लगभग साढ़े सात दशक पहले हमने अपने लिए संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का चयन किया था और उसे ठीक-ठाक चलाए रखने के लिए संविधान बनाया था, लेकिन क्या वे उतने कारगर बचे हैं जितने उन्हें बनाते हुए हमने सोचा था? संसद में जो हो रहा है उसे कितना लोकतांत्रिक और संवैधानिक कहा जा सकता है? कांग्रेसमुक्त भारत बनाने की बदहवास होड़ को यही रास्ता पकड़ना था। देश भी तेजी से कांग्रेसमुक्त हो रहा है; संसद भी विपक्ष मुक्त हो गई है। संविधान में ऐसी मुक्ति की कोई कल्पना नहीं है। वहां तो संसदीय लोकतंत्र का आधार ही पक्ष-विपक्ष दोनों हैं। विपक्ष अपने कारणों से चुनाव न जीत सके तो वह जाने, लेकिन जो और जितने जीतकर संसद में पहुंचे हैं, उन्हें पूरे अधिकार व सम्मान के साथ संसद में रखना सत्तापक्ष का लोकतांत्रिक दायित्व है। लोकसभा का अध्यक्ष इसी काम के लिए रखा जाता है कि वह संसदीय प्रणाली व सांसदों की गरिमा का रक्षक बनकर रहेगा। 2014 के बाद से संसद का सामान्य शील भी खत्म हो गया और इसे विपक्ष ने नहीं, सत्तापक्ष ने खत्म किया। सबसे पहले तो प्रधानमंत्री ने ही घोषणा कर दी कि हमारा विपक्ष देशद्रोही, राष्ट्रीय एकता का दुश्मन, भ्रष्टाचारी तथा विभाजनकारी ताकतों का सफरमैना है। विपक्ष के लिए जवाहरलाल से मनमोहन सिंह तक, किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं कहा था। बहुमत से सरकार बनाने वाले प्रधानमंत्री को विपक्ष को ऐसा कहने की जरूरत क्यों पड़ी? इसलिए कि वे भयग्रस्त मानसिकता से घिरे थे; घिरे हैं। उन्हें पता है कि यह जो सत्ता हाथ आई है, उसके पीछे आत्मबल नहीं, तिकड़में हैं और तिकड़म का चरित्र ही यह है कि वह कब छल कर जाए, आपको पता भी नहीं चलता।
ऐसे में रणनीति यह बनती है कि हर विपक्ष व असहमति को इतना गिरा दो, पतित कर दो कि उसके उठने की संभावना ही न बचे। विपक्ष, संवैधानिक संस्थाओं, स्वतंत्र जनमत, मीडिया, राज्य सरकारों आदि का ऐसा श्रीहीन अस्तित्व पहले कभी नहीं था। विपक्ष, जिसने 60-65 सालों तक देश चलाया है, अगर देशद्रोही, भारत का दुश्मन, विभाजनकारी ताकतों का सफरमैना तथा भ्रष्टाचारियों का सरदार होता, तो क्या आपको वैसा देश मिलता, जैसा मिला? आप चुनाव जीत सके, यही इस बात का प्रमाण है कि विपक्ष पर लगाए आपके आरोप बेबुनियाद हैं। विपक्ष दूध का धुला है, ऐसा कोई नहीं कहेगा, लेकिन आपका दूध शुद्ध है, ऐसा भी तो कोई नहीं कहता।
आप यह जरूर कह सकते हैं कि आजादी के बाद से अब तक विपक्ष ने जैसी सरकारें चलाईं, जैसा समाज बनाया उससे भिन्न व बेहतर सरकार व समाज हम बनाएंगे। आपको यह कहने का अधिकार भी है व उसका आधार भी है, क्योंकि आपने सारे देश में एकदम भिन्न विमर्श खड़ाकर अपने लिए चुनावी सफलता अर्जित की है, लेकिन देश आजाद ही 2014 में हुआ, ऐसा विमर्श बनाना व सत्ता की शक्ति से उसे व्यापक प्रचार दिलाना दूसरा कुछ भी हो, स्वस्थ्य लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा डालने से कम नहीं है। अब यह राजनीतिक शैली दूसरे भी सीख चुके हैं। वे भी इतनी ही कटुता से स्तरहीन विमर्श को बढ़ावा दे रहे हैं। लोकतंत्र में सार्वजनिक विमर्श का सुर व स्तर सत्तापक्ष निर्धारित करता है, विपक्ष उसका अनुशरण करता है। संसद जिस स्तर तक गिरती है, देश का सार्वजनिक विमर्श भी उतना ही गिरता है।
संसद के दोनों सदनों में अध्यक्ष का पहला व अंतिम दायित्व एक ही है : सदस्यों का विश्वास हासिल कर उनका संवैधानिक संरक्षण करना। प्रत्यक्ष या परोक्ष पक्षपात नैतिक पकड़ कमजोर करता है। 2014 से यह लगातार जारी है। यह सच छिप नहीं सकता कि विपक्ष संख्याबल में कमजोर है जिसे आप बराबरी का अधिकार व अवसर न देकर लगातार कमजोर करते जा रहे हैं। आपके ऐसे रवैये से विपक्ष का जो हो सो हो, सदन लगातार खोखला होता जा रहा है। वहां व्यक्तिपूजा, नारेबाजी, जुमलेबाजी तथा तथ्यहीनता का गुबार गहराता जा रहा है। ऐसी संसद, न तो सदन के भीतर और न बाहर, लोकतंत्र को मजबूत व समृद्ध कर सकती है। संविधान इस बारे में गूंगा नहीं है भले हम उसकी तरफ से मुंह फेरकर, निरक्षर व ह्यसूरदासह्ण बन गए हैं।
सांसदों के निलंबन अनुशासन के नाम पर किए गए हैं। अचानक इतने सारे अनुशासनहीन सांसद कहां से आ गए? पहले से सब ऐसे ही थे तो अब तक सदन चल कैसे रहा था? पहले से नहीं थे तो इन्हें अनुशासनहीन बनाने की स्थिति किसने पैदा की? हर निलंबित सदस्य दोनों अध्यक्षों की क्षमता और उनकी मंशा पर सवाल खड़े करता है। संसदीय लोकतंत्र के प्रति आपकी प्रतिबद्धता कैसी है, यह कैसे आंकेंगे हम? आपके व्यवहार से ही न ! विपक्ष के इतने सारे सदस्यों को निलंबित कर देने के बाद संसद में लगातार संवेदनशील बिल पेश किए जाते रहे, पारित भी किए जाते रहे, तो यह मंजर ही घोषणा करता है कि संसदीय लोकतंत्र का कोई शील आपको छू तक नहीं गया है।
विपक्षी सांसदों को निलंबित करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं था, सत्तापक्ष का ऐसा तर्क मान भी लें तो संसदीय लोकतंत्र की भावना के अनुरूप यह तो किया ही जा सकता था कि इतने निलंबन के बाद संसद की बैठक स्थगित कर दी जाती और विपक्ष के साथ नये सिरे से विमर्श किया जाता कि अब संसद का काम कैसे चलेगा? संसदीय लोकतंत्र का एकमात्र संप्रभु मतदाता है, जिसने वह संविधान रचा है जिससे आप अस्तित्व में आए हैं। उसने जैसे आपको चुनकर संसद में भेजा है वैसे ही उसने विपक्ष को भी चुनकर संसद में भेजा है। दोनों की हैसियत व अधिकार बराबर हैं और दोनों के संरक्षण की संवैधानिक जिम्मेवारी अध्यक्षों की है। इसलिए अध्यक्षों को यह भूमिका लेनी चाहिए थी कि भले किसी भी कारणवश इनका निलंबन हुआ हो, इनको चुनने वाले मतदाता का अपमान हम नहीं कर सकते, सो संसद स्थगित की जाती है।
ऐसा होता तो अब्दुल हमीद ‘अदम’ की तरह दोनों अध्यक्ष इस परिस्थिति को एक सुंदर मोड़ दे सकते थे कि ‘शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप, महफिल में इस खयाल से फिर आ गया हूं मैं।’ इसकी जगह ऐसा रवैया अपनाया गया कि जैसे बिल्ली के भाग से छींका टूटा हो। क्या अब संसद में कौन रहेगा, इसका फैसला मतदाता नहीं, संसद का बहुमत करेगा? यह संविधान की लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन है। यह तो नई ही स्थापना हो गई कि विपक्ष-विहीन संसद वैध भी है और हर तरह का निर्णय करने की अधिकारी भी। फिर संसद की कैसी तस्वीर बनती है और संविधान का क्या मतलब रह जाता है? इसका जवाब इस संसद के पास तो नहीं है।