उनकी स्पिन में गजब का जादू था। जब वो मैदान पर उतरते और कलाई से गेंद की दिशा को मोड़ देते थे तो दुनिया के बल्लेबाजों का मान मर्दन कर देते थे। उनके सामने बैटिंग करने पर खिलाडियों के पहले ही पसीने छूट जाया करते थे। उनकी गेंद की फ्लाइट को देखकर दुनिया के अच्छे बल्लेबाज भी चकमा खा जाते थे। अगर कहा जाए उनकी गिनती बाएं हाथ के दुनिया के महानतम स्पिनर के रूप में की जाती थी तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। सही मायनों में अगर कहा जाए तो इरापल्ली प्रसन्ना, बीएस चंद्रशेखर और एस. वेंकटराघवन की तिकड़ी के साथ उन्हें भारतीय स्पिन गेंदबाजी में नई क्रांति लाने का श्रेय दिया जाता है। पचास के दशक में हमारे पास वीनू मांकड और सुभाष गुप्ते जैसे विश्वस्तरीय स्पिनर थे, लेकिन सत्तर और अस्सी के दशक में भारत की स्पिन को दुनिया के पटल पर अगर किसी ने नई पहचान दिलाई तो उसमें बिशन सिंह बेदी ही थे। जिस दौर में बेदी ने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण किया उस समय दुनिया भर में तेज गेंदबाजों का जलवा हुआ करता था। होल्डिंग, रॉबर्ट्स, गार्नर, मार्शल, क्लार्क, लिली, टॉमसन सरीखे रफ़्तार के लम्बे तेज गेदबाजों के सामने सही से भी बैटिंग भी नहीं की जा सकती थी। उस दौर में बिशन सिंह बेदी ने अपनी कलाई के जादू के आसरे दुनिया के पटल पर खास पहचान बनाई। बिशन सिंह बेदी ने भारत के लिए 67 टेस्ट मैच खेले और 28.71 के शानदार औसत से 266 विकेट हासिल किए। इस दौरान वो भारत की ओर से सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले गेंदबाज भी रहे। उनके पास लूप और स्पिन के साथ-साथ क्रीज पर बल्लेबाजों को मात देने के लिए खुद के पिटारे में बेहतर आर्म स्पीड रिलीज पॉइंट्स में फ़्लाइट भी
मौजूद थी।
बिशन सिंह बेदी की अलहदा शख़्सियत उन्हें महान खिलाडियों की ऐसी श्रेणी में रखती है जो खेल भावना से खेल खेला करते थे। एक बार 1976 के सबीना पार्क में टेस्ट मैच चल रहा था जब वेस्ट इंडियन कप्तान क्लाइव लॉयड ने आॅस्ट्रेलिया के लिली-टॉमसन से त्रस्त होकर तेज गेंदबाजी को अपना हथियार बनाया और भारतीय बल्लेबाजों को मैदान पर अपने निशाने पर लिया तो बिशन सिंह बेदी ने विरोध में पारी घोषित कर दी। उनका स्पष्ट कहना था कि ऐसा खेल उन्हें मंजूर नहीं है, जिसमें इस तरह की आक्रामकता हो। उस टेस्ट को अब भी इस विरोध के लिए याद किया जाता है। इस घटना ने सिखाया बेदी अपने उसूलों पर चलने वाले एक बेहतर इंसान थे और बेखौफ बोलने में माहिर थे ।
बिशन सिंह का जन्म 25 सितंबर 1946 को अमृतसर पंजाब में हुआ था। बेदी ने भारत के लिए 1966 में टेस्ट डेब्यू किया और वह अगले 13 साल तक टीम इंडिया के लिए सबसे बड़े मैच विनर साबित हुए। गेंदबाजी के अलावा बिशन सिंह बेदी के अंदर बेहतरीन नेतृत्व की काबिलियत भी थी। बिशन सिंह बेदी को 1976 में टीम इंडिया का कप्तान नियुक्त किया गया और उन्होंने 1978 तक टीम इंडिया की कमान संभाली। उन्होंने 22 टेस्ट मैचों में टीम इंडिया की कप्तानी की। उनहें ऐसे कप्तान के तौर पर जाना जाता है जिन्होंने टीम के अंदर लड़ने की क्षमता पैदा की और अनुशासन को लेकर नए बैंच मार्क स्थापित किए। बतौर कप्तान उन्हें पहली जीत वेस्टइंडीज के खिलाफ पोर्ट आॅफ स्पेन में 1976 के दौरे पर मिली थी। कप्तान के तौर पर बिशन सिंह बेदी ने 1976 में उस समय की सबसे मजबूत टीम वेस्टइंडीज को उसी की धरती पर जाकर टेस्ट सीरीज में मात दी। इसके बाद इंग्लैंड के खिलाफ घरेलू मैदान पर टेस्ट सीरीज में 3-1, आॅस्ट्रेलिया दौरे पर टेस्ट सीरीज में 3-2 और पाकिस्तान दौरे पर टेस्ट सीरीज 2-0 से मिली हार के बाद उन्हें कप्तानी से हटा दिया गया था।
क्रिकेट को अलविदा कहने के बाद भी बिशन सिंह बेदी का जुड़ाव इस खेल के लिए खत्म नहीं हुआ।
लंबे समय तक उन्होंने खुद को इस खेल के साथ जोड़े रखा। अपने खेल करियर के बाद, बेदी ने युवा क्रिकेटरों को कोचिंग देना शुरू कर दिया, जिसमें मनिंदर सिंह और मुरली कार्तिक उनकी नर्सरी से निकले खिलाड़ी थे। नब्बे के दशक में वो कुछ समय के लिए भारतीय टीम के मैनेजर भी नियुक्त किये गए। बेदी ने क्रिकेट की दुनिया में बतौर कमेंटेटर भी पहचान बनाई। कोच के तौर पर भी बिशन सिंह बेदी लंबे समय तक क्रिकेट के साथ जुड़े रहे। क्रिकेट के क्षेत्र में बिशन पाजी नाम बहुत बड़ा है। उनकी खेल की हर बारीकी पर तेज नजर रहती थी और खिलाडियों को भी आगे बढ़ने को प्रेरित करती थीं। उनके निधन से भारतीय क्रिकेट जगत में एक ऐसा शून्य हो गया है, जिसे भर पाना कठिन होगा। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी क्रिकेट की सेवा के लिए लगा दी और अंतिम सांस तक इसी खेल के लिए जिए। उनका व्यक्तित्व क्रिकेट के प्रति एक अलग प्रकार चेतना से भरा हुआ था। क्रिकेट की गहरी समझ उनमें साफ दिखती थी।
कोरोना के बाद से वे अस्वस्थ ही रहे और इस दौरान उन्हें एक घुटने की सर्जरी से भी गुजरना पड़ा जिसके बाद लोगों से मिलना जुलना कम हो गया फिर भी उन्होंने जल्द मिलने का भरोसा जगाया। पाजी का पूरा जीवन क्रिकेट की एक पाठशाला से कम नहीं था ऐसा उनके साथ मिलने और क्रिकेट के विभिन्न प्रसंगों पर चर्चा करते हुए मुझे लगा। उनसे मिलने की मेरी कसक अधूरी ही रह गई । शायद अब ऐसे दुनिया के महान स्पिनर से मैं कभी नहीं मिल पाऊंगा। उनके निधन के बाद भारतीय क्रिकेट जगत में एक ऐसी रिक्तता उभर गई है, जिसकी भरपाई कर पाना इतना आसान नहीं है। उनके साथ बिताए समय ने मेरे क्रिकेट के प्रति ज्ञान को समृद्ध किया लेकिन अब उनकी यादें ही हमारा संबल हैं।