Monday, May 29, 2023
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Homeसंवादचला गया अपनी धुन का धनी का संपादक

चला गया अपनी धुन का धनी का संपादक

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नवें दशक की बात है। पत्रकारिता की ‘पढ़ाई’ के बाद रोजी-रोटी के लिए किसी भी मीडिया संस्थान का दरवाजा नहीं खोल पा रहा था, इसलिए निराशा ने बुरी तरह जकड़ रखा था। ऐसे में अयोध्या (उन दिनों फैजाबाद) से प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा से, जिसकी जनपक्षधरता की उन दिनों उसके अंचल में तूती बोलती थी, इंटरव्यू का बुलावा आया तो भी कोई उत्साह नहीं जागा। सोचा, फिर वही अजीबोगरीब सवाल-जवाब होंगे, वही ‘जरूरत होगी, तोे बुला लेंगे आपको’ और फिर वही निराश करने वाला अंतहीन इंतजार। लेकिन यह क्या, सौ किलोमीटर की यात्रा कर फैजाबाद के चौक में बजाजा स्थित जनमोर्चा के दफ्तर पहुंचकर किसी से पूछा कि संपादक जी (यानी शीतला सिंह) कहां बैठते हैं तो उसने इशारे से बताया-देख नहीं रहे, सामने वाली कुर्सी पर बैठे हैं।

हुंह! यह कैसे संपादक हैं? न ढंग का कमरा, न केबिन, न इंतजार करती मिलने वालों की भीड़, न उसे रोकने को चपरासी, न समय लेने और नेमस्लिप भिजवाने का झंझट! संपादक हैं कि…? मैंने मन ही मन सोचा और अंदाजा लगाया कि यह बंदा जरूर किसी और मिट्टी का बना हुआ है। बहरहाल, उनकी कुर्सी के सामने जा खड़ा हुआ तो उन्होंने बैठने को तो नहीं कहा, लेकिन भरपूर मुसकुराए।

तब तक मुझे कई तरह की मुस्कानों का तजुर्बा हो चुका था, लेकिन यह उनकी मुस्कान मुझे कुटिलता से एकदम रहित लगी, निर्मल और उन्मुक्त। मैंने परिचय दिया तो बोले-हां, बायोडाटा देख लिया है आपका। दिन रात लिखने-पढ़ने वाले आदमी लगते हैं आप। लेकिन जनमोर्चा में आपकी नौकरी आपके इस सवाल के जवाब पर निर्भर करेगी कि आपकी शादी हुई है या नहीं।

जाड़े के दिन थे वे लेकिन उनकी बात सुनकर मुझे पसीना छूटने लगा। हिम्मत करके कहा-शादी तो मेरी हो गई है सर, लेकिन जनमोर्चा की नौकरी का मेरी शादी से भला क्या संबन्ध। वे हंसे और बोले-नहीं मालूम कि शादीशुदा आदमी कितना जिम्मेदार होता है! आज्ञापालन की कितनी आदत होती है उसे।

बाद में कई साल नौकरी कर चुकने के बाद पता चला मुझे, कि उस रोज वे मुझे नहीं अपने गुरू महात्मा हरगोविन्द को ‘सता’ रहे थे, जिन्होंने इसलिए शादी नहीं की थी कि उन्हें लगता था कि शादी से स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी सक्रिय भागीदारी में बाधा आयेगी। गजब यह कि बाल-बच्चेदार शीतला सिंह उनके पट्ट शिष्य थे।

बाद में मुझे शीतला सिंह के व्यक्तित्व की दो और बातें बहुत अच्छी लगीं। पहली यह कि उनसे किसी भी समय किसी भी काम के लिए मिला जा सकता था और दूसरी यह कि किसी भी मामले में उनकी आंखों से आंखें मिलाकर कहा जा सकता था कि मैं आपसे सहमत नहीं हूं। और एक दिन तो गजब ही हो गया।

एक बड़े दैनिक ने मुझसे उनका इंटरव्यू करने के लिए कहा। मैंने इस बाबत उनसे बात की तो पहले तो उन्होंने चुटकी ली कि एक दिन मैंने आपका इंटरव्यू लिया था, अब आप मेरा लेंगे? न बाबा न, जानें क्या पूछ लें आप। फिर बड़ी मुश्किल से राजी भी हुए तो कहा-अपने सारे सवाल लिख लाओ।

मैं लिखकर ले गया तो कहा-अब इनका जवाब भी लिख डालो। मैं हतप्रभ-सा हो गया तो कहने लगे-दो दशक मेरे साथ काम करके भी मुझे नहीं समझ पाये तो तुम पर भी लानत है और मुझ पर भी। मरता क्या न करता, मैने जवाब भी लिखे और उन्हें दिखाने ले गया तो बोले-ये हुई न बात! थोड़े बहुत करेक्शन किये और मुझे लौटा दिया।

गत मंगलवार को अयोध्या के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली तो मैंने उनकी इन्हीं बातों से आईने में देखने की कोशिश की कि हिंदी की पत्रकारिता ने उनकी सांसों के साथ क्या-क्या खो दिया है और कितनी निर्धन होकर रह गई है। लेंकिन मैं अभी भी नहीं सोच पा रहा कि उनके द्वारा विकसित की गई अनूठी वस्तुनिष्ठ व प्रतिरोधी पत्रकारिता का आगे क्या होगा!

खासकर जब उनके ही अनुसार अब न पुराने वक्त की तरह समयदानी पत्रकार रह गए हैं, न ही त्यागी। बहरहाल, कोई साठ साल के उनके संपादन काल में ही जनमोर्चा ने अपनी हीरक जयंती मनाई और वे इतने लंबे कार्यकाल तक पद पर बने रहने वाले दुनिया के पहले सम्पादक बने।

उनका यह कार्यकाल 1962 में भारत चीन युद्ध के दौरान जनमोर्चा के एक संपादकीय को सरकार के युद्ध प्रयत्नों में बाधक करार देकर उसके संस्थापक सम्पादक महात्मा हरगोविन्द को जेल भेज दिये जाने के बाद की बेहद असामान्य परिस्थितियों में शुरू हुआ था।

वे कोई चार दशकों तक अयोध्या में समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया की परिकल्पना वाले रामायण मेलों के आयोजन के सूत्रधार और चार बार प्रेस कौंसिल आॅफ इंडिया के सदस्य भी रहे। अयोध्या विवाद की उग्रता के दिनों में एक के बाद एक चलते रहने वाले उसके समाधान के प्रयासों का हिस्सा होने के कारण वे उसकी रग-रग से वाकिफ हो चले थे।

उनकी यह वाकफियत ऐसी थी कि कई लोग उन्हें उस मामले का विशेषज्ञ करार देने लगे थे। प्रवाह के विपरीत तैरने और किसी भी तरह के दबाव में न आने की उनकी आदत उनके आखिरी क्षणों तक बनी रही। तब भी जब रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के बहाने देश को झुलसाता आ रहा सांप्रदायिक उन्माद हिंदी पत्रकारिता के कई दूषित प्रवाहों के साथ अयोध्या में उनकी और जनमोर्चा की देहरी तक आ पहुंचा।

उनकी एकमात्र इच्छा थी कि वे अपनी आखिरी सांस तक सक्रिय रहें और लंबे अरसे से बीमार होने के बावजूद उन्होंने अपनी दृढ इच्छाशक्ति से इसे संभव कर दिखाया। मंगलवार को अपने आखिरी दिन भी वे जनमोर्चा आए और लौटकर घर गए तो थोड़ी बेचैनी की शिकायत की और थोड़ी ही देर में इस दुनिया को अलविदा कह दिया।


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