कविता गहन अनुभूतियों का प्रखर-प्रशांत प्रकटीकरण है, सहकार समुच्चय है। वही कविता जीवंत और श्रेष्ठ कही जाएगी जिसमें अनुभूतियों का ताप गहरा एवं ऊंचा होता है, जिसमें संवेदनाओं के फलक पर अंकित चित्र अपनी जड़ों से जीवन सत्व और रस ले रहे होते हैं। जिसमें आमजन का स्वर पूरे आवेग एवं संवेग के साथ मुखरित हुआ हो, जिसमें श्रम के पसीने की बूंदें बिम्ब बनकर छलछला आई हों। जिसमें लोक अपनी आग एवं राग के साथ प्रकट हुआ हो और जिसमें जनपक्षधरता हो। इस दृष्टि से महेश चंद्र पुनेठा का सद्य: प्रकाशित कविता संकलन ‘अब पहुंची हो तुम’ न केवल खरा उतरता है बल्कि बंद दीवारों में मानवीय चेतना एवं मूल्यों के झरोखे भी खोलता है, जिसके पार सिसकती मानवता, चौखट और खेत में खटते स्त्री जीवन, भय, भूख और लूट एवं शोषण के रंगहीन टापू तथा विस्थापन एवं पलायन से कराहते पहाड़ के आंसू के खारेपन को महसूस किया जा सकता है। यह महसूसना दर असल उठकर खड़ा होने और सवाल उठाने की ऊष्मा, सलीका और जगह देता है। एक प्रकार से ये कविताएं पढ़ते हुए पाठक न केवल अपने वर्तमान को जीते हुए स्वयं अंतर्मन में झांक रहा होता है साथ ही अतीत की स्मृतियों की चादर की सलवटें भी सीधी कर रहा होता है। वास्तव में संग्रह की कविताएं हाशिए पर जबरिया धकेले और ठहराये गये कदमों एवं सांसों के साथ अपनी मुट्ठी तान कर खड़ा होने एवं आगे बढ़ने की राह दिखाती हैं।
महेश की कविताओं में विस्थापन के कारण अपनी जड़ों से कटी पनीली सूनी आंखें हैं तो तथाकथित विकास के नाम पर हो रहे प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट के प्रति नाराजगी भी। कहने में कोई गुरेज नहीं कि महेश चंद्र पुनेठा की कविताओं में मानव मूल्यों का शीतल झोंका है तो समाज में व्याप्त गैर बराबरी, लैंगिक भेदभाव और असमानता के विरुद्ध लहकती आग भी। पुस्तक में शामिल कविताएं समता-समानता, न्याय, प्रेम, भाईचारे की मद्धिम आंच में पकी हैं और जीवन अनुभवों की ऊष्मा में तपी भी। समय की दरकती आधारशिला पर अंकित ये कविताएं पढ़ने के बाद पाठक बदल जाता है। यह बदलाव मानवता और मानव मूल्यों के लिए है।
पुस्तक : अब पहुंची हो तुम, कवि : महेश चंद्र पुनेठा, प्रकाशक : समय साक्ष्य, देहरादून, मूल्य : 125/-
प्रमोद दीक्षित मलय