Monday, July 1, 2024
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विचाराधीन कैदियों की चिंता

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Samvad


12 4राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने संविधान दिवस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित अहम चर्चा में हिंदी में बोलते हुए अत्यधिक मार्मिक शब्दों में न्यायपालिका से गरीब आदिवासियों के लिए कुछ करने का आग्रह किया था। राष्ट्रपति ने जेलों के अत्यधिक भरने पर और ज्यादा जेलें बनाए जाने की चचार्ओं का उल्लेख करते हुए कहा कि हम विकास की ओर जा रहे हैं, आगे जा रहे हैं ऐसे में और ज्यादा जेल बनाने की क्या जरूरत है? जेल कम करनी चाहिए। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2020 कहती है कि भारत में कुल कैदियों में से दो तिहाई बिना दोष सिद्ध हुए ही कैद में हैं। यानी उन्हें मुकदमे का इंतजार है। इसे देश की न्यायिक प्रक्रिया की ही कमी कहा जाएगा कि दोषी साबित होने से पहले ही इनमें से बहुतों को लंबा समय जेल में गुजारना पड़ा है। आलम यह है कि इनकी जमानत पर भी समय से सुनवाई नहीं हो पा रही। विचाराधीन कैदियों का परिवार भी उनके साथ-साथ कानूनी लचरता की इस मार को झेलता है। उनका जीवन दुर्गम परिस्थितियों का शिकार हो जाता है। ऐसे परिवार भावनात्मक पीड़ा ही नहीं झेलते, बल्कि आर्थिक और सामाजिक रूप से भी तकलीफदेह हालात में फंस जाते हैं। अधिकतर गरीब और अशिक्षित घरों से आने वाले ऐसे कैदियों की सुध लेने वाला कोई नहीं होता। वर्षों चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया के कारण मानो बिना दोषी साबित हुए ही सजा इनके हिस्से आ जाती है। ऐसे दुखद मामले भी हुए हैं कि जमानती अपराधों में जेलों में बंद कैदियों का पूरा जीवन ही सुस्त प्रक्रिया की भेंट चढ़ गया।

राष्ट्रपति ने कहा कि जो लोग जेल में बंद हैं, उन्हें न तो मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में पता है और न ही संविधान की प्रस्तावना के बारे में। ऐसे लोगों के लिए कुछ करने की जरूरत है। राष्ट्रपति ने देश की न्यायिक प्रणाली एवं न्यायिक व्यवस्था में बड़े बदलाव की तरफ इशारा किया है। इसी साल जुलाई माह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली अखिल भारतीय जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की बैठक के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए कहा था, ‘कई कैदी ऐसे हैं जो वर्षों से जेलों में कानूनी सहायता के इंतजार में पड़े हैं।

हमारे जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण इन कैदियों को कानूनी सहायता प्रदान करने की जिम्मेदारी ले सकते हैं।’ प्रधानमंत्री ने बीती अप्रैल में राज्यों के मुख्यमंत्रियों और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन के उद्घाटन में भी विचाराधीन कैदियों का मुद्दा उठाया था। सुप्रीम कोर्ट भी समय-समय पर इस मसले को उठाता रहा है। बावजूद इन सबके पता नहीं क्यों, इस मामले में जमीन पर कोई ठोस प्रगति होती नहीं दिखती।

नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर की जेलों में कुल 4,88,511 कैदी थे जिनमें से 76 फीसदी यानी 3,71,848 विचाराधीन कैदी थे। यानी इन कैदियों के मामले अभी अदालत में चल ही रहे हैं और यह पता नहीं है कि ये सचमुच दोषी हैं या नहीं। इनमें कइयों को तो जेल में फैसले का इंतजार करते दस-दस पंद्रह-पंद्रह साल हो चुके हैं। इनका बहुत बड़ा हिस्सा (73 फीसदी) दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदायों से आता है। इनमें से कई कैदी आर्थिक रूप से इतने कमजोर होते हैं जो वकील की फीस तो दूर जमानत राशि भी नहीं जुटा सकते।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एनवी रमण इस साल जुलाई में जयपुर में आयोजित 18वें अखिल भारतीय विधिक सेवा प्राधिकरण के उद्घाटन सत्र में देश में विचाराधीन कैदियों की बड़ी संख्या पर चिंता जताते हुए कहा था कि यह आपराधिक न्याय प्रणाली को प्रभावित कर रही है। उन्होंने कहा कि उन प्रक्रियाओं पर सवाल उठाना होगा जिनके कारण लोगों को बिना मुकदमे के लंबे समय तक जेल में रहना पड़ता है। उन्होंने कहा कि,देश की 1378 जेलों में 6.1 लाख कैदी हैं और वे हमारे समाज के सबसे कमजोर वर्गों में से एक हैं। उन्होंने कहा, जेल ब्लैक बॉक्स हैं। कैदी अक्सर अनदेखे, अनसुने नागरिक होते हैं।

गृह मंत्रालय द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया 2021’ के अनुसार 2016-2021 के बीच जेलों में बंदियों की संख्या में 9.5 प्रतिशत की कमी आई है जबकि विचाराधीन कैदियों की संख्या में 45.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक चार में से तीन कैदी विचाराधीन हैं। 31 दिसंबर 2021 तक लगभग 80 प्रतिशत कैदियों को एक वर्ष तक की अवधि के लिए जेलों में बंद रखा गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021 में रिहा किए गए 95 प्रतिशत विचाराधीन कैदियों को अदालतों ने जमानत दे दी थी, जबकि अदालत द्वारा बरी किए जाने पर केवल 1.6% को रिहा किया गया था।

राष्ट्रपति ने समारोह में मौजूद न्यायपालिका और सरकार के नुमाइदों कानून मंत्री और न्यायाधीशों से कहा कि वे इस मसले को उन पर छोड़ रही हैं। सरकार के जो तीन अंग हैं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका है, जन साधारण और देश के लिए कहीं-कहीं इन तीनों की सोच एक होनी चाहिए। चेक एंड बैलेंस तो होना चाहिए लेकिन कहीं-कहीं हम सबको मिलकर काम करना चाहिए।

राष्ट्रपति के संबोधन का असर होता दिख भी रहा है। विचाराधीन कैदियों की शीघ्र रिहाई सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को ऐसे कैदियों पर डेटा एकत्र करने का निर्देश दिया, जिन्हें जमानत मिल गई है, लेकिन वे इसकी शर्तों का पालन करने में असमर्थता के कारण जेल से बाहर नहीं आ सकते हैं। जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एएस ओका की बेंच ने इस मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि राज्य ऐसे कैदियों का डेटा 15 दिन के भीतर कोर्ट को दे। इससे देश की जेलों में बंद लाखों कैदियों की रिहाई का रास्ता खुला है।

कानूनी विशेषज्ञों के मुताबिक लोक अदालतों से लेकर मध्यस्थता तक, नालसा की सेवाओं का उपयोग करके छोटे-मोटे विवादों, पारिवारिक विवादों का निपटारा वैकल्पिक तरीकों से किया जा सकता है। इससे न्याय चाहने वालों को अपने विवादों का सस्ता और शीघ्र समाधान मिल सकता है। ओर इससे अदालतों पर बोझ भी कम होगा। इस समस्या को संबोधित करते हुए न्यायालय ने केंद्र सरकार से अलग से एक जमानत कानून लाने पर विचार करने को भी कहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसी भी आधुनिक लोकतंत्र को कानून के शासन के पालन से अलग नहीं किया जा सकता है। सवाल यह है कि क्या समानता के विचार के बिना कानून का शासन कायम रह सकता है? आधुनिक भारत का विचार सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करने के वादे के इर्द-गिर्द बनाया गया था। राष्ट्रपति ने अहम मुद्दे को बेहद संजीदगी और संवेदनशीलता से उठाया है। उम्मीद की जानी चाहिए व्यवस्था के तीनों अहम अंग इस गंभीर विषय पर पहल करते हुए ठोस कदम उठाएंगे।


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