वह 1990 के दशक का उत्तरार्द्ध था जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक अदालत के चैम्बर के ‘शुद्धिकरण’ का मामला सुर्खियों में था। दरअसल उपरोक्त चेम्बर पहले अनुसूचित जाति से सम्बद्ध न्यायाधीश के लिए आवंटित हुआ था और उनके तबादले के बाद किन्हीं ‘उच्च जाति’ के व्यक्ति को उस चैम्बर का आवंटन हुआ। खबर यह बनी कि ‘उच्च जाति’ के उपरोक्त न्यायाधीश ने ‘गंगाजल’ से उसका शुद्धिकरण करवाया। अखबार के रिपोर्टरों ने उन सम्बद्ध व्यक्तियों से भी बात की थी, जो इस कार्रवाई में शामिल थे। खबरों को पढ़ कर अनुसूचित जाति से सम्बद्व न्यायाधीश ने अदालत की शरण ली और उनके बाद वहां विराजमान हुए उच्च जाति के न्यायाधीश को दंडित करने की मांग की। मामला अंतत: अदालत द्वारा ही रफा दफा किया गया, बाद में पता चला कि अदालत ने जो जांच कमेटी बनायी थी उसने उन लोगोां से बात तक नहीं की थी, जो ‘शुद्धिकरण में शामिल थे।’ अब बीते लगभग ढाई दशक में गंगा-यमुना से तमाम पानी बह चुका है, अलबत्ता ऐसी घटनाओं का कतई अकाल नहीं सामने आया है, जब न्यायाधीशों के जेंडर, जातीय या सांप्रदायिक पूर्वाग्रह सामने आए हैं और फिर यह सवाल भी उठता रहा है कि ऐसी मान्यताओं के आधार पर अगर वह न्याय के सिंहासन पर बैठेंगे तो वह जो फैसला लेंगे वह किस हद तक संविधान सम्मत होगा।
बहरहाल, पिछले दिनों यह बहस नए सिरेसे उपस्थित हुई जब सुश्री प्रतिभा सिंह, जो दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं, उन्होंने उद्योगपतियों के एक संगठन ‘फिक्की’ द्वारा आयोजित एक समारोह में विज्ञान, टेक्नोलॉजी आदि क्षेत्रों में महिलाओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों के बारे में बात करते हुए स्त्रियों के सम्मान, उनकी मौजूदा स्थिति और धार्मिक ग्रंथों की अहमियत पर न केवल बात की बल्कि उनकी एक नयी परिभाषा भी देने की कोशिश की। गौरतलब था कि अपनी इस तकरीर में उन्होंने मनुस्म्रति के कसीदे पढ़े। उनका कहना था, ‘भारत की महिलाएं एक तरह से धन्य हैं और इसकी वजह यही है कि यहां के धार्मिक ग्रंथों ने उन्हें हमेशा ही सम्मान दिया है और जैसा कि मनुस्मृति खुद कहती है कि अगर तुम महिलाओं का सम्मान नहीं कर सकते हो तो तुम जो पूजा पाठ कर रहे हो, वह सब व्यर्थ है।’
याद रहे आजादी के आंदोलन में धार्मिक ग्रंथों में स्त्रियों, दलितों एवं अन्य वंचितों की स्थिति को लेकर विभिन्न सामाजिक क्रांतिकारक एवं सुधारकों ने लगातार अपनी आवाज बुलंद की है। अपने लेखन और व्याख्यानों में डॉ. अम्बेडकर ने मनु के विश्व नजरिये की लगातार मुखालिफत की थी। विडम्बना कही जाएगी कि इक्कीसवीं सदी की तीसरी दहाई में एक न्यायविद द्वारा मनुस्मृति का यह समर्थन-जिसे डॉ. अंबेडकर ने ‘प्रतिक्रांति’ का दस्तावेज कहा था-निश्चित ही कोई अपवाद नहीं कहा जा सकता।
विगत कुछ वर्षों में ऐसे मामले बार बार आए हैं, जब परोक्ष अपरोक्ष रूप से कुछ न्यायविदों ने अपने ऐसे तमाम पूर्वाग्रहों को प्रगट किया है। दिसम्बर, 1921 में जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पंकज मित्तल ने अधिवक्ता परिषद के कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के तौर पर व्याख्यान दिया जिसका विषय था ‘धर्म और भारत का संविधान। उनका दावा था कि भारत के संविधान के प्राक्कथन में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द के समावेश ने भारत की आध्यात्मिक छवि को सीमित किया है। रेखांकित करने वाली बात न्यायमूर्ति पंकज मित्तल उस अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के कार्यक्रम में शामिल हुए थे, जिसे संघ परिवार का आनुषंगिक संगठन समझा जाता है, जिसकी स्थापना राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ से जीवन भर सम्बद्ध रहे दत्तोपंत ठेंगड़ी ने की थी और ऐसी बातें भी बोल रहे थे, जो संघ परिवार के लिए बेहद कर्णप्रिय समझी जा सकती हैं। दिसम्बर माह बीता नहीं था कि जनवरी की की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट के एक अग्रणी जज अब्दुल नजीर-जो आला अदालत के कई अहम फैसलों में शामिल रहे हैं- सुर्खियों में आए जब उन्होंने इसी अधिवक्ता परिषद के सम्मेलन में शामिल होकर ‘भारतीय कानूनी व्यवस्था के गैरऔपनिवेशीकरण’ विषय पर बात रखते हुए यह दावा किया कि भारत की कानूनी प्रणाली एक तरह से औपनिवेशिक कानूनी प्रणाली की विरासत है, जो भारतीय जनता के लिए अनुकूल नहीं है तथा उसके भारतीयकरण की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा, ‘प्राचीन भारत की कानूनी प्रणाली की वास्तविक स्थिति जानने के लिए हमें प्राचीन भारतीय ग्रंथों की ओर लौटना होगा और हम पाएंगे कि भारत की वह न्याय प्रणाली कानून के राज पर टिकी थी।’ उन्होंने इस बात पर भी अफसोस प्रगट किया कि किस तरह भारत की आधुनिक कानूनी प्रणाली ने ‘मनु, कौटिल्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद, याज्ञवल्क्य आदि प्राचीन भारत के महान कानूनविदों के योगदानों की अनदेखी की है और वह ‘औपनिवेशिक कानूनी प्रणाली चिपकी रही है।’ अपने व्याख्यान में उन्होंने मनु को भी याद किया जिन्होंने ‘‘अपराध के लिए सार्वजनिक निंदा की हिमायत की थी’। याद कर सकते हैं कि बमुश्किल तीन साल पहले केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश चिदंबरेश सुर्खियों में आए थे जब उन्होंने ‘ग्लोबल ब्राह्मण मीट’ को संबोधित करते हुए ब्राह्मण जाति की कथित वरीयता को रेखांकित किया था और सम्मेलन को यह आवाहन किया था कि आरक्षण का आधार क्या जाति होना चाहिए।
न्यायमूर्ति के पूर्वाग्रह किस तरह समाज में व्याप्त विषाक्तता को मजबूती देते हैं, इसे प्रमाणित करने के लिए अंत में हम मुंबई उच्च न्यायालय के एक फैसले पर बात कर सकते हैं। मुंबई उच्च न्यायालय ने एक मुस्लिम युवक की लिंचिग के मामले में सभी अभियुक्तों को पैरोल पर रिहा किया। अदालत का तर्क था कि ‘यह मृतक की एकमात्र गलती थी कि वह दूसरे धर्म से सम्बद्ध था, यह तथ्य मैं अभियुक्तों के पक्ष में मानती हूं…ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म के नाम पर वह भड़क गए।’ अंत में सर्वोच्च न्यायालय को इस मुददे पर हस्तक्षेप करना पड़ा और अभियुक्तों की जमानत रदद करनी पड़ी।
कई अन्य उदाहरण दिए जा सकते हैंै, लेकिन फिलवक्त इतना ही कहना काफी होगा कि आजादी की इस पचहत्तरवीं सालगिरह पर न्यायपालिका पर भी गहराते बादलों को हम देख सकते हैं, जो यह संकेत जरूर देते हैं कि चीजें अब जबरदस्त उथलपुथल में हैं। इसका समाधान क्या निकलेगा, इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है।