आयुष्मान ने सबको बतलाया है कि अच्छी कहानी सुनाने से पहले आपको यह पता होना जरूरी है कि अच्छी कहानी होती क्या है। नए ढब की धारदार कहानियों पर ऐसी पैनी और पारखी नजर इधर के शायद ही किसी दूसरे अभिनेता की होगी जैसी आयुष्मान की है। आयुष्मान की कद-काठी दिल्ली के नौजवानों वाली है।
दरमियानी लेकिन गठीला कद, आंखों में शरारत, साफ जुबान (हइशा और बरेली में उनके शुद्ध हिंदी संवादों की बांक देखिये), होंठों पर शैतानी किस्म की मुस्कान, देह में आकवर्डनेस का नामो-निशां नहीं, निरंतर टिकटिक करने वाली घड़ी जैसे चेहरे पर सेकंड के कांटे की तरह हरपल बदलते हावभाव, ड्रामैटिक-सिचुएशन्स में समां बांध देने की कुव्वत। दिल्ली-पंजाब बेल्ट में वैसी शक्लो-सूरत, डील-डौल वाले बंदे हर जगह आपको दिखलाई देंगे।
कह लीजिए कि अगर राजकुमार राव भारत के कस्बाई-मध्यवर्ग का प्रतिनिधि-चेहरा हैं तो आयुष्मान शहरी-मध्यवर्ग का। बरेली की बर्फी में ये दोनों साथ थे और तब उनकी जुगलबंदी देखते ही बनती है। तू डाल-डाल, मैं पात-पात सरीखा मजमा उन्होंने वहां जमाया है।
हिन्दी सिनेमा एक लंबे समय से मुंबई के आभामण्डल से ग्रस्त रहा है। इधर बीते दसेक सालों से सिनेमा का एपिसेंटर अब खिसककर दिल्ली की तरफ जा रहा है। दिल्ली के साथ ही काऊ-बेल्ट के छोटे शहर-कस्बे भी अब केंद्र में आते जा रहे हैं। वासेपुर का धनबाद, तनु-मनु का कानपुर, हइशा का हरिद्वार, रांझणा का बनारस, स्त्री का चंदेरी, बर्फी की बरेली, बद्रीनाथ की झांसी, अनारकली का आरा- ये चंद उदाहरण भर हैं।
सहसा, देश के कथावाचकों ने पाया है कि हिंदुस्तान की असल कहानियां तो कस्बों में दबी-छुपी हैं- गांव और शहर का द्वैत अब पीछे छूटता जा रहा है। इन कहानियों ने जो चेहरे हमको दिए हैं, उनमें आयुष्मान प्रमुख हैं।
एक लोकप्रिय स्टैंडअप कामेडियन हैं गौरव गुप्ता, जो दिल्ली-पंजाब बेल्ट के परिप्रेक्ष्य में बनिया-पंजाबी द्वैत पर चुटकुले सुनाते हैं। एक चुटकुले में उन्होंने बतलाया कि पंजाबी लोग ऐसे बिजनेस में पैसा लगाते हैं जो मार्केट में पहले ही एक्सप्लोर हो चुका है-जैसे कपड़ा, गैजेट्स, फुटवियर लेकिन बनियों की नजर ऐसी चीजों पर रहती है जिन पर कम ही का ध्यान जाता है-जैसे शादियों में मेहंदी रचाने वाला तेल और उसकी शीशी।
ये जो बारीक डिटेल पर महीन नजर है, ये आपको मुख्यधारा में मेनकोर्स से भी बड़ी कामयाबी दिलाती है। कह सकते हैं, आयुष्मान के पास वैसी ही महीन नजर है। जो कहानी किसी को नहीं दिखती या जिसे करने की हिम्मत किसी और में नहीं होती- आयुष्मान उसको आगे बढकर अपनाते हैं। उनके पास आ बैल मुझे मार वाला भरपूर-दुस्साहस है।
सिनेमा की दुनिया में आयुष्मान के पदार्पण को अभी दस साल भी नहीं हुए लेकिन वो पहले ही स्पर्म डोनेशन, मोटापा, गंजापन, नपुंसकता, पैरेंटल प्रेग्नेंसी, क्रास-जेंडर, समलैंगिकता जैसे विषयों पर फिल्में कर चुके हैं। पता नहीं पहले मुर्गी आई या अंडा, यानी आयुष्मान ने इन कहानियों को खोजा या ये कहानियां ही आयुष्मान को खोजती हुई चली आई।
एक तीसरी अटकल यह भी हो सकती है कि शुरू के सालों में आयुष्मान के द्वारा दिखलाई गई हिम्मत के बाद लेखकों ने उनको केंद्र में रखकर वैसी कहानियां लिखना शुरू कर दीं। जो भी हो, नतीजा सामने है।
अतीत के अभिनेता अपनी नायक-छवि तोड़ने से डरते थे और नब्बे के दशक के शुरू तक बनाई जाने वाली बहुतेरी फिल्में प्रेम-त्रिकोण, आपराधिक-षड््यंत्रों या अमीर-गरीब टकराव पर केंद्रित होती थीं।
उनमें रूमानी गाने होते थे, पारिवारिक भावुकताओं के दृृश्य होते थे और नायक जितना प्रेमल होता था, उतना ही बड़ा योद्धा भी साबित होता था। वो दौर इन बीते दस सालों में इतनी तेजी से हिरन हुआ है कि यकीन नहीं आता कि वो कभी यहां इतनी सर्वव्यापकता से मौजूद था। उसको हरी झंडी दिखलाने वालों में आयुष्मान जैसों की केंद्रीय भूमिका है।
आयुष्मान की देहभाषा में जो मिसचीवियसनेस है, उसने उन फिल्मों को नुकीले ठहाकों से भर दिया है। उपहास इस युग की बुनियादी वृत्ति है। मीम्ज इस युग का केंद्रीय साहित्य है, जिसको मास-कल्चर के द्वारा अहर्निश कंज्यूम किया जाता है। आयुष्मान के पास वो देसी ह्यूमर है जो इस सर्वव्यापी उपहास-वृत्ति के भीतर डेढ़-दो घंटे की फिल्म देखने के लिए आपको रोक लेता है।
पहले कड़वी गोलियां शक्कर में लपेटी जाती थीं, आजकल लतीफों में लपेटकर पेश की जाती हैं लेकिन गनीमत है कि आयुष्मान जो काम कर रहे हैं, वो इंटरनेट पर मौजूद दूसरी चीजों की तरह दिशाहीन नहीं है।
उनका नजरिया साफ है। वास्तव में वो पहले ही अपना एक ब्रांड बना चुके हैं। एक आयुष्मान-स्कूल आफ सिनेमा कब का अस्तित्व में आ चुका है। दर्शक उनकी फिल्मों की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं।