कोई भी तानाशाह जब स्वयं को अंदर से उठने वाले विक्षोभों का मुकाबला करने में अक्षम नहीं पाता है तो वह उन विक्षोभों को अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की ओर धकेलने की कोशिश करता है। पिछले दिनों ने यही किया। वैसे तो चीन ने पिछले सात दशकों में कभी कोई ऐसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया जिसे दोस्ती की मिसाल माना जा सके हां कहीं-कहीं ‘घृणा-प्रेम’ का मिश्रण जरूर दिखा। उसने 1962 से लेकर 2022 तक अनेक बार ऐसे प्रयास किए हैं जो एक मनोवैज्ञानिक वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर यथास्थिति को बदलना है। यह अलग बात है कि अभी तक वह इन प्रयासों में सफल नहीं हो पाया लेकिन यह भी सच है कि कभी डोकलाम, दौलत बेग ओल्दी (डीबीओ) और कभी गलवान, हॉटस्प्रिंग, डेमचोक, पैंगोंग त्सो आदि क्षेत्र में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के दखल के जरिए वह निरंतर दबाव बनाने के साथ-साथ एक मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ रहा है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि चीन की मंशा क्या है? क्या यह मामला सिर्फ भू-भाग का है या इसके पीछे उसकी कोई और सोच काम कर रही है? यानि क्या वह केवल वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति को ही बदलना चाहता है या मंशा कुछ और है? क्या वह इसलिए ऐसा कर रहा है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से सटे क्षेत्रों तक आगे बढ़कर अपने नियंत्रण को तर्कसंगत बना सके?
चीन निरंतर भारतीय सीमा पर जिस प्रकार की हरकतें करने की कोशिश कर रहा है उसके पीछे मूलतौर पर दो ही मकसद हो सकते हैं। पहला-सुरक्षा पंक्ति को मजबूत करना और दूसरा संसाधनों तक पहुंच को बेहतर बनाना। यह भी हो सकता है कि इसके पीछे उसकी यह मंशा भी काम कर रही हो कि इन गतिविधियों के जरिए भारत की रक्षा करने की इच्छा शक्ति को कमजोर किया जा सकता है। इन सबसे भिन्न लेकिन सैद्धांतिक दृष्टि से एक कारण और हो सकता है और वह है उसका मनोविज्ञान जो शायद नेपालियन बोनापार्ट के कथन से प्रेरित है कि हिमालय के उस ओर एक महादानव सो रहा है, उसे सोने दीजिए। वह जाग गया तो दुनिया को हिला देगा।
शी जिनपिंग ने पिछले 10 वर्षों में कमोबेश इसी विचार को आगे बढ़ाने की कोशिश की है। इसका हथियार स्ट्रिंग आॅफ पर्ल्स, बेल्ट एण्ड रोड एनीशिएटिव जैसी उसकी नीतियां अथवा योजनाएं बनी या फिर चीन की वह आर्थिक ताकत जिसके जरिए वह अपने आपको दुनिया की महान सैन्य शक्ति के रूप में पेश करना चाहता है। दुनिया के ऊपर इसका मनोवैज्ञानिक असर भी पड़ा। यही वजह है कि दुनिया के देशों और चिंतकों के दिमागों को चीन आच्छादित कर गया।
लेकिन भारत पर प्रभावी असर नहीं छोड़ पाया। इस स्थिति में चीन बार-बार 1962 वाले पन्ने पलट-पलट कर पढ़ना और बताना चाह रहा है जिससे कि भारत को यह एहसास कराया जा सके कि वह एक विजेता नहीं बल्कि हारा हुआ राष्ट्र है। इस मनोवैज्ञानिक खेल में वह कई बार सफल भी होता दिखने लगता है क्योंकि कुछ ही लोग सही पर यह ऐसा मानने पर सोचने के लिए विवश होने लगते हैं। दरअसल चीन अभी तक यह नहीं मान पा रहा है कि 1962 से अब तक छ: दशक बीत चुके हैं और इन दशकों में बहुत कुछ बदल चुका है।
ब्रिटेन सुपर पॉवर की श्रेणी से बाहर जाकर एक बिखरता हुआ कमजोर देश दिख रहा है। शीतयुद्ध की घुटन तमाम देशों को साम्यवाद की परिधि से बाहर ला चुकी है और सोवियत संघ का खत्म हो चुका है यहां तक रूस और यूक्रेन आज युद्ध कर रहे हैं। पूंजीवाद पूरी दुुनिया को आच्छादित कर चुका है और बाजार ने लोगों के मस्तिष्कों पर स्थायी प्रभाव बना लिया है। भू-राजनीतिक स्थितियां बदल चुकी हैं और युद्ध के नियम-कायदे व तकनीकें भी। आज का भारत 1962 के भारत से बहुत आगे निकल कर एक उपमहाद्वीपीय शक्ति के रूप में देखा जा रहा है जिसके बिना अंतरराष्ट्रीय संगठन और बड़ी शक्तियां भी आगे बढ़ना नहीं चाहती।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि चीन अमेरिकी रणनीति से कुछ कम स्केल की तीव्रता वाली विशेषता पर काम कर रहा है। ध्यान रहे कि पेंटागन की रणनीति छोटे स्केल के युद्धों की रही है जिनका परिणाम अमेरिकी पक्ष में आता रहा और अमेरिका के लिए मूल्य वर्धन (वैल्यू एडीशन) वाले उत्प्रेरक (कैटालिस्ट) का काम करता रहा। लेकिन अमेरिका ने यह अपनी सीमाओं पर नहीं किया बल्कि दूरस्थ क्षेत्रों में किया जबकि चीन ऐसी रणनीति भारत, ताइवान, भूटान…..आदि के साथ अपनाने की कोशिश कर रहा है।
खास बात यह है कि वह न केवल सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना चाहता है बल्कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर विशेषकर उन क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहता है जहां-जहां भारत लाभ की स्थिति में हैं। यह नई बात नहीं है और भारत इसे आज समझ भी रहा है। चीन इस समय एक भंवर में फंसता हुआ दिख रहा है विशेषकर जीरो कोविड नीति के असफल होने के पश्चात। दरअसल शी जिनपिंग अन्य कम्युनिस्ट नेताओं से आगे निकलते हुए माओत्से तुंग के करीब पहुंच गये। हो सकता है कि उनकी महत्वाकांक्षा माओ से भी आगे जाने की हो। इस दृष्टि से वे सफल तो रहे लेकिन अब यही चीजें उनके लिए चुनौतियों में बदलती हुई दिख रही हैं।
ऐसा इसलिए क्योंकि चीन अब ढलान पर है और जिनपिंग खुद को बचाए रखने के लिए जियांग जेमिन जैसे नेताओं तक से दुर्व्यहार करने से नहीं बच पाए। इसका सीधा मतलब हुआ कि जिनपिंग की राह आसान नहीं है। ‘कोर लीडर आॅफ चाइना’ के रूप में शायद उनकी स्वीकार्यता घट रही है। वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान, मिलिट्री का मॉडर्नाइजेशन, इन्फ्रास्ट्रक्चर और एशिया में चीनी ताकत की प्रतिष्ठा अथवा वैश्विक कूटनीति के कारण सफलता जिस प्रभाव का निर्माण कर ले गये उसका नतीजा ही उन्हें आजीवन राष्ट्रपति बने रहने की शक्ति दे गया।
लेकिन कोविड वायरस के वुहान कनेक्शन ने चीन के साथ-साथ उनके चरित्र को भी संदिग्ध बना दिया। चीन की अर्थव्यवस्था में बने बुलबुले फूटने की स्थिति में हैं और विकास दर डबल डिजिट से धीरे-धीरे शून्य से कुछ पहले आकर ठिठक चुकी है। ये स्थितियां उन्हें अविश्वासी एवं अलोकप्रिय बना रही हैं। इसी का परिणाम है कि नागरिकों का जिनपिंग विरोधी रवैया एवं तीव्र प्रतिरोध। शायद इन चुनौतियां की तीव्रता कम करने का उपाय है तवांग में पीपल्स आर्मी का दखल।
फिलहाल इस समय अमेरिका एक अनिश्चित विदेश नीति के साथ आगे बढ़ रहा है जिसके चलते अमेरिकी विचारक अमेरिकी शक्ति को लेकर ‘हेडलेस सुपरमैसी’ जैसे शब्द प्रयुक्त करने लगे हैं। इसलिए जिनपिंग चीन को कहीं अधिक ताकतवर अथवा महाशक्ति बनाने की संभावनाएं पाल बैठे हैं। वे शायद रिचर्ड निक्सन के उस कथन पर आ ठिठके हैं जिसमें माओ जिडांग के लिए लिखा था चेयरमैन के लेखन ने ‘दुनिया को बदल दिया’। अब इस फ्रेम में वे खुद को देख रहे हैं। लेकिन चीन की जनता उन्हें यहां नहीं देख पा रही। इसलिए जिनपिंग उसे भारतीय सीमा तक ले जाने चाहते हैं, प्रत्यक्ष अथवा मस्तिष्कों के जरिए।