वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश की हालिया प्रकाशित किताब ‘मेम का गांव, गोडसे की गली’ (संभावना प्रकाशन) यूं तो यात्रा वृतांत है, लेकिन वास्तव में यह किताब इतिहास को लेकर जो धुन्ध हमारी आँखों पर छायी है, उसे दूर करने का काम भी करती है। पुस्तक के 12 अध्याय हैं, जिनमें केरल, आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना), हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड जैसे राज्यों को उर्मिलेश ने छुआ है। किताब का शीर्षक आकर्षित करता है। इसलिए सबसे पहले गोडसे की गली का रुख करते हैं। पुणे के एक मशहूर इलाके शनिवार पेठ में है सावरकर भवन।
बाहर की दीवार पर ही विनायक दामोदर सावरकर और नाथूराम गोडसे के नाम दर्ज हैं। वही सावरकर जो पिछले कुछ सालों में अचानक हाशिये से मुख्यधारा में आते दिखाई पड़ रहे हैं! यहां उर्मिलेश, सावरकर खानदान की बहू, नाथूराम गोडसे की भतीजी, गोपाल गोडसे की बेटी हिमानी सावरकर से मिलते हैं।
हिमानी बताती हैं कि उनके परिवार की देशभक्ति पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। बकौल हिमानी, कका नथूराम जी ने पैसे लेकर यह सब नहीं किया, देश के लिए किया और देश से बड़ा कोई नहीं होता। उनका कृत्य सही था या गलत-यह इतिहास तय करेगा। उर्मिलेश फिर हिमानी को घेरने की कोशिश करते हैं। वह कहते हैं, वह सिर्फ एक ‘क्राइम’ था-बहुत बड़ा क्राइम।
इसलिए नथूराम सहित दो को सजा-ए-मौत हुई। आपके पिता सहित शेष दो दोषियों को उम्र कैद। इतिहास में यह दर्ज हो चुका है। आप इसे कैसे नजरंदाज कर सकती हैं ?’ हिमानी ने कहा, वह कोर्ट ने तय किया, इतिहास तय करेगा-क्या सही था, क्या गलत। शायद पचास साल और लगें। विचारों की इन तंग गलियों से निकलकर हिमानी के इस वाक्य के निहितार्थ आज पूरे राजनीतिक पटल पर देखे और महसूस किए जा सकते हैं-महसूस किए जा रहे हैं। नथूराम गोडसे को देशभक्त बताने वाले कुछ तत्वों को आज निर्वाचित होकर भारतीय संसद में आने का मौका मिल रहा है।
उर्मिलेश के यात्रा वृतांत के कई और दिलचस्प पड़ाव हैं। ऐसा ही एक पड़ाव है हिमाचल के पालमपुर से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर बसा एक गांव अंद्रेटा-यानी मेम का गांव। मेम नोरा रिचर्ड्स एक आयरिश महिला थीं। फिलिप रिचर्ड्स अर्नेस्ट की पत्नी थीं। नोरा अपने पति के साथ सबसे पहले 1911 में लाहौर आई थीं। कला, साहित्य और रंगमंच में उनकी गहरी दिलचस्पी थी।
1920 में उनके पति की असामयिक मृत्यु हो गई। नोरा पहले इंग्लैंड लौटीं और उसके बाद वह कई जगहों पर घूमते हुए अंद्रेटा पहुंची। वह अंद्रेटा से इस कदर जुड़ीं कि यहीं की होकर रह गईं। नोरा ने सरदार सोभा सिंह और प्रोफेसर जय दयाल को यहां आकर बसने के लिए प्रेरित किया। एक समय था जब नोरा से मिलने के लिए फिल्म और रंगमंच की मशहूर हस्तियां-पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी और अन्य बहुत सारे कलाकार आया करते थे। नोरा ने इस गांव को रंगमंच और कला का गांव बना दिया। संभव है अगली बार आप जब घूमने जाएं तो कांगड़ा, चंबा और डलहौजी न जाकर चंद्रैटा जैसे कलाप्रिय गांव जाएं।
उर्मिलेश की यात्रा आईटी सिटी बेंग्लुरू पहुंचती है। बेंग्लोर को बेंग्लूरू बनाने की पूरी कहानी का खुलासा होता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि नामों का यह बदलाव वर्तमान नाम-बदलाव की तरह नहीं है। इस अध्याय में वह बताते हैं कि भूमि सुधार को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री देवराज अर्स ने ठोस और बेहतर काम किया। उन्होंने भूमि सुधार कार्यक्रमों को अमली जामा पहनाया।
इससे राज्य में समानता का स्तर बेहतर हुआ। ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी। अर्स के कार्यकाल में ही दलित समूहों द्वारा मैला ढोने की अमानवीय प्रथा खत्म हुई। और बेंग्लूरु को आईटी कैपिटल बनाने का श्रेय भी देवराज अर्स को जाता है। लेकिन कांग्रेस अधिवेशन को कवर करते हुए उर्मिलेश के जेहन में ये सवाल भी बार-बार उठता रहा कि कांग्रेस ने इतने दिग्गज नेता की अनदेखी क्यों की?
समाज को साथ लिए बिना कोई भी यात्रा पूरी नहीं होती। केरल के कोच्चि की यात्रा करते समय उर्मिलेश न अरुंधती राय को भूलते हैं, न उनकी मां मेरी राय को। वह अरुंधती राय के चर्चित उपन्यास ‘गॉड आॅफ स्माल थिंग्स’ की भी चर्चा करते हैं और ईएमएस नंबूदिरापद की भी। इस यात्रा वृतांत से ही जानकारी मिलती है कि कोच्चि भारत में यहूदियों का पहला रियाहशी इलाका है। वह कोचीन में स्थित पुर्तगालियों द्वारा 1510 में बनवाए सेंट फ्रांसिस चर्च भी जाते हैं।
कोच्चि का समाज, यहां का खानपान, यहां की आदतें, यहां की ईमानदारी, प्रतिबद्धता सब कुछ इस संस्मरण में दिखाई पड़ेगा। वह ईएमएस नंबूदरीपाद का इंटरव्यू भी करते हैं। उस समय (1997 और 2006 के बीच की यात्राओं के दौरान) ईएमएस ने कहा था, हिन्दी भाषी क्षेत्रों में बड़े राजनीतिक बदलाव और वामपंथी राजनीति के मजबूत होने के लिए जरूरी है कि यहां के समाज यानी लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक सोच के स्तर में कुछ उल्लेखनीय बदलाव हों। चेतना का कुछ उन्नयन हो। उनका इशारा सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक जनजागरण की तरफ था।
उर्मिलेश गोविन्द पानसारे के साथ भी एक शाम बिताते हैं और उनका भी इंटरव्यू करते हैं और ‘कितने बदनसीब रहे जफर और किंग थीबा’ में वह थीबा पैलेस में रहने वाले-थीबा मिन का उल्लेख करते हैं और साथ ही बहादुर शाह जफर के बारे में बताते हैं कि उन्हें बंदी बनाकर बर्मा ले जाया गया और रंगून के एक छोटे से क्वार्टर में रखा गया। थीबा के लिए थीबा पैलेस बनवाया गया। बाद में यहीं एक प्रेम कहानी ने जन्म लिया।
कश्मीर की यात्रा के दौरान भी वह यहां के समाज को देखते हैं। वह लिखते है: उत्तर प्रदेश, बिहार या मध्य प्रदेश की तरह कश्मीर के शहरों या कस्बों के किसी चौराहे, सड़क, गली, एयरपोर्ट, बस स्टैंड या टैक्सी स्टैंड पर किसी व्यक्ति (स्त्री-पुरुष या बच्चे) को भीख मांगते नहीं देखा। इसी अध्याय में उर्मिलेश दो महत्वपूर्ण बातों की ओर ध्यान खींचते हैं। पहला, जब कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हुआ तो प्रशासन ने आतंक और दहश्त के दौरान कश्मीरी पंडितों को भरोसा देने के बजाय उनके पलायन की भावना को और हवा दी। उर्मिलेश लिखते हैं कि कश्मीरी पंडितों से ज्यादा मुसलमानों की हत्याएं हो रही थीं।
उर्मिलेश ने बाकायदा तथ्यों के साथ यह बात कही है। दूसरी अहम बात इस अध्याय में उर्मिलेश ने यह कही कि किस तरह शेख अब्दुल्ला के निधन के कुछ साल बाद कश्मीर में अलगाववाद और उग्रवाद शुरू हुआ। खासकर 1987 में और सरहद पार की हरकतों के चलते सन् 1989-91 के आते-आते मिलिटेंसी नजर आने लगी, इस दौर ने जम्मू कश्मीर के मिजाज को नहीं, उसके वर्तमान को ही नहीं, अतीत के प्रति उसके नजरिये को भी बुरी तरह बदल डाला। मिलिटेंसी के इसी दौर में शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की राजनीतिक विरासत का लोप होना शुरू हुआ।
‘मेम का गांव, गोडसे की गली’ में आपको कारगिल मिलेगा, आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) मिलेगा और मिलेंगी बहुत-सी स्मृतियां। लेकिन ये महज स्मृतियां नहीं हैं, बल्कि इनके साथ जुड़ा है इतिहास, समय और समाज।
सुधांशु गुप्त