Friday, November 14, 2025
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आता हुआ चुनाव और ड्रॉप होतीं किताबें

बिहार में चुनाव होने वाले हैं। लोक में कहावत है- एक बिहारी सब पर भारी। इस अवसर को अपने पक्ष में भुनाने के लिए तरह-तरह की किताबें और पैंतरे माहौल में आने लगे हैं। अब तक लोग जान गए हैं कि किताब मुख्यत: तीन तरह की होती हैं। एक वे जो वास्तव में लाइब्रेरी के अंधकूप के लिए छपवाई जाती हैं। ये जरा अपठनीय किस्म की विशिष्ट किताबें होती हैं। दूसरी वो जो किसी सम्यक बवाल को कायदे से खड़ा करने के लिए ब्रह्मोस की तरह ड्रॉप की जाती हैं। तीसरी तरह की किताबें वो जो सिर्फ सिर्फ ड्रॉइंग रूम में रखे शोकेस में सजाने के लिए होती हैं। किताबें सभ्रांतजन के लिए उसी तरह बुद्धिजीवी होने का प्रमाणपत्र हैं जैसे कभी शिकारियों की बैठक में बाघ की खाल या मृगछाल टंगा करती थी।

वह समय पिछली शताब्दी के बीतने के साथ गया-गुजरा हुआ जब अधिकांश आबादी पढ़ने-लिखने का कुटेव पालती थी। यह तब की बात है जब आवाज पहले प्रकट होती थी, इसके पश्चात दृश्य कल्पना में आकार लेते थे। आजकल ऐसी-ऐसी किताब उपलब्ध हैं जो चुनावी समय में टाइम बम की तरह टिकटिकाती हैं, पर धमाका उपयुक्त स्थान और समय पर ही करती है। ऐसी किताबें पॉलिटिकली करेक्ट कहलाती हैं और हर रुत में भांति-भांति के विवादों के जरिये बेस्ट सेलर बन जाती हैं। यूट्यूबर ऐसी किताबों की कामयाबी की बातें अकसर बढ़ा चढ़ा कर बताते हैं। सयाने बताते हैं कि वह समय हवा-हवाई हुआ, जब आदरणीय अमुकजी फाख्ता उड़ाते थे और बचे हुए समय में किताबें बांच कर अपनी वैचारिकी को उपयुक्त आकार देते। अब अधिकांश कुछ नहीं पढ़ते-पढ़ाते वरन एअई से मिली आधी-अधूरी सूचनाएं सोशल मीडिया पर निरंतर ठेलते रहते हैं। यही लोग हमारे समय के दिग्गज विचार बहादुर हैं और बाय डिफाल्ट विद्वान मान लिए गए हैं।

कहने वाले तो यहां तक कहते फिर रहे हैं कि वह समय सन्निकट है, जब चुनावी जय-पराजय ईवीएम के माध्यम से न होकर सोशल मीडिया पर लगातार चलने वाली ट्रोलिंग की गुणवत्ता के आधार पर तय होगी या किसी न किसी टेक्नोलॉजी के जरिये डाउनलोड कर ली जाएगी। लेकिन ध्यान रहे कि ईवीएम हैकिंग वाली आशंका तो तब भी पूरी शिद्दत के साथ राजनीतिक विमर्श में मौजूद रहेगी। वैसे भी कोई भी कितनी उन्नत तकनीक आ जाए लेकिन हमें बाबा आदम के जमाने की वस्तुएं फिर भी रह -रह कर याद आती ही है, अब भी बिहार में एक तबका यह कहता दिख रहा है कि वोट हों या नीबू ,कागजी ही अच्छे। लोकतंत्र में कुछ किताबें भले ही बम सरीखी लगती हों लेकिन अभूतपूर्व अपठनीयता के बावजूद भारी भरकम रोयल्टी की अदायगी के चलते उनका वजूद किसी ऐसे फर्जी मुर्गा छाप पटाखे जैसा हो चला है ,जिसमें से कौन कब धमाका कर देगा , ठीक से कुछ कहा नहीं जा सकता।

चंद ईष्यार्लु दुर्जनों को यहां तक कहता सुना गया कि कैसा विचित्र समय आ गया है कि कैसी-कैसी लुगदी किताबें भी सुतली बम बनने की होड़ में सबसे आगे निकल ली हैं।

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