वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में सारा देश मंडी में तब्दील होने लगा है। ध्यान देने की बात यह है कि इस मंडी के महत्वपूर्ण खरीददारों में बच्चों का विशेष स्थान बन चुका है। यहां तक कि अपने प्रयोग के सामानों के साथ-साथ फ्रिज, वाशिंग मशीन, बाइक, कार, फर्नीचर जैसी महंगी खरीददारी में भी इनकी की भूमिका बनती जा रही है। निश्चित रूप से बच्चे अभिभावकों के जरिए इस पड़ाव तक नहीं पहुंचे हैं, बल्कि अधिकांश मां-बाप को शायद ही इसका रंच मात्र अभास हो कि उनके लड़लों को करोड़ों की खरीद-फरोख्त के बाजारू जाल में फंसाया जा रहा है। कई सर्वेक्षण रिपोर्टों के अनुसार, बच्चों को इस मुकाम तक लाने में टेलीविजन और उनके विज्ञापनों का हाथ है। विज्ञापन सूचना माध्यम का एक आयाम है। यह हमारी आवश्यकताओं के सापेक्ष विकल्प प्रस्तुत करते हैं और हम विवेक सम्मत ढंग से उपयुक्त वस्तु का चयन कर सकते हैं। किन्तु बच्चों में विवेक कम होता है। आठ-दस साल का बच्चा यह नहीं जान सकता कि टी.वी. पर जगमगाते विज्ञापन वास्तविकता से कोसों दूर सिर्फ वस्तु के प्रचार हैं। मार्केटिंग तंत्र को इससे कोई मतलब नहीं है। बाजार की ताकतें जीवन की बदलती प्राथमिकताओं और स्थितियों के बीच अपना वर्चस्व स्थापित करना जानती हैं। आज स्थिति यह है कि शिक्षित और कमाऊ वर्ग एकल परिवारों में विभक्त हैं। यद्यपि परिवार में बच्चों की संख्या सीमित होती है, फिर भी माता-पिता अपनी भाग-दौड़ भारी जिन्दगी के कारण बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते। परिणामत: बच्चे अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं। वह अपना अकेलापन बांटने के लिए निरन्तर टीवी चैनलों के सम्पर्क में रहते हैं। मार्केटिंग तंत्र इसका पूरा फायदा उठाने में लगा है। यह टीवी पर प्रसारित होने वाले उन्हीं सीरियलों को विशेष रूप से स्पांसर करता है, जिसमें वर्जनाओं और पारंपरिक मूल्यों से मुक्त चमक-दमक भरी पाश्चात्य शैली की जिंदगी दिखाई गई होती है। जबकि औसत हिंदुस्तानी बच्चे का पारिवारिक परिवेश इससे एकदम अलग किस्म का होता है। किंतु बच्चा यह अंतर नहीं समझ पाता है। वह टीवी वाली जिंदगी को सत्य मानकर उसे अपने जीवन में उतारना चाहता है।
इसके अलावा बच्चों का ध्यान खींचने के लिए तीन चौथाई विज्ञापनों में बच्चों के रोल हैं। विज्ञापन का बच्चा बाल दर्शकों को खूब आकर्षित करता है। वह विज्ञापन वाले बच्चे जैसा स्वयं भी दिखाना चाहते हैं। इसलिए उन्हें वैसा ही स्कूल बैग, जूता, कैप, नेकर, शर्ट वगैरह तो चाहिए ही; घरेलू समान भी विज्ञापन वाले बच्चे के मम्मी-पापा जैसा हो तो क्या कहने। यह है आज के बच्चों का दृष्टिकोण ! वास्तव में बच्चे जो देखते हैं, वही सीखते हैं। ‘द इम्पैक्ट आॅफ टीवी एडवरटाइजिंग आन चिल्ड्रन’ शीर्षक नमिता उन्नीकृष्णन और शैलजा वाजपेयी के अध्ययन के अनुसार, आठ से पन्द्रह साल के पचहत्तर प्रतिशत बच्चे टेलीविजन विज्ञापनों में प्रदर्शित उत्पादों को हासिल करना चाहते हैं।
एक तरफ टेलीविजन बच्चों में पाश्चात्य शैली के जीवन मूल्यों का सृजन कर रहा है, दूसरी तरफ उन्हें उपभोक्ता बनने के लिए विज्ञापनों को उनकी रुचि के अनुकूल बनाया जा रहा है। बच्चों को निशाने पर लेकर अपना लक्ष्यसंधान विपरण तंत्र की एक सोची-समझी रणनीति है। इन्हें पता है कि बच्चे को समय न दे पाने की मन ही मन लज्जा झेलने वाले पैरेंट्स खरीददारी में बच्चों की भूमिका स्वीकारने के लिए विवश हैं, क्योंकि इससे उनको बच्चों से बढ़ती दूरी को निकटता में बदलने की अनुभूति होती है।
बाजार का यह खेल अत्यन्त विनाशकारी है। यह सीधे-सीधे बचपन में हस्तक्षेप है, जो बच्चों के संस्कार व चारित्रिक विकास के स्तर पर गतिरोध पैदा कर रही है। माता-पिता, प्रियजन और शिक्षकों के साथ सघन संवाद, खेलकूद और किस्से-कहानियों के बीच पालने वाला बचपन संवेदना, कल्पना, चिंतन और तर्कशक्ति सम्पन्नता के धरातल पर विकसित होता है। यह रचनात्मक व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है तथा इसी से विवेक और मानवीयता का पक्ष पुष्ट होता है। इधर बच्चों की दुनिया तेजी से बदल रही है। भोला-भला और सपनों से भारी आँखों वाला आज्ञाकारी बचपन विदा ले रहा है। उसका स्थान ले रहे हैं शेखीबाज, स्वार्थी, आत्मकेंद्रित और अवमानना से भरे बच्चे!
पहले बच्चों की मांग में जरूरत शामिल होती थी। ले-देकर दुर्गा पूजा, दीवाली, ईद, क्रिसमस, होली आदि पर्वों और जन्मदिन, विवाह जैसे पारिवारिक उत्सवों पर बच्चों की मांग में कुछ जिद और आडंबर भी रहता था, किंतु अब…। माता-पिता जब भी खरीदारी के लिए निकलने लगते हैं, बच्चों की लिस्ट सामने होती है। इसमें जरूरत के समान शायद ही रहते हों, ज्यादातर आइटम तड़क-भड़कवाले ही होते हैं। अभिभावकों के पास बच्चों को सादगी, संयम, संतोष और मितव्ययिता की सीख देने का समय नहीं है। वे बच्चों की मांग की पूर्ति करके उन्हें प्रसन्न देखना चाहते हैं। यह विवेक तो वह पता नहीं कब गवां चुके हैं कि सोच सकें, जिनके पास अधिक पैसा नहीं है, उनके बच्चों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? कहीं वे साथ खेलते या पढ़ते हुए हीनभावना से घिरकर बराबरी में आने के लिए कोई गलत राह तो नहीं पकड़ लेंगे ?
आधुनिक भारतीय समाज अपने अंदर विरोधाभास और द्वन्द्व के चरम उबाल को समेटे हुए जी रहा है। एक तरफ सम्पन्नता और विलासिता में डूबे कुछेक लाख लोग और उनका पिछलग्गू बड़ा मध्यवर्ग है। दूसरी तरफ एक बहुत बड़ी आबादी जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित घुट रही है। इस संवर्ग के बच्चे या किशोर में क्या अपने ही आयुवर्ग के सम्पन्न परिवार के संतानों जैसा जीवन जीने की ललक नहीं हो सकती? असमान्यता पहले भी थी, मगर तब अमीर-गरीब की खाई इतनी चौड़ी नहीं थी। बेलगाम उपभोग की प्रवृति नहीं थी। अपनी चादर देखकर पैर फैलाने का एक सार्वभौमिक सामाजिक मूल्य था, जो हर प्रकार की संकीर्णताओं और नैराश्य के अंधकार में लोगों को भटकने से बचत था।
आज संतोष और संयम पर आधारित पुराने मूल्य खंडित हो रहे हैं। इनके स्थान पर भोगवाद प्रबल हो रहा है। यह गलत-सही कैसे भी मन की मुराद पूरी करने की प्रेरणा देता है। युवावर्ग में आक्रोश, आक्रामकता, विद्रोह, अवमानना, हिंसक वृत्ति वगैरह में बढ़ोतरी इसी की देन है। समाज में जिस तेजी से असमानता बढ़ रही है, उसको देखते हुए इन पतनशील वृत्तियों में अभी और वृद्धि की संभावना है।
समाज क्रिया-प्रतिक्रिया से संचालित होता है। नई उपभोक्ता जमात की कुछ तो प्रतिक्रिया वंचित वर्ग के किशोरों-युवाओं पर होगी ही! इससे समाज के ताने-बाने में जिस बड़े उलझाव के पूर्व संकेत मिल रहे हैं, वह निश्चय ही डरावनी तस्वीर है। इससे समाजशास्त्री और शिक्षाविद चिंतित हैं। किंतु बाजार और मीडिया की ताकत के सामने वह असहाय हैं। उनकी चिंता सिर्फ चिंता है, वह आपाधापी भरे समाज को कोई सार्थक चिंतन और दिशा नहीं दे पा रहे हैं।