Wednesday, June 26, 2024
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कृषि अर्थव्यवस्था का आधार

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KP MALIKदेश की अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्र कृषि के आधार किसान को सरकार ने जिस तरह से बड़ी चालाकी से निरीह प्राणी की तरह देश में साबित करने की कोशिश की है, उसका एक नमूना तो यही है कि सरकार किसानों को एमएसपी न देकर और उनके खाते में हर महीने मात्र पांच सौ रुपए भेज कर रस्म अदायगी कर रही है। आज के दौर में अगर देखें, तो एक अकेला किसान ही है, जो अपना हर तरह से नुकसान करके भी खामोश और मूकदर्शक बना बैठा है। जाहिर है कि किसानों को लगातार हर तरफ ठगा जा रहा है, लेकिन इसके बावजूद उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है, जैसे किसान देश के अन्नदाता नहीं, बल्कि गुलाम या फिर अपराधी हों। जबकि जो पूंजीपति टैक्स में लूट मचाते हैं और जमकर मुनाफा भी कमाते हैं, उन्हें सरकारों से किस तरह शह मिलती है, इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। जिन पर मैं जाना नहीं चाहता।

सरकार को यह समझना चाहिए कि हिंदुस्तान एक कृषि प्रधान देश है और यहां की अर्थव्यवस्था कृषि पर ज्यादा निर्भर करती है, जिसकी रीढ़ की हड्डी किसान ही है। अगर देश में अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करना है, तो इस अविवादित सत्य को स्वीकार करना ही होगा कि जिस दिन किसानों को उनका सही हक मिल जाएगा, देश भी तरक्की करेगा और अर्थव्यवस्था में भी सुधार होगा, क्योंकि फिर किसान खेतों से और ज्यादा व अच्छी पैदावार करेंगे। सीधी सी बात है कि आज संसाधनों की कमी के चलते आधे से ज्यादा किसान ठीक से खेती नहीं कर पाते, क्योंकि उन्हें घाटा होता है।

जब किसानों की फसलें एमएसपी पर खरीदी जाएंगी और उनका भुगतान भी समय पर होगा, तो वो अपने खेतों में समय पर बुबाई भी कर सकेंगे, उनके खेतों को खाद, पानी समय पर सही मात्रा में मिलेगा, समय पर फसल की कटाई हो सकेगी और इस तरह से मिट्टी सोना उगलेगी और पैदावार बढ़ने में एक चमत्कार होगा। किसान के पास पैसा आएगा तो बाजार में खर्च करेगा और बाजार में पैसे का चक्र बनेगा जिससे अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ेगी।

भारत सरकार की संस्था कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने भी तीन बार खरीद के लिए कानून बनाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य की सार्थकता सिद्ध करने की अनुशंसा की हुई है। राजस्थान के जयपुर जिले के दूदू उपखंड के किसानों के दर्द में से उत्पन्न न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का आंदोलन 12 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ, जो अभी देशव्यापी है।

इसी के साथ राजस्थान में सिंचाई परियोजनाओं को प्राथमिकता देकर पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना को राष्ट्रीय परियोजना घोषित कराने के लिए किसान निरंतर आंदोलित हैं। इसी को आगे बढ़ाते हुए किसानों ने तपस्या के द्वारा खेत को पानी और फसल को दाम प्राप्त करने के लिए घर छोड़कर सड़क पर आने का संकल्प लिया है। इसी हेतु से 24 फरवरी दिन के 11:00 से पांच मार्गों से पांच दिवसीय पदयात्रा घोषित है।

अच्छा हो सरकार किसानों की पदयात्रा को रोकने के लिए वार्ता आरंभ करें, जिससे किसानों को कमाई छोड़कर लड़ाई के लिए विवश नहीं होना पड़े। इसी प्रकार तथाकथित कृषि सुधार के लंबे जद्दोजहद के बाद आदर्श कृषि उपज एवं पशुपालन (सुविधा एवं संवर्धन) अधिनियम 2017 का प्रारूप प्रभाव में आया। जिसे वर्ष 2018 में सभी राज्यों को प्रेषित कर दिया गया। उनमें से उत्तराखंड एवं झारखंड में उसकी पालना का कदम उठाया।

उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा इसकी पालना में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुनिश्चितता के लिए उत्तराखंड राज्य को परामर्श दिया, तो उन्होंने उस परामर्श से बचने के लिए उस अधिनियम को वापस ले लिया। झारखंड में उसकी क्रियान्वित के लिए समुचित नियम नहीं बनाएं। केरल, मणिपुर एवं बिहार को छोड़कर सभी प्रदेशों में कृषि उपज मंडी अधिनियम अस्तित्व में है। जिनमें घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दामों में क्रय विक्रय रोकने के प्रावधान है।

कृषि की उपेक्षा स्वतंत्रता के उपरांत से इस अमृत काल में भी बनी हुई है। जय जवान जय किसान का नारा देने वाले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के समय न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए गठित एलके झा समिति की रिपोर्ट सामने आई, जिसके आधार पर कृषि मूल्य आयोग का जन्म हुआ।

साल 1985 में उसका नाम बदलकर कृषि लागत एवं मूल्य आयोग कर दिया गया। इस आयोग की वर्ष में अभी भी खरीफ एवं रबी की 22 फसलों के लिए वर्ष में दो बार रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है। इसके अतिरिक्त गन्ना, जूट एवं कोपरा की मूल्य नीति की भी रिपोर्टों का प्रकाशन होता है, किंतु आश्चर्य का विषय है कि इन पर संसद में चर्चा होना तो दूर, मंत्रिमंडल तक में चर्चा नहीं होती है।

इस आयोग द्वारा अनेक महत्वपूर्ण गैर मूल्य अनुशंसाओं का तो उल्लेख तक नहीं होता है। इस आयोग को संवैधानिकता प्रदान करने के लिए एल के झा समिति के अतिरिक्त 2013 तक अनेक आयोगों एवं समितियों ने अपनी अनुशंसा की हुई है। तब भी इस आयोग को अभी तक संवैधानिकता प्राप्त करने की प्रतीक्षा है। यदि इस आयोग को संवैधानिकता प्राप्त हो जाती तो इसकी रिपोर्टों की चर्चा संसद में होती। उससे कुछ सुधार होने की संभावना बनती।

बड़ी बात यह है कि जब किसानों को उनके उत्पादों के के दाम मिल जाएंगे, तब किसान ऋण नहीं मांगेंगे, बल्कि ऋण देने वाले बन जाएंगे। परिणाम स्वरूप देश के ललाट पर लगा हुआ किसानों की आत्महत्याओं का कलंक धुल जाएगा। सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि आज चीन श्रम के कारण ही अर्थव्यवस्था में आगे निकल चुका है।

अगर हमारे किसानों को सही, सकारात्मक माहौल के साथ-साथ उनका हक मिलेगा, तो दावे के साथ कह सकता हूं कि वे देश की अर्थव्यवस्था को पूंजीपतियों से भी ज्यादा मजबूत करेंगे, क्योंकि रोजगार के लिए कृषि पर आज भी देश की 70 फीसदी से अधिक जनता निर्भर है। कृषि क्षेत्र मजूबत होगा, तो इन 70 फीसदी लोगों का आर्थिक स्थिति सुधरेगी, जिससे बाजार मजबूत होंगे। इससे देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी, जिससे हमारा देश दुनिया में नंबर वन बन जाएगा।

अभी देश की 60 फीसदी से अधिक कृषि भूमि सिंचाई से वंचित रहने के कारण फसलें ठीक नहीं हो पातीं, क्योंकि किसान मानसून का जुआ खेलता है। किसान खुले आसमान के नीचे अपना उत्पाद तैयार करता है, तो सदा ही उस पर संकट के बादल मंडराते रहते हैं।

यही वजह है कि सबसे ज्यादा जोखिम कृषि क्षेत्र में है, अन्य क्षेत्रों की जोखिम कम रहता है। इसके साथ ही अन्य क्षेत्रों में हुई हानि की भरपाई के लिए सरकार जितनी तत्पर रहती है, कृषि क्षेत्र में होने वाली हानि के प्रति उतनी ही उदासीन रहती है। इतना ही नहीं, अगर किसी किसान ने अपनी फसल का बीमा करा रखा हो, और फसल खराब हो जाए, तो उन्हें बीमे का पैसा भी समय पर नहीं मिलता। अगर तमाम कानूनी दांवपेच करने के बावजूद कुछ मिलता भी है तो वह ऊंट के मुंह में जीरा साबित होता है। यह स्थिति तो तब है जब हमारा देश कृषि प्रधान है।


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