Thursday, June 8, 2023
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शिक्षा और सुरक्षा से अभी दूर हैं बालिकाएं

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24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस है। इसी दिन अंतरराष्ट्रीय शिक्षा दिवस भी है। इसके दो दिन बाद 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस है। तीनों ही दिवसों को धूमधाम से मनाया जाता है। कई सार्वजनिक समारोहों का आयोजन होता है। मंच पर भाषणों का दौर चलता है। रैलियां निकलती हैं, नारे लगते हैं। अगले दिन सब कुछ थम जाता है। किसी को कुछ याद नहीं रहता और सभी सब कुछ भूल जाते हैं। 24 जनवरी और 26 जनवरी के बीच एक बड़ा सवाल भी खड़ा होता है। क्या हम बालिकाओं के लिए आज तक ऐसा कर पाए हैं कि बालिका दिवस मना सकें? आजादी के इतने सालों बाद भी बालिकाओं-महिलाओं को लेकर हमारी उपलब्धियां ऐसी हैं कि जिनका हम गणतंत्र दिवस पर बखान कर सकें? देश में बालिकाओं-महिलाओं को लेकर किसी भी मोर्चे पर बहुत ज्यादा अच्छी स्थिति नहीं है, इसके बीच क्या हमें गणतंत्र दिवस मनाने का हक रह जाता है?

देश में अगर लिंगानुपात देखा जाए तो हालात बेहद निराशाजनक हैं। 2011 की जनगणना के हिसाब से देश में 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएं हैं। यह आंकड़े राष्ट्रीय स्तर पर औसतन हैं। अगर हम राजस्थान और हरियाणा जैसे स्थानों पर नजर डालें तो यहां हालात बेहद भयावह हैं। लैंसेट पत्रिका में छपे एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1980 से 2010 के बीच देश में गर्भपातों की संख्या 42 लाख से एक करोड़ 21 लाख के बीच रही है।

वहीं सेंटर फॉर सोशल रिसर्च का अनुमान है कि बीते 20 वर्ष में देश में कन्या भ्रूण हत्या के कारण एक करोड़ से अधिक बच्चियां जन्म नहीं ले सकीं। देश की आजादी के समय राष्ट्रीय स्तर पर महिला साक्षरता दर महज 8.6 प्रतिशत थी, 2011 की जनगणना के अनुसार यह 65.46 प्रतिशत दर्ज की गई। लड़कियों के लिए स्कूलों में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) प्राथमिक स्तर पर 24.8 प्रतिशत था, जबकि उच्च प्राथमिक स्तर (11-14 वर्ष के आयु वर्ग) पर यह महज 4.6 प्रतिशत ही था।

वर्ष 2000 से लेकर वर्ष 2005 तक की अवधि के दौरान लड़कियों के बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने की दर में 16.5 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। केरल में सबसे ज्यादा महिला साक्षरता दर 92 प्रतिशत है, जबकि राजस्थान में यह महज 52.7 प्रतिशत है, जो भारत में सबसे कम है। घनी आबादी वाले राज्यों उत्तर प्रदेश में महिला साक्षरता दर 59.3 प्रतिशत और बिहार में 53.3 प्रतिशत है। लक्षद्वीप, मिजोरम, त्रिपुरा और गोवा में महिला साक्षरता की स्थिति अच्छी है।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़ों पर नजर डालें तो अभी तक केवल 69 फीसदी विद्यालयों में ही शौचालय की व्यवस्था है। ग्रामीण वातावरण को देखते हुए इस समस्या के कारण अभिभावक लड़कियों को स्कूल जाने से रोक देते हैं, जिससे लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही रुक जाती है और वे शिक्षा से वंचित हो जाती हैं।

यह स्थिति तब भी बनी हुई है, जबकि आज देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो चुका है और आम जनता में शिक्षा के महत्व को लेकर जागरुकता बढ़ती जा रही है। आज ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोग अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने की ख्वाहिश रखने लगे हैं। नए भारत की यह तस्वीर है कि ग्रामीण लड़कियां अब सिर्फ घर के कामों में हाथ नहीं बंटा रहीं, बल्कि वे साइकिल पर बैठकर स्कूल की तरफ जा रही हैं।

इन सबके बावजूद हमारे सामने बड़ा सवाल यह है कि हम देश में जैसी शिक्षा दे रहे हैं, क्या वह गुणवत्तापूर्ण है? यह प्रश्न शिक्षा व्यवस्था के प्रति प्राप्त उन तमाम नकारात्मक आंकड़ों के संदर्भ में उठना वांछित है। वहीं महिला सुरक्षा के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के भरसक प्रयास भी महिलाओं को सुरक्षित करने में नाकाफी हैं। सरकारें महिला सुरक्षा में जो भी कदम उठा लें, लेकिन आधी आबादी को मजबूत साइबर सुरक्षा देना आज भी पुलिस और सरकारों के लिए बड़ी चुनौती है।

सार्वजनिक स्थलों, घरों और कार्यस्थलों पर महिलाओं के साथ घट रहे अपराधों के समानांतर अब महिलाओं पर बढ़ता साइबर अपराध पुलिस की नई मुसीबत बन चुका है। दिल्ली सहित देश के अन्य राज्यों में लगातार महिलाओं के प्रति साइबर बुलिंग, हैकिंग व अन्य साइबर अपराध की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। देश में हर साल महिलाओं के खिलाफ साइबर अपराध की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भयावह हैं। 2018 में देश में महिलाओं के खिलाफ 1,239 मामले साइबर अपराध के दर्ज हुए हैं।

पिछले तीन सालों के आंकड़ों से तुलना करें तो महिलाओं के खिलाफ साइबर अपराध की घटनाओं ने सीधे दोगुनी गति से बढ़त बनाई है। 2016 में देश में महिलाओं के खिलाफ साइबर अपराध की 930 घटनाएं हुर्इं तो 2017 में यह आंकड़ा 610 हो गया, लेकिन 2018 में इस आंकड़े ने सीधे 1,239 का रिकॉर्ड बना लिया। 140 देशों में किए गए अध्ययन के आधार पर ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट कहती है कि भारत में कुपोषित बच्चों की स्थिति काफी खराब है। देश की लगभग एक तिहाई महिलाएं बुरी तरह से कुपोषित हैं। देश में खून की कमी की शिकार महिलाओं की संख्या तो आधे से भी ज्यादा है।

इसका सीधा मतलब है कि देश में पैदा होने वाला हर तीसरा बच्चा जन्म से ही शारीरिक कमियां लेकर संसार में आ रहा है और गरीबी-कुपोषण के दलदल में फंस रहा है। कुपोषित बच्चों में सही शारीरिक विकास न होने से कार्यक्षमता नीची रहती है यानी ये कुपोषण-गरीबी का एक ऐसा दुष्चक्र है, जो देश का पीछा नहीं छोड़ रहा है। अगर हम बालिकाओं और महिलाओं को शिक्षा, सुरक्षा और सुरक्षा का माहौल नहीं दे पा रहे हैं तो हमें विचार करने की जरूरत है।


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