Friday, May 16, 2025
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कविता में बांध प्रभावित

 

Ravivani 30


राकेश दीवान

प्रेमशंकर रघुवंशी की लंबी कविता ‘डूबकर डूबा नहीं हरसूद’ का पहला पाठ करते हुए विक्रम सेठ की बरसों पहले (1991 में प्रकाशित) पढ़ी लंबी कविता ‘बीस्टलली टेल्सख’ याद आती रही। सेठ ने अपनी अंग्रेजी कविता में एक काल्पनिक बांध से डूबने वाले जंगल के रहवासी तमाम जानवरों के साहस और संघर्ष की मार्फत विस्थापन और फिर डूब की विस्तृत व्यथा-कथा सुनाई है। रघुवंशी अपनी हिंदी की इस लंबी कविता में ‘इंदिरा सागर बांध’ की चपेट में आए खंडवा (मध्य-प्रदेश) जिले के एक भरे-पूरे कस्बे हरसूद और उसके आसपास के गांवों को पानी का सामना करते दिखाते हैं।

एक तरह से ये दोनों कविताएं अपने कथ्य के लिहाज से आपस में जुड़ी दिखाई देती हैं। जहां सेठ ‘बीस्ट ली टेल्सं’ में बांध विरोध के आंदोलन का खाका खींचते हैं वहीं रघुवंशी करीब ढाई दशक चले आंदोलन के बाद डूब की त्रासदी भुगतते आम लोगों का दर्द उजागर करते हैं। सेठ की कविता से जहां बांध के पक्ष और विपक्ष की राजनीति का अंदाजा लगाया जा सकता है वहीं रघुवंशी अपनी कविता के जरिए डूबने वालों की अमानवीय प्रतारणा का खुलासा करते हैं।

थोड़ी और गहराई में जाएं तो संभवत: इन कविताओं के बीच कुछ और सार्थक जोड़ बिठाए जा सकते हैं, लेकिन एक बात प्रेमशंकर रघुवंशी की कविता को इस या इससे मिलते-जुलते विषय पर लिखने वालों में अलग खड़ा कर देती है। वे डूबते हरसूद की पीड़ा को उन्हीं लोगों के बीच, ठीक उसी जगह जाकर उजागर करते हैं। यह कमाल अपने विषय के साथ जैविक रिश्ते के बिना नहीं किया जा सकता। इस लिहाज से देखें तो यह कविता ठेठ उन लोगों की त्रासदी बयान करने वाली कविता हो जाती है जो खुद डूब का सामना करते हुए अपनी-अपनी जिजीविषा को बरकरार रखे हुए हैं।

त्रासद विस्थापपन को भुगत रहे निमाड के आम बांध प्रभावितों के साथ कवि कैसे एकाकार हो जाता है? कैसे उसकी कविता डूबने वालों में से ही किसी एक की कविता हो जाती है? इसे जानने के लिए रघुवंशी समेत उन लोगों को जानना जरूरी होगा जो नर्मदा या ऐसी ही किसी नदी के ठेठ किनारों पर बसे हैं। इनके अपनी नदी के साथ किस तरह के रिश्ते हैं? क्यों उनके लिए भी, बाकी तमाम संसार की तरह, नदी, पानी का एक अविरल स्रोतभर है? यदि नहीं, तो फिर उनके जीवन में नदी किन-किन अवतारों में प्रगट होती है?

देशभर की नदियां अपने आसपास के समाज को तरह-तरह से उपकृत करती हैं। जाहिर है, समाज भी उसे अपने जीवन का एक आवश्यसक जीवंत हिस्साह मानता है। नदी के संबंध में बोली जाने वाली भाषा इसका एक प्रमाण है। नर्मदा के किनारे के भील-भिलाला आदिवासी नदी की बाढ़ को उसका ‘सूज’ जाना कहते हैं, ठीक उसी तरह जैसे भागीरथी के किनारे का समाज बाढ़ को नदी का ‘बौखला’ जाना या गुस्साह हो जाना कहता है। ‘सूजना’ या ‘बौखलाना’ इंसानी गुण है और यह किसी निर्जीव जलस्रोत की हरकत नहीं हो सकती। इसलिए भीलों के लिए नर्मदा घर की एक बुजुर्ग, ‘मोटली माई’ है जैसे उत्तराखंड के लोगों के लिए भागीरथी ‘मां’ है।

एक और उदाहरण है, भील-भिलाला आदिवासियों के ‘गायणा’ का। ‘मिथ आॅफ क्रिएशन’ के नाम से पहचाना जाने वाला लंबा, रात-रात भर गाया जाने वाला गीत प्रकृति के निर्माण और संचालन के रहस्य खोलता है। इस गीत में नर्मदा यानि ‘मोटली माई’ की भी लंबी कहानी है जिसमें उन्हें समुद्र यानि ‘डूडा हामद’ से प्रेम हो जाता है। प्रेम में डूबी, प्रफुल्लित नदी नाचते-गाते समुद्र से मिलने जाती है और इस यात्रा में अपने निकट आने वाले हरेक प्राणी को उदारता से कुछ-न-कुछ देती चलती है। कई प्रकार के पेड़, वनस्पति, बीज, अनाज इस सुखद यात्रा के नतीजे में तट-वासियों को मिलते हैं।

प्रेम के आनंद में आकंठ डूबी नर्मदा को अंत में समुद्र का भाई दुखद खबर देता है कि वह नाच-गाने में लगी है, लेकिन उधर तापी समुद्र से मिल चुकी है। मिलन से ज्या दा प्रेम में होने के सुख का महत्व बताने वाली इस कहानी के नतीजे में नर्मदा का टेढ़ा-मेढ़ा और तापी का लगभग सीधा यात्रा-पथ इसी कहानी को पुष्ट करता बताया गया है। यहां उन आदिवासियों का उल्लेख भी किया जाना प्रासंगिक होगा, जिन्होंने प्रेम की इतनी गहरी व्याख्या की है और जिन्हें हमारा थोड़ा पढ़-लिख गया समाज पिछड़ा, असभ्य, अशिक्षित, गंवार जैसे विशेषणों से नवाजता रहता है।

भील-भिलालों की तरह नर्मदा किनारे की गोंड, बैगा, कोरकू, भारिया जैसी जनजातियां भी अपने-अपने गीतों, नृत्यों की मार्फत नर्मदा के होने का उत्सव मनाती रहती हैं, उनके लिए भी नदी घर के किसी बेहद वरिष्ठ सदस्य की हैसियत रखती हैं। गैर-आदिवासी समाजों में भी नर्मदा को केवल पानी के स्रोत से इतर देवी या मां का दर्जा मिला है। प्रेमशंकर रघुवंशी का नर्मदा से इसी तरह का रिश्ता है और नदी किनारे के निमाडी होने के नाते वे भी इसी परंपरा के कवि हैं। जाहिर है, नर्मदा की डूब की उनकी कविता भी केवल आज के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक संकट की कविताभर नहीं है, उसमें नदी किनारे के समाज की धड़कन सहज रूप से आवा-जाही करती रहती है। मिसाल के तौर पर इस लंबी कविता में कई ऐसे शब्द, अंश देखे जा सकते हैं जो ठेठ स्था नीय निमाडी या बुंदेली भाषाओं में प्रयोग किए जाते हैं।

नर्मदा से रघुवंशी का यही लगाव उन्हीं अपने संगी-साथियों, नाते-रिश्तेशदारों, पास-पड़ोसियों की असमय, अत्यायचारी डूब का भागीदार बना देता है और इसी प्रेरणा से वे इस लंबी कविता की रचना करते दिखाई देते हैं, लेकिन क्या ऐसी मानवीय त्रासदियों पर कलम चलाने के लिए उसके पड़ोस का होना इतना जरूरी है? क्या विस्थापन, डूब के दर्द, कठिनाइयां हिंदी के रचनाकारों को इतनी दूर की लगती हैं कि वे इस पर रत्ती भर स्याही तक बर्बाद नहीं करना चाहते?

पत्रकार विजयमनोहर तिवारी ने भोपाल गैस त्रासदी पर लिखी अपनी किताब ‘आधी रात का सच’ में मध्य प्रदेश और भोपाल के लेखकों, पत्रकारों पर तीखा सवाल करते हुए पूछा है कि इतनी जहरीली, गंभीर और हजारों को मारने वाली दुर्घटना पर उन्होंने अपनी कलम क्यों नहीं चलाई? समूची 1312 किलोमीटर की नर्मदा पर प्रस्तावित और निर्मित तीस बडेÞ बांध देश के बीचों-बीच बसी भरी-पूरी किसानी, आदिवासी संस्कृतियों, लाखों जीवन और बेहद उपजाऊ जमीनों को डुबो रहे हैं, लेकिन हमारी भाषा हिंदी के अधिकांश कवियों, साहित्यरकारों को ये विषय अपनी रचनाओं के लायक नहीं लगते। सामान्य, पत्रकारीय जिम्मेदारियों के तहत लिखे गए समाचारों, लेखों के अलावा इक्का-दुक्का साहित्यिक आलेखों को छोड़ दें तो हिंदी जगत को नर्मदा पर बनने वाले बांधों की त्रासदी कलम चलाने को प्रेरित नहीं कर पाती।

आज बांध बनाने के लिए लपलपाते सत्ता और सेठों के कुत्सित गठबंधन पर यदि किसी तरह की रोक लगी है तो उसमें निमाड-मालवा के उन अनेक किसान-आदिवासियों का भी हाथ है जिनकी तकलीफों पर रघुवंशी ने कलम चलाई है। समय और स्थान की सीमाओं का उल्लंघन कर लिखी गई लंबी कविता संघर्ष के इस आख्यान के बिना अधूरी दिखती है। शायद रघुवंशी जी ने यह विषय अपनी अगली लंबी कविता के लिए छोड़ दिया है।


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