब लोगों को कुचलकर मार डालने के मामले ही सामने आते रहे हैं।

लेकिन जब कभी समाज में अमीर और रसूखदार लोगों द्वारा जघन्य अपराध किए गए, तो पूरे समाज ने विरोध में उतरकर अपने सभ्य होने का प्रमाण अक्सर दिया है। नैना साहनी तंदूर हत्याकांड हो या नितीश कटारा मर्डर केस या निर्भया का मामला, इन मामलों पर पूरे समाज ने एकजुटता के साथ विरोध किया।

लेकिन लखीमपुर खीरी की घटना कुछ मामलों में हमे सोचने के लिए मजबूर करती है कि मानवीय संवेदनाओं का स्तर लगातार कम होता जा रहा है या हम एक निष्ठुर और असंवेदनशील समाज की दिशा में तेजी से बढ़ रहे हैं?

इसके अतिरिक्त महत्वपूर्ण विषय राजनेताओं और राजनीति का गिरता स्तर भी है। समाज के लिए यह भी चिंतनीय है कि जिस क्रूर तरीके से इस घटना को अंजाम दिया गया, उसकी एक विडियो भी वायरल हुई।

इसके बावजूद भी सम्बन्धित मंत्री महोदय से ना तो इस्तीफा लिया गया ना एक जिम्मेदार पद पर होने की नैतिकता के निर्वहन के लिए इस मामले के न्याय होने तक स्वयं इस्तीफे की कोई पेशकश की गई।

स्वयं इस्तीफे की उम्मीद तो खैर आज के इस दौर में बेमानी ही समझनी चाहिए, क्योंकि यह वह दौर नहीं है, जब राजनेता अपने विभाग से सम्बन्धित किसी गलती पर भी इस्तीफा दे दिया करते थे।

हम सबको यह भी मालूम ही है कि गृह राज्यमंत्री जैसे पद पर बैठा हुआ व्यक्ति किसी भी जांच को बहुत आसानी से प्रभावित कर सकता है। इससे भी गंभीर मसला यह है कि सम्बन्धित सत्ताधारी दल अपने नेता को बचाता नजर आता है।

वहीं बहुत से लोग दलीय प्रेम के कारण मंत्री पुत्र को क्लीनचिट देते भी दिखाई दे रहे हैं। हमारी कमजोर याददाश्त पर राजनेताओं को इतना भरोसा है कि वह ये अच्छे से समझते हैं कि कितने भी गंभीर मामले को एक सप्ताह से ज्यादा हम लोगों के द्वारा याद नहीं रखा जाता है।

जबकि भारतीय लोकतंत्र की शुरुआत से ही देश के बड़े नेताओं ने राजनीतिक नैतिकता का ध्यान रखने का यथासंभव प्रयास किया। इसी राजनीतिक नैतिकता के चलते देश की प्रथम सरकार में डॉ आंबेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी को मंत्रिमंडल में जगह दी गई। वह घटना आज भी विचारणीय है, जिसमें एक महिला नेहरू के सामने आ गई और उनका गिरेबान पकड़ लिया।

दरअसल लोहिया के कहने पर एक महिला संसद परिसर में आ गई और नेहरू जैसे ही गाड़ी से उतरे, महिला ने नेहरू का गिरेबान पकड़ लिया और कहा कि ‘भारत आजाद हो गया, तुम देश के प्रधानमंत्री बन गए, मुझ बुढ़िया को क्या मिला।’ इस पर नेहरू का जवाब था, ‘आपको ये मिला है कि आप देश के प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर खड़ी हैं।’

राजनीतिक नैतिकता की एक और बानगी जो हमेशा विमर्श में रही, केरल में सोशलिस्ट पार्टी की सरकार थी। वहां आंदोलन पर पुलिस ने बल प्रयोग किया, तीन लोग मर गए। डॉ. लोहिया ने कहा आजाद भारत में भी पुलिस जनता पर गोली चलाए, ये बर्दाश्त नहीं किया जा सकता और उन्होंने अपने ही दल के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने को कहा।

लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा को लेकर कांग्रेस के नेता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने उच्चतम न्यायालय पर सवाल खड़े किए हैं। कपिल सिब्बल ने अपने ट्वीट में लिखा है कि, ‘एक समय था जब, उच्चतम न्यायालय, यूट्यूब और सोशल मीडिया के नहीं होने पर भी प्रिंट मीडिया में छपी खबरों के आधार पर ही स्वत: संज्ञान लेता था।

सुप्रीम कोर्ट ने बेजुबानों की भी आवाज सुनी। वहीं आज जब हमारे नागरिक कुचले जा रहे हैं और, उन्हें मारा जा रहा है, सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध है कि इसे संज्ञान में ले।’

हाल फिलहाल ही जहां एक मंत्री जी अपनी एक सभा में बड़े सम्मान और गर्व के साथ यह बताते नजर आते हैं कि वह मंत्री और विधायक बनने से पहले भी बहुत कुछ हैं। वहीं एक मुख्यमंत्री अपने दल के लोगों को लाठी उठा लेने की सलाह देते नजर आते हैं। क्या किसी भी तरीके से यह लोग इतने बड़े संवैधानिक पदों पर बैठने के लायक माने जा सकते हैं?

विचारणीय पहलु यह भी है कि इन लोगों के दल को यह बिल्कुल महसूस नहीं होता कि ऐसे लोगों से तुरंत इस्तीफा लेकर समाज में संदेश देने का काम किया जाए कि संविधान को अपने हाथ में लेने का अधिकार किसी को भी नहीं दिया जा सकता, वरना देश भर में अराजकता व्याप्त होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

हमें पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी की उस बात को याद करना चाहिए, जिसमें वह संसद में बयान देते हैं कि सरकारे आती जाती रहेंगी, नेता भी आते जाते रहेंगे, लेकिन ये देश हमेशा रहेगा और रहना चाहिए। क्या उनकी इस बात को उनके ही दल के लोग जरा सा भी समझ पाए हैं।


SAMVAD

What’s your Reaction?
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
spot_imgspot_img

Subscribe

Related articles

Bijnor News: लूट की योजना बना रहे बदमाशों से मुठभेड़, अवैध असलहों के साथ 2 गिरफ्तार, दो फरार

जनवाणी संवाददाता | धामपुर: धामपुर पुलिस पोषक नहर पर चेकिंग...
spot_imgspot_img