आजकल लोगों में अपनापन कम होने से क्रोध बढ़ने लगा है। भौतिक युग में जहां मनुष्य जीवन के बाकी सारे मायने बदलने लगे हैं, वहां इसके साम्राज्य का भी विस्तार होने लगा है। कोई भी मनुष्य अपने जीवन की रेस में पिछड़ना नहीं चाहता, अग्रणी रहना चाहता है। शायद यही कारण है कि उसे अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रहता और उसे बात-बेबात क्रोध आने लगता है। वैसे यह क्रोध मनुष्य का ऐसा शत्रु है जो उसे बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। राहू की तरह उसके विवेक को ग्रसकर ग्रहण लगा देता है।
उसे अपने बन्धु-बान्धवों से दूर कर देने में यह अहं भूमिका निभाता है। इस क्रोध का कोई सानी नहीं है क्योंकि यह हमारी सोच से भी अधिक चालबाज या चतुर होता है। इसे अच्छी तरह पता है कि कहांअपना जोर आजमाना है और किस के सामने खून के घूंट पीकर चुप्पी लगानी है। किसी भी क्षेत्र में अपने से अधिक बलशाली व्यक्ति के सामने यह मिमियाने लगता है।
यह क्रोध अक्सर कमजोर पर ही निकलता है क्योंकि केवल उन असहाय दुर्बलों पर ही हमारा वश चलता है। हम अपनी कामवाली बाई, सब्जी वाले, धोबी, माली आदि पर ही अपने मन की भड़ास निकाल सकते हैं। सडक पर चलते हुए एक गाड़ी वाला अपने से बड़ी गाड़ी वाले से हाथ जोड़कर माफी मांग लेता है, परंतु आटो वाले, रिक्शा चालक, साईकिल सवार अथवा पैदल चलने वालों पर ही अपना गुस्सा निकालने का यत्न करता हैं। किसी पहलवान या गैंगस्टर के सामने तो सबकी सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो जाती है।
कार्यालय में अपने बास के सामने पैर पटकने की हिम्मत कोई भी कर्मचारी नहीं कर सकता। पता होता है कि यदि वहाँ क्रोध दिखाया तो नौकरी से ही हाथ धोना पड़ जाएगा। सभी लोग अपने अधीनस्थों पर ही क्रोध कर सकते हैं बस। इस तरह हम देखते हैं कि यह क्रोध कैसे-कैसे गुल खिलाता है। मनुष्य की छुपी हुई कमजोरियों को सबके सामने उजागर करता है।
सभी प्राकृतिक आपदाएं हमारी मूर्खता का परिणाम हैं। जब-जब हम सब लापरवाह हो जाते हैं तब-तब ये सब तो झेलना ही पड़ता है। इससे बचना असम्भव हो जाता है। जो अग्नि हमारे जीवन के लिए बहुत ही उपयोगी है। जब वह तैश में आती है तो सारे भेदभाव भूलकर महलों और झोंपड़ियों सबको समान रूप से खाक में मिला देती है। शहरों और जंगलों को राख के ढेर में बदल देती है। लोहे जैसी कठोर धातु को भी पिघला देती है। इसी प्रकार पशुओं को जब क्रोध आता है तो वे भी किसी का लिहाज नहीं करते।
पलटकर वार कर देते हैं चाहे वह साँप हो, कुत्ता हो, हाथी हो अथवा कोई अन्य पशु। हम समझ सकते हैं कि क्र ोध चाहे मनुष्य का हो, पशु-पक्षी का हो अथवा प्रकृति का हो सदा विनाशकारी होता है। इसका दुष्परिणाम एक को नहीं बहुतों को भुगतना पड़ता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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