कुछ दशक पूर्व जब आज की तरह भारत में शहर शहर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये तथाकथित कोचिंग संस्थान नहीं थे या सीमित संख्या में थे तो छात्र अपनी नवीं दसवीं कक्षा से ही अंग्रेजी, गणित और विज्ञान में अतिरिक्त पढ़ाई करके प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठा करते थे और प्रतिभावान छात्र आगे बढ़ जाते थे। यह वो समय था जब प्रत्येक वर्ग में योग्य तथा ईमानदार लोग प्रतियोगिता में बैठते थे और ईमानदारी से ही उनको अंक आवंटित होते थे। नकल, पेपर आउट आदि की तब कोई संभावना नहीं रहा करती थी और ना ही न्यायपालिका को भर्तियों में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता पड़ती थी।
समय बदला। छात्रों की तादाद बढ़ी और उसी अनुपात में बेरोजगारी भी बढ़ गई। अब ऐसे में शिक्षा क्षेत्र के माहिर पेशेवर व्यापारियों ने जगह जगह नौकरी की प्रतियोगिताओं को पास करने के लिये बेरोजगारों को आकर्षित करने के लिये कोचिंग संस्थान खोलने आरम्भ कर दिए। ये संस्थान आकर्षक विज्ञापनों और जगह-जगह फैले अपने दलालों के द्वारा छात्रों तथा उनके अभिभावकों को सफलता प्राप्ति के दिवास्वप्न दिखलाने लगे और छात्र भी प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए इन्हें शार्टकट समझ कर उनके यहां दाखिला लेने लगे।
ये कोचिंग संस्थान न केवल छात्रों को विषयवार प्रशिक्षण देने लगे अपितु बगैर छात्रों के नियमित विद्यालय गये उन्हें दसवीं से लेकर बारहवीं बोर्ड परीक्षा पास करवाने की गारंटी भी देने लगे। दिक्कतें यहां से प्रारम्भ होने लगीं। प्रत्येक अभिभावक लाखों रुपया कोचिंग और होस्टल फीस देकर अपने अपने बच्चों को बाहर कोचिंग के लिए भेजने लगे और इसके साथ ही बच्चे पर मानसिक दबाव भी स्वाभाविक रूप से पड़ता गया कि मेरे माता-पिता इतना पैसा मुझ पर खर्च कर रहे हैं और मैं कोचिंग संस्थान के मासिक आंतरिक मूल्यांकन में ऊपर की श्रंखला में नहीं आ पा रहा हूं। यहां से उसकी निराशा प्रारंभ होती है जो अभिभावक, कोचिंग स्टाफ तथा सहपाठियों के बर्ताव और अपेक्षाओं के कारण बढ़ती जाती है। इसके परिणामस्वरूप औसत बुद्धि वाले छात्र या तो मानसिक दबाव से उबरने के लिए गलत संगत अपना लेते हैं या नशे की लत लगा लेते हैं। कुछ कुछ तो गहन अवसाद में आत्महत्या जैसे कदम भी उठा लेते हैं।
अब यदि हम इस प्रणाली के दोषों पर निगाह डालें तो सबसे ज्यादा दोषी अभिभावक होते हैं जो बगैर अपने बच्चे की अभिरुचि तथा उसकी बौद्धिक क्षमता का आकलन करे मात्र अपनी महत्वाकांक्षा तथा मिलने जुलने वाले परिवारों के बच्चों से प्रतियोगिता के चलते उसे दूरस्थ शहर में कोचिंग के लिये भेज देते हैं इस आशा के साथ कि वह वहां से डाक्टर, इंजीनियर, प्रशासनिक अधिकारी ही बनकर वापस आएगा। यही दबाव निरंतर उस बच्चे पर रहता है जिसके कारण कुछ बच्चे टूट जाते हैं। दूसरे बड़े दोषी ये कोचिंग संस्थान होते हैं जो पिछले वर्षों के अवास्तविक एवं फर्जी परिणाम दिखला कर या प्रचारित करके छात्रों को सुनहरे भविष्य की फिल्म दिखाते हैं और थोक में उन्हें भर्ती कर लेते हैं।
नियमित कोचिंग क्लास लगने के बाद जिस तरह वे छात्रों की क्षमता का साप्ताहिक और मासिक मूल्यांकन करते हैं वह बहुत ज्यादा आपत्ति जनक होता है। उसमें वो एक निश्चित समयावधि के बाद छात्रों के दो ग्रुप बना देते हैं जिसमें एक तो उनका जो आंतरिक मूल्यांकन में ऊंची ग्रेड प्राप्त करते हैं और जिनके बारे में संस्थान को विश्वास हो जाता है कि ये लोग प्रतियोगिता में सफल हो सकते हैं और दूसरा वर्ग वे उन छात्रों का बनाते हैं जो आंतरिक मूल्यांकन में नीचे की श्रेणी प्राप्त करते हैं और जिन पर अधिक मेहनत करने की आवश्यकता समझी जाती है। अब दोनों समूहों को अलग अलग कमरों में अलग अलग पढ़ाया जाता है। यहीं से कमजोर समझे गए छात्रों का मानसिक विचलन प्रारंभ हो जाता है। इन कोचिंग संस्थानों का जाल इतना विस्तृत होता है कि इनके घनिष्ठ संबंध बड़े-बड़े राजनेताओं से बन जाते हैं और यही कारण है कि किसी भी प्रदेश में इनके रेगुलेशन के लिए कोई कानून नहीं है। यहां तक की इनकी अकेडमिक आडिट भी नहीं होती है। इनके द्वारा छात्रों/अभिभावकों को आकर्षित करने के लिए जारी किए गए विज्ञापनों में किए गए दावों की जांच पड़ताल के लिए भी कोई मैकेनिज्म विकसित नहीं किया गया है, जिसको समझ कर अभिभावक निर्णय कर सकें।
अभी दिल्ली में एक बड़े कोचिंग संस्थान के बेसमेंट में बारिश का पानी भरने से तीन छात्रों की हुई मौत ने भी सरकार, प्रशासन और कोचिंग संस्थानों की मिलीभगत की कलई खोल कर रख दी है। किसी भी सरकार ने अभी तक कोई नियम उपनियम नहीं बनाएं हैं और यदि कहीं बिल्डिंग बाइलाज बने भी हुए हैं तो उन्हें लागू करने की कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। देशभर में प्रतियोगी परीक्षाओं में जो पर्चा लीक की एक के बाद एक घटनाएं सामने आ रही हैं उनसे भी कोचिंग प्रक्रिया पर एक शक की निगाह तो जाती ही है।
यदि देश के युवाओं को वास्तव में ही रोजगार उन्मुख शिक्षा दिलानी है तो उन्हें स्कूल शिक्षा में ही नवीं क्लास से विषय विशेष का प्रशिक्षण दो अतिरिक्त कक्षाएं प्रतिदिन लगा कर दिलवाना होगा। यह विषय छात्र की योग्यता तथा रूचि के अनुरूप हो सकता है। इस प्रकार लगातार चार वर्ष तक यानि नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं से बारहवीं कक्षा में आते आते वह छात्र अपनी रूचि के विषय में प्रतियोगिता का सामना करने में पारंगत हो जाएगा। यह कार्य विद्यालयों में ही होना चाहिए। अभिभावकों को भी अपने बच्चे की बौद्धिक सीमाओं का ज्ञान होना चाहिए और अपनी अंधी महत्वाकांक्षा का बोझ उसपर नहीं लादना चाहिए।