चन्द्र प्रभा सूद
भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध के समय अपने कर्तव्य से च्युत हो रहे अर्जुन को जो सारगर्भित उपदेश दिया था, वह सम्पूर्ण ज्ञान ‘श्रीमद्भावश्वीता’ ग्रन्थ में है। श्रीकृष्ण ने बताया है कि जो बीत गया है और जो भविष्य के गर्भ में है, दोनों की ही चिन्ता व्यक्ति को नहीं करनी चाहिए, उन्हें छोडकर अपने वर्तमान पर मनुष्य को पूरा ध्यान देना चाहिए। जो समय व्यतीत हो चुका है, उसमें क्या किया था अथवा क्या नहीं किया था उसके लिए अनावश्यक प्रलाप करने से कोई लाभ नहीं होता। हर समय अपने अतीत की सफलताओं का ढिंढोरा पीटने से अथवा असफलताओं का रोना रहते रहने से भला नहीं होता। न ही उसमें किसी की कोई रुचि होती है। उचित यही है कि भूतकाल में कई गई गलतियों से शिक्षा लेकर मनुष्य आगे बढ़ने का प्रयास करता रहे। जो भी अच्छे कार्य उस समय किए थे उन्हें आगे बढ़ाते रहना चाहिए।
भविष्य के गर्भ में क्या है? इससे सभी अनजान हैं। इसलिए सारा समय बस दिवास्वप्न देखते रहना या ख्याली पुलाव पकाते रहने को कोई बुद्धिमत्ता नहीं कहा जा सकता। हाँ, दीर्घकालिक योजनाएँ बनानी चाहिए और उन्हें क्रि यान्वित करते रहना चाहिए, वे निश्चित ही यथासमय फलदायी हो जाएंगी। इसलिए मनुष्य को वर्तमान पर अधिक ध्यान देना चाहिए। तभी वह मनचाही सफलता प्राप्त कर सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण समझाते कहते हैं कि उसी व्यक्ति का जन्म इस पृथ्वी लेना सफल होता है जिसके कारण उसके वंश की उन्नति होती है। वैसे यह संसार असार है, यहां कुछ भी स्थायी नहीं है। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। इस जन्म और मृत्यु के बीच झूलता मनुष्य अपने जीवन को सफल बना सकता है। वह यदि अपने सम्पूर्ण दायित्वों का निर्वहण करता है तो उसका यश बढ़ता है, उसके कुल-परिवार का नाम रौशन होता है। उसके नाम से उसके बन्धु-बान्धव जाने जाते हैं।
इसके विपरीत जो मनुष्य कुमार्गगामी होता है अथवा अपने नैतिक दायित्वों से मुंह मोड़ लेता है, वह अपने कुल को हानि पहुंचाता है। ऐसा व्यक्ति कुलघातक कहा जाता है। ऐसे नालायक व्यक्ति को घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों और समाज से तिरस्कार ही मिलता है। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि उसके ही अपने माता-पिता उससे सारे सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। वे अपनी धन-सम्पत्ति से भी उसे बेदखल कर देते हैं। बताइए जो अपने घर-परिवार तथा अपने बन्धु-बान्धवों का नहीं बन सका, वह अपने कुल का उद्धार क्या करेगा?
मानव जीवन में बहुधा कुछ ऐसे क्षण आते रहते है जब वह चारों तरफ से समस्याओं से घिर जाता है। वहां से निकलने का उसे कोई मार्ग नहीं सुझाई देता। उस समय जब उसका विवेक कोई निर्णय नहीं ले पाता। तब सब कुछ नियति के हाथों में सौंपकर उसे अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकताओं पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसके पास और कोई उपाय भी शेष नहीं बचता। वास्तव में यश-अपयश, हार-जीत, दुख-सुख, हानि-लाभ, जीवन-मृत्यु आदि का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है। मनुष्य को सदा ही विश्वासपूर्वक उस मालिक के निर्णय का सम्मान करते हुए अपना सिर उसके सामने झुका देना चाहिए।
संसार में हर व्यक्ति को सब कुछ अपना मनचाहा नहीं मिलता। संसार में रहते हुए कुछ लोग उसकी प्रशंसा करते हैं तो दूसरी ओर कुछ लोग उसकी आलोचना करते हैं। दोनों ही अवस्थाओं में मनुष्य को लाभ होता है। एक तरह के लोग जीवन में उसे प्रेरित करते रहते हैं और दूसरे प्रकार के लोग उसके अन्तस में परिवर्तन लेकर आते हैं। मनुष्य जब तक स्वयं न चाहे उसे किसी प्रकार की प्रशंसा या निंदा से कोई अन्तर नहीं पड़ता। जब उसका अपना मन कमजोर पड़ता है तब उसे सभी से ही कष्ट होने लगता है।
परिस्थितियां कितनी भी विकट क्यों न हो जाएं, मनुष्य चाहे चारों ओर से शत्रुओं या परेशानियों क्यों न घिर जाए, उसे अपने विवेक से काम लेना चाहिए। अपने विवेक का दामन उसे नहीं छोड़ना चाहिए। यदि परिस्थितियां अपने कंट्रोल से बाहर हो जाएं तो उस समय सिर पकड़कर नहीं बैठ जाना चाहिए। न ही उसे हाय तौबा मचाते हुए आसमान सिर पर उठा लेना चाहिए। उस मालिक पर पूर्ण विश्वास करते हुए स्वयं को तथा अन्य सब दुखों- तकलीफों को उस पर छोड़ देना चाहिए। वह पलक झपकते सभी कष्टों का निवारण करके मनुष्य को उभार देता है। मनुष्य को हर अवस्था में उस मालिक का कृतज्ञ होना चाहिए। एक वही है जो कोई अहसान जताए बिना उसके हर कदम पर उसके साथ रहता है। मनुष्य को अपने सभी कर्म उसे अर्पित करके, उसके फल की कामना से मुक्त हो जाना चाहिए। इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है।