‘कोविड के शुरुआती लक्षण दिखाई देने पर कल मेरा कोरोना टेस्ट किया गया, जिसकी रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। आॅरबिंदो हॉस्पिटल में एडमिट हूं। दुआ कीजिए जल्द से जल्द इस बीमारी को हरा दूं। एक और इल्तेजा है, मुझे या घर के लोगों को फोन ना करें, मेरी खैरियत ट्विटर और फेसबुक पर आपको मिलती रहेगी।’
सलीम अख्तर सिद्दीकी
किसे पता था कि 11 अगस्त की सुबह 7.35 पर किया गया मक़बूल शायर राहत इंदौरी का ये ट्विट उनकी जिंदगी का आखिरी ट्विट बन जाएगा। किसने सोचा था कि कोरोना हमसे उस अजीम शख्सियत को छीन लेगा, जो हमारे दिलो दिमाग में बसता है। उनकी शायरी जन आंदोलन की हिस्सा रही है। हालात कैसे भी रहे हों, वे हमेशा उस आम आदमी की आवाज बने, जिसे वह कहने से डरता है। आम आदमी के ख्याल की तर्जुमानी उनकी शायरी में हमेशा नुमायां रही। वे कभी इक्तेदार (सत्ता) के ताबेदार नहीं रहे। वही कहा, जो सच लगा। इशारों ही इशारों में बड़ी-बड़ी बातें कह जाने वाले राहत इंदौरी का अंदाज-ए-बयां दूसरे शायरों से जुदा रहा। पहले मिसरे के बाद दूसरा मिसरा कहने में अच्छा खासा वक्त लगाने वाले राहत इंदौरी सुनने वालों में जिज्ञासा जगाते थे कि दूसरा मिसरे में क्या कहा जाएगा। और वाकई जब वह अपना शेर पूरा करते थे, तो हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता था। कहा जाता है कि गालिब का अंदाज-ए-बयां है कुछ और। राहत इंदौरी साहब का अंदाज-ए-बयां भले ही गालिब जैसा न रहा हो, लेकिन समकालीन शायरों से जुदा जरूर था। यह तय करना मुश्किल है कि उनकी कौन सी ग़ज़ल अच्छी है और कौन सी उससे अच्छी है। उनकी ग़ज़लें बार-बार सुनी जाती थीं। अब भी सुनी जाएंगी। वे शायरी का इतना बड़ा खजाना छोड़ गए हैं कि तवील वक्त तक लोग उसे सुनते रहेंगे, पढ़ते रहेंगे। उनके कलाम से सबक लेते रहेंगे।
1 जनवरी 1950, दिन इतवार को राहत इंदौरी की पैदाइश रिफअत उल्लाह साहब के घर हुई। राहत साहब का बचपन का नाम कामिल था। बाद में इनका नाम बदलकर राहत उल्लाह कर दिया गया। बचपन मुफलिसी में गुजरा। इंदौर आने के बाद आॅटो चलाया, मिल में काम किया। इंदौर के ही नूतन स्कूल से उन्होंने हायर सेकेंडरी की पढ़ाई पूरी की। इंदौर के ही इस्लामिया करीमिया कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय से एमए किया। राहत इंदौरी को पढ़ने लिखने का शौक बचपन से ही रहा। डॉ. दीपक रुहानी ने राहत इंदौरी पर लिखी किताब ‘मुझे सुनाते रहे लोग मेरा वाकया’ में एक दिलचस्प किस्सा है। राहत साहब जिस स्कूल में पढ़ते थे, वहां मुशायरा होना था। जांनिसार अख्तर वहां आए थे। राहत साहब ने उनसे पूछा-मैं भी शेर पढ़ना चाहता हूं, इसके लिए क्या करना होगा? जांनिसार अख्तर साहब बोले-पहले कम से कम पांच हजार शेर याद करो..राहत साहब बोले-इतने तो मुझे अभी याद हैं। जांनिसार साहब ने कहा-जो मिसरा मैं कहूंगा, उसका दूसरा मिसरा तुम्हारा होगा..जांनिसार अख्तर ने शेर का पहला मिसरा कहा-‘हमसे भागा न करो दूर गजालों की तरह’, राहत साहब ने तुरंत दूसरा मिसरा सुना दिया। ‘हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह..’
चूंकि राहत इंदौरी ने मुफ़लिसी देखी थी, इसलिए उनकी शायरी में मुफ़लिसी भी नजर आई-अभी तो कोई तरक़्की नहीं कर सके हम लोग/वही किराए का टूटा हुआ मकां है मियां…1986 में राहत इंदौरी ने कराची में एक शेर पढ़ा था-अब के जो फैसला होगा वह यहीं पे होगा/हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली…इस शेर के बाद पूरे पांच मिनट तक हॉल तालियों से गूंजता रहा। छह दिसंबर 1992 को जब बाबरी मसजिद का वाकया पेश आया तो उन्होंने लिखा-टूट रही है हर दिन मुझमें इक मस्जिद/इस बस्ती में रोज दिसबंर आता है…राहत इंदौरी ने समाज के हर तबके के लिए शायरी की। इंकलाब, सियासत, फिरकापरस्ती, इश्क पर शायरी की। आज की युवा पीढ़ी जो उर्दू से इतना वाबस्ता नहीं है, उनके शेर सुनकर झूम उठती थी। फिरकावाराना दंगों पर उनकी यह गजल इतनी मकबूल हुई कि कभी भी लोगों की जबान पर आ जाती है-अगर खिलाफ हैं होने दो जान थोड़ी है/ये सब धुआं है कोई आसमान थोड़ी है/लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में/यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है/मैं जानता हूं के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन/हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है/हमारे मुंह से जो निकले वही सदाकत है/हमारे मुंह में तुम्हारी जुबान थोड़ी है/जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे/किराएदार हैं जाती मकान थोड़ी है/सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में/किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है…
राहत इंदौरी ने बॉलीवुड की फिल्मों के लिए भी कुछ चर्चित गीत लिखे थे। इसमें ‘घातक’ फिल्म का ‘कोई जाए तो ले आए, इश्क फिल्म की नींद चुराई मेरी तुमने वो सनम’ और मुन्नाभाई एमबीबीएस के ‘एम बोले तो मुन्ना भाई एमबीबीएस जैसे लोकप्रिय गीत शामिल हैं। राहत इंदौरी अपनी शायरी में हमेशा जिंदा रहेंगे।