Sunday, September 8, 2024
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इस्राइल फलस्तीन पर गांधी

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Samvad 52


Kumar Parshantसाल भर से ज्यादा हुए, मन बेतरह घायल है। कान युक्रेन की चीख से गूंजते रहते हैं। अपनी असहायता का तीखा बोध लगातार चुभता रहता है। यह शर्म भी कम नहीं चुभती कि हमारा देश भी नागरिकों की इस जघन्य हत्या में भागीदार है और युक्रेन व रूस में बहते खून में से तेल छानकर जमा करने में लगा है। यह सब था कि तभी 7 अक्तूबर 2023 आया। फलस्तीनी हमास ने इस्राइल पर ऐसा पाशविक हमला कर दिया जिसने शर्म से झुके माथे पर टनों बोझ लाद दिया। शर्म से झुका सर लगातार झुकता ही जा रहा है क्योंकि यह गुस्सा नहीं, आत्मग्लानि का बोझ है। असहमति,विवाद, गुस्सा, प्रतिद्वंद्विता, बदला, घृणा, कायरता व क्रूरता सबकी अपनी जगह है, लेकिन इंसानियत की भी तो जगह है न! सिकुड़ते-सिकुड़ते वह जगह अब सांस लेने लायक भी नहीं बची है। फलस्तीन-इस्राइल समस्या का इतिहास बहुत लंबा व पुराना है – उतना ही पुराना जितना मानव जाति की मूढ़ता का इतिहास। यहां उसे दोहराने की जरूरत नहीं है। हमास ने जिस तरह इस्राइल पर हमला किया वह उसकी मूढ़ता, हृदयहीनता व अदूरदर्शिता का प्रमाण है। हमास के शीर्ष राजनीतिक नेता खालिद मशाल ने कहा कि हम ऐसी चोट मारना चाहते थे कि इस्राइल बिलबिला जाए; और वही हुआ, लेकिन खालिद को क्या अब यह नहीं दीख रहा कि दोनों तरफ के सामान्य निर्दोष नागरिक बिलबिला रहे हैं? आज उनके साथ कोई नहीं है, सिवाय विनाश व मौत के !

एक बात यह भी कही जा रही है कि इस्राइल व अरब देशों में जैसी आर्थिक नजदीकियां बढ़ रही थीं, उसे तोड़ने के लिए फलस्तीन ने हमास द्वारा यह आत्मघाती कदम उठाया। अब अरबों के लिए इस्राइल की तरफ हाथ बढ़ाना संभव नहीं रह जाएगा। यह सच हो तो भी यह कूटनीति कितनी अमानवीय है। प्रधानमंत्री ने तुरंत बयान दे डाला कि भारत इस्राइल के साथ खड़ा है। ऐसा कहने का अधिकार उन्हें कैसे मिला? आजादी के पहले से इस विवाद के संदर्भ में भारत की भूमिका स्पष्ट रही है। महात्मा गांधी ने स्वयं इस मामले में हमारी विदेश-नीति की बुनियाद रख दी थी। उसे बदलने का अधिकार केवल भारत की जनता को है, किसी भी सरकार को नहीं कि वह अपने खोखले बहुमत के घमंड में राष्ट्रीय नीतियों से खिलवाड़ करे। प्रधानमंत्री ने जो कह दिया, अब विदेश मंत्रालय दबी-ढकी जुबान में उस पर लीपापोती कर रहा है। उसने बयान दिया है कि भारत हमास की हिंसा का निषेध करता है, लेकिन फलस्तीनों की आजादी पर किसी भी तरह के हमले को समर्थन नहीं देता।

1938 में गांधी ने एक विस्तृत आलेख में भारत का रुख साफ कर दिया था : ‘मेरी सारी सहानुभूति यहूदियों के साथ है। मैं दक्षिण अफ्रीका के दिनों से उनको करीब से जानता हूं। उनमें से कुछ के साथ मेरी ताउम्र की दोस्ती है और उनके ही माध्यम से मैंने उनके साथ हुई ज्यादतियों की बावत जाना है। ये लोग ईसाइयत के अछूत बना दिए गये हैं। अगर तुलना ही करनी हो तो मैं कहूंगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने जैसा व्यवहार किया है, वह हिंदुओं ने अछूतों के साथ जैसा व्यवहार किया है, उसके करीब पहुंचता है। दोनों के साथ हुए अमानवीय व्यवहारों के संदर्भ में धार्मिक आधारों की बात की जाती है।

निजी मित्रता के अलावा भी यहूदियों से मेरी सहानुभूति के व्यापक आधार हैं, लेकिन उनसे मेरी गहरी मित्रता भी मुझे न्याय का पक्ष देखने से रोक नहीं सकती और इसलिए यहूदियों की अपने राष्ट्रीय घर की मांग मुझे जंचती नहीं है। इसके लिए बाइबल का आधार ढूंढा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फलस्तीन लौटने की बात उठाई जा रही है, लेकिन जैसे संसार में सभी लोग करते हैं वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जन्मे हैं और जहां से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं, उसे ही अपना घर मानें? फलस्तीन उसी तरह अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का है या कि फ्रांस फ्रांसीसियों का है। यह गलत भी होगा और अमानवीय भी कि यहूदियों को अरबों पर जबरन थोप दिया जाए। आज फलस्तीन में जो हो रहा है उसका कोई नैतिक आधार नहीं है।

पिछले महायुद्ध के अलावा उसका कोई औचित्य नहीं है। गवीर्ले अरबों को सिर्फ इसलिए दबा दिया जाए, ताकि पूरा या अधूरा फलस्तीन यहूदियों को दिया जा सके, तो यह एकदम अमानवीय कदम होगा। उचित तो यह होगा कि यहूदी जहां भी जन्मे हैं और कमा-खा रहे हैं वहां उनके साथ बराबरी का सम्मानपूर्ण व्यवहार हो। जैसे फ्रांस में जन्मे ईसाई को हम फ्रांसीसी मानते हैं वैसे ही फ्रांस में जन्मे यहूदी को भी फ्रांसीसी माना जाए; और अगर यहूदियों को फलस्तीन ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटाया जाए जहां वे आज हैं? या कि वे अपनी मनमौज के लिए अपना दो घर चाहते हैं? अपने लिए एक राष्ट्रीय घर के उनके इस शोर को बड़ी आसानी से यह रंग दिया जा सकता है कि इसी कारण उन्हें जर्मनी से निकाला जा रहा था।’

अमरीकी व पश्चिमी खेमे की कुल कोशिश यही है कि युद्ध भी हमारी मुट्ठी में रहे और विराम भी! दोनों ही कमाई के अंतहीन अवसर देते हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे विफल प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने मौके का फायदा उठाकर इस्राइल के राजनीतिक नेतृत्व को अपने साथ ले लिया है। यह घटिया अवसरवादिता है। जब पूरा इस्राइल उनके खिलाफ खड़ा था और वे न्यायपालिका को अपनी मुट्ठी में करने का भद्दा खेल खेल रहे थे, तब उनके हाथ ऐसा अवसर आ गया जिसने उन्हें नई बेईमानी का मौका दे दिया। यह पूरी कहानी बेईमानी से ही शुरू हुई थी और बेईमानी से ही आज तक जारी है। यह नया भारत है जो इस बेईमानी में साझेदारी कर रहा है। ऐसे में रास्ता क्या है?

5 मई 1947 को रायटर के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कैंपबेल ने गांधी का ध्यान फिर से इस तरफ खींचा : ‘फलस्तीनी समस्या का आप क्या उपाय देखते हैं?’ गांधी : ‘यह ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है। अगर मैं यहूदी होता तो मैं उनसे कहता : ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो। ऐसा करके तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे, जो वैसे न्याय का एक मामला भर है। अगर यह मात्र राजनीतिक खींचतान है तब तो मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ हो रहा है। आखिर यहूदियों को फलस्तीन के पीछे इस तरह क्यों पड़ जाना चाहिए? यह महान जाति है। इसके पास महान विरासतें हैं। अगर इसके पीछे उनकी कोई धार्मिक प्यास है तब तो निश्चित ही इस मामले में आतंक की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यहूदियों को आगे बढ़कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमरीकी, किसी की भी सहायता के बिना, यहोवा के उत्तराधिकारियों को उनसे मिली सीख और उनकी ही विरासत संभालनी चाहिए।’

गांधी सत्ता की यह भूख पहचान रहे थे और इसलिए कैंपबेल से कहते-कहते कह गए : ‘यह एक ऐसी समस्या बन गया है, जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है।’ गांधी ने जो आशंका प्रकट की थी, उसके करीब 76 साल पूरे होने को हैं, लेकिन युद्ध व विराम के बीच पिसते फलस्तीनी-इस्राइली किसी हल के करीब नहीं पहुंचे हैं। विश्व की महाशक्तियां व दोनों पक्षों के सत्ताधीश पीछे हट जाएं तो येरूशलम की संतानें अपना रास्ता खुद खोज लेंगी।


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