दुनिया के ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहे हैं या यों कहें कि वे खत्म हो रहे हैं, वह भयावह आपदाओं का संकेत है। दुनिया के वैज्ञानिकों ने आशंका जतायी है कि जलवायु परिवर्तन की मौजूदा दर यदि इसी प्रकार बरकरार रही तो इसमें कोई दो राय नहीं कि इस सदी के अंत तक दुनिया के दो तिहाई ग्लेशियरों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। यह आशंका वैज्ञानिकों ने अपनी सोच से भी ज्यादा तेजी से पिघल रहे ग्लेशियरों के कारण उनके खत्म होने की स्थिति के अध्ययन के उपरांत व्यक्त की है। उनके अनुसार यह भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। असलियत में हम कहें कुछ भी, लेकिन यह कटु सत्य है कि हम दुनिया के बहुत सारे ग्लेशियरों को खोते चले जा रहे हैं। दुख तो इस बात का है कि इस खतरे के प्रति हमारा मौन समझ से परे है। जबकि हमारे पास ग्लेशियरों के पिघलने को सीमित करने की और उसमें अंतर पैदा करने की क्षमता है।
बडे़ ग्लेशियरों के मामले में इसकी संभावना ज्यादा है जबकि छोटे ग्लेशियरों के मामले में बहुत देर हो चुकी है। असली खतरा यह है और सबसे बड़ी चिंता की बात यह भी कि यदि दुनिया आने वाले वर्षो में वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने में कामयाब भी रहती है, तब भी लगभग आधे से ज्यादा ग्लेशियर गायब हो जायेंगे या यों कहें कि मिट जायेंगे।
क्योंकि अधिकतर छोटे ग्लेशियर तो धीरे-धीरे विलुप्ति की ओर बढ़ ही रहे हैं। गौरतलब है कि तापमान के कई डिग्री तक गर्म होने की सबसे खराब स्थिति में दुनिया के तकरीबन 83 फीसदी ग्लेशियर वर्ष 2100 तक पिघल कर खत्म हो जायेगें। इसका खुलासा जर्नल साइंस में प्रकाशित कानेंगी मेलन यूनिवर्सिटी और अलास्का फेयरबैंक्स यूनिवर्सिटी के अध्ययन से हुआ है।
अध्ययन की मानें तो पूर्व औद्योगिक काल से दुनिया अब 2.7 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की ओर अग्रसर है। इसका अर्थ यह है कि साल 2100 तक दुनिया के ग्लेशियरों का 32 फीसदी हिस्सा यानी 48.5 ट्रिलियन मीट्रिक टन बर्फ पिघल जायेगी। इससे समुद्र के जल स्तर में 115 मिलीमीटर की बढ़ोतरी होगी।
उस हालत में जबकि दुनिया के समुद्रों का जल स्तर पहले से ही बर्फ की पिघलती चादरों और गर्म पानी से बढ़ रहा है। यह स्पष्ट है कि यदि ग्लेशियरों से समुद्र के जल स्तर में 4.5 इंच की भी बढ़ोतरी होती है तो समूची दुनिया के एक करोड़ से भी अधिक लोग उच्च ज्वार रेखा से नीचे होंगे।
तात्पर्य यह कि समुद्र के तटीय इलाकों में रहने-बसने वाले लोगों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। उस हालत में यह भी ध्यान में रखना होगा कि जलवायु परिवर्तन के चलते 20वीं सदी में समुद्र के जल स्तर में लगभग चार इंच की वृद्धि हुयी है।
दरअसल इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दुनिया के 2,15,000 भूमि आधारित ग्लेशियरों की जांच में विभिन्न स्तर की ताप बढ़ोतरी का इस्तेमाल कर कम्प्यूटर सिमुलेशन के माध्यम से पता लगाया कि कितने ग्लेशियर गायब हो जायेंगे, कितनी टन बर्फ पिघलेगी और उसके परिणाम स्वरूप समुद्र का जल स्तर कितना बढ़ेगा।
जहां तक हिमालयी क्षेत्र का सवाल है, एक अध्ययन के मुताबिक हिमालयी ग्लेशियरों को साल 2000 से 2020 के दौरान तकरीबन 2.7 गीगाटन का नुकसान हुआ है जो करीब 57 करोड़ हाथियों के बराबर है। इस अध्ययन की मानें तो उपग्रहों से पानी के नीचे होने वाले ग्लेशियरों के परिवर्तन को देखने में असमर्थ होने के कारण हिमखण्डों को बहुत बड़े पैमाने पर पहुंच रहे नुकसान को 2000 से 2020 तक काफी कम करके आंका गया।
ब्रिटेन और अमरीका की अध्ययन टीम के अनुसार पिछले आंकलनों में वृहद हिमालयी क्षेत्र में पिघलकर गिर रहे ग्लेशियरों के कुल नुकसान को 6.5 फीसदी कम करके आंका गया था। जबकि इस नुकसान का आंकड़ा 2.7 गीगाटन से भी काफी ज्यादा था। यदि हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के अध्ययन के बाद खुलासा हुआ है कि यहां विभिन्न इलाकों में अधिकतर ग्लेशियर अलग- अलग दर पर पिघल रहे हैं।
सरकार ने भी माना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय ग्लेशियर के पिघलने का न सिर्फ हिमालय की नदी प्रणाली के बहाव पर प्रतिकूल गंभीर प्रभाव पड़ेगा बल्कि इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं में भी काफी बढ़ोतरी होगी जिसका आम जनमानस पर व्यापक दुष्प्रभाव पड़ेगा। सरकार ने इसका खुलासा ग्लेशियरों का प्रबंधन देखने वाली संसद की स्थायी समिति को किया है।
संसद की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण विभाग ने हिमालय में ग्लेशियरों के लगातार पिघलना, पीछे खिसकना और साल के दौरान ग्लेशियर के क्षेत्र में अनुमानत: कमी की समस्या के बारे में बताया गया कि भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण में नौ ग्लेशियरों के द्रव्यमान संतुलन में पाया गया है कि इस हिमालय अंचल में ग्लेशियर विभिन्न क्षेत्रों में अलग- अलग दर से अपने स्थान से खिसक रहे हैं।
या यूं कहें कि वे अलग- अलग गति से पिघल रहे हैं। इससे इस अंचल में हिमालयी नदी प्रणाली का प्रवाह गंभीर रूप से प्रभावित होगा बल्कि यह ग्लेशियर झील के फटने की घटनाएं, हिमस्खलन और भूस्खलन जैसी आपदाओं के जन्म का कारण भी बनेगा।
यही एक आशंका हो, वह भी नहीं है। हिमालय के कश्मीर और लद्दाख इलाके के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। वहां बर्फ गायब हो रही है। अगर बीते 60 सालों का जायजा लिया जाए तो और कश्मीर के ही ग्लेशियरों ने 23 फीसदी जगह छोड़ दी है।
बहुतेरे जगहों पर बर्फ की परत छोटी और पतली हो गयी है। कश्मीर का सबसे बड़ा ग्लेशियर कोल्हाई तेजी से पिघल रहा है। हरमुख की पहाड़ियों में स्थित थाजबास, होकसर, शीशराम और नेहनार जैसे ग्लेशियर भी लगातार पिघल रहे हैं।
ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने की रफ्तार को देखते हुए यह आशंका बलवती हो गयी है कि इससे बनने वाली झीलें से निचले इलाकों में कभी भी बाढ़ का सामना करना पड़ सकता है जो भारी जानमाल के नुकसान का कारण बनेगा। इससे भारी मात्रा में भूस्खलन के खतरों को नकार नहीं जा सकता।
जहा तक कोल्हाई ग्लेशियर का सवाल है, इसके पिघलना की रफ्तार से इसके अस्तित्व पर संकट तो मंगरा ही रहा है, कश्मीर में सूखा और जल संकट की आहट को दरगुजर नहीं किया जा सकता। दरियाए झेलम में पानी का मुख्य स्रोत इसी ग्लेशियर से निकलने वाली जलधारा है।
वैज्ञानिक इसके पीछे तापमान में बढ़ती अभूतपूर्व तेजी, जंगलों का तेजी से हो रहा कटान, पहाड़ी जल स्रोतों पर बढ़ता मानवीय दखल, अतिक्रमण, वाहनों की बतहाशा बढ़ो़तरी और कंक्रीट के जंगलों में अंधाधुंध हो रही बढ़ोतरी है।
इससे सूखा, बाढ़ की समस्याओं में तो इजाफा होगा ही, सिंचाई व पीने के पानी के संकट को नकारा नहीं जा सकता। साथ ही इस इलाका से निकलने वाली नदियों के जलस्तर में भी भारी कमी भी होगी। ऐसी स्थिति में यह पूरा इलाका पानी के लिएत्राहि-त्राहि करने को विवश होगा जो भयावह खतरे का संकेत है।
What’s your Reaction?
+1
+1
2
+1
+1
+1
+1
+1