विश्वामित्र का महर्षि वशिष्ठ से विवाद रहता था। विश्वामित्र बहुत विद्वान थे। पहले राजा थे, फिर साधु हो गए। महर्षि वशिष्ठ सदा उनको राजर्षि कहते थे। विश्वामित्र कहते थे, मैंने ब्राह्मणों जैसे सभी कर्म किए हैं, मुझे ब्रह्मर्षि कहो। वशिष्ठ जी मानते नहीं थे, कहते थे, तुम्हारे अंदर क्रोध बहुत है, तुम राजर्षि हो।
विश्वामित्र वास्तव में बहुत क्रोधी थे। क्रोध में उन्होंने सोचा, मैं इस वशिष्ठ को ही मार डालूंगा, फिर मुझे महर्षि की जगह राजर्षि कहने वाला कोई रहेगा ही नहीं। ऐसा सोचकर एक कटार लेकर उस वृक्ष पर जा बैठे जिसके नीचे बैठकर महर्षि वशिष्ठ अपने शिष्यों को पढ़ाते थे। शिष्य आए, वृक्ष के नीचे बैठ गए। वशिष्ठ ऋषि आए, अपने आसन पर विराजमान हो गए। शाम हो गई। पूर्व के आकाश में पूर्णमासी का चांद निकल आया।
तभी एक विद्यार्थी ने नए निकले हुए चांद की और देखकर कहा, कितना मधुर चांद है! कितनी सुन्दरता है! वशिष्ठ जी ने चांद की और देखा; बोले, यह चांद सुंदर अवश्य है, परंतु ऋषि विश्वामित्र इससे भी अधिक सुंदर हैं। यदि उनके अंदर क्रोध का कलंक न हो तो वे सूर्य की भांति चमक उठें। विद्यार्थी ने कहा, वे तो आपके शत्रु हैं, जहां तहां आपकी निंदा करते हैं। ऋषि वशिष्ठ बोले, मैं जानता हूं, मैं यह भी जानता हूं कि वे विद्वान हैं, मेरा माथा उनके चरणों में झुकता है।
वृक्ष पर बैठे विश्वामित्र इस बात को सुनकर चौंक पड़े।वे बहुत शमिंर्दा हुए कि मैं तो वशिष्ठ जी को मारने आया था और वे मेरी इतनी प्रशंसा कर रहे हैं। वे नीचे कूद पड़े। वशिष्ठ जी के चरणों में गिरकर बोले, मुझे क्षमा करो! वशिष्ठ जी ने प्यार से उन्हें उठाकर बोले, उठो ब्रह्मर्षि! विश्मामित्र ने आश्चर्य से कहा, ब्रह्मर्षि? आपने मुझे ब्रह्मर्षि कहा? वशिष्ठ जी बोले, आज से तुम ब्रह्मर्षि हुए। महापुरुष! तुम्हारे अंदर जो चांडाल (क्रोध) था, वह निकल गया।
प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा