Wednesday, July 3, 2024
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होली और समझदारी के रंग

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61 1अब होली जैसे रंग, मस्ती और प्रेम के पर्व यूं ही नहीं बनाए गए थे। हमारी संस्कृति में पर्व हमें स्वजनों और प्रकृति के समीप लाने का मौका देते थे। अब सोचिए होली हम फाल्गुन में ही क्यों मनाते हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि बसंत काम भाव जगा कर प्रेम के रंग बिखेरता है और चैत्र आ कर उमंग भर देता है तन मन में। दरअसल होली के पर्व को मनाने के लिए सबसे बड़ा कारण रहा है वसंत ऋतु का आगमन। एक वसंत मौसम के अनुसार आता है और दूसरा खुशियों का दूसरा नाम है। गौर करें हम रंग खुद को नहीं अपितु दूसरे को ही लगाते है। प्रतीक रूप में यही रंग खुशी का दूसरा नाम है , आनंद हैं तो होली तो तभी मनती है जब हम दूसरों को खुशी के रंग लगा सकें। रंगों से सराबोर करने की परम्परा का दूसरा नाम है होली। सही मायनों में समझें तो होली केवल रंग बिखेरने या गुलाल लगा देने भर का त्यौहार नहीं वरन वह मन में कितने भी गहरे में पल रहे वैर के भाव को धो डालने वाला त्योहार है। ऐसा जश्न है होली जो ऊंच नीच बड़े-छोटे, अपने-पराए, शूद्र या ब्राह्मण सबके अंतर को धो डालता है। यदि ऐसे हम होली मनाते हैं तो वह अंग्रेजी का ‘होली’ यानि पावन पर्व बन जाता वरना तो बस परंपरा का निवर्हण भर बनकर रह जाता है होली का त्यौहार।

बदरंग होते रंग होली के!

एक निगाह डालिए अपने चारों तरफ क्या सच में हम राग, अनुराग और प्रेम की होली मना रहे हैं? क्या किसी भी तरह से हम मिथकों में वर्णित प्रहलाद रूपी भक्ति व भलाई को जला देने के लिए अपने वरदान का दुरुपयोग करने वाली होलिका का दहन मन से कर पा रहे हैं? क्या आज पुराने बैर भाव को जलाने की बजाय होली बदला लेने या नशा करने का बहाना नहीं बनती जा रही है?

सच में क्या हम चाहते हैं कोई पड़ौसी या अजनबी हमारे घर होली पर आए? हमारी बहनों, भाभियों या बहू-बेटियों के साथ रंग खेले, उनके गालों पर गुलाल मले? शायद नहीं। अब नहीं क्यों? इसका जवाब भी हम जानते ही हैं। अगर होली को सच में ‘होली के भाव’ यानि पावनता से से मनाने की मानसिकता हम विकसित कर लें तो बहुत सी अनैतिकता की बीमारियां तो स्वयमेव ही जल जाएंगी।

होली संस्कृति में

अब होली जैसे रंग, मस्ती और प्रेम के पर्व यूं ही नहीं बनाए गए थे। हमारी संस्कृति में पर्व हमें स्वजनों और प्रकृति के समीप लाने का मौका देते थे। अब सोचिए होली हम फाल्गुन में ही क्यों मनाते हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि बसंत काम भाव जगा कर प्रेम के रंग बिखेरता है और चैत्र आ कर उमंग भर देता है तन मन में।

दरअसल होली के पर्व को मनाने के लिए सबसे बड़ा कारण रहा है वसंत ऋतु का आगमन। एक वसंत मौसम के अनुसार आता है और दूसरा खुशियों का दूसरा नाम है। गौर करें हम रंग खुद को नहीं अपितु दूसरे को ही लगाते हेैं प्रतीक रूप में यही रंग खुशी का दूसरा नाम है , आनंद हैं तो होली तो तभी मनती है जब हम दूसरों को खुशी के रंग लगा सकें।

होली का मतलब

थोड़ा पीछे जाकर देखिए होली के पर्व से करीब सवा महीने पहले वसंत पंचमी को होली का उपला रख दिया जाता था यानि एक बार फिर, प्रतीक रूप में खुशी भी अनायास नहीं क्रमागत आनी चाहिए। फिर गांव, गलियों में मस्तों की टोलियां ‘फगवा’ ‘कामण’ या ‘धमाल’ गाते हुए घर-घर जाती और होली का र्इंधन इकट्ठा करती थी इसका भी एक सबब था सबका सहयोग लेना सबका योगदान पाना और इकट्ठे होकर मन के सारे पापों, गिले-शिकवों को होली की आग में जला डालना होता था तब यही था होली का मतलब। आज क्या है सोच सकें तो सोचें।

अहा! वह होली

चलिए कुछ दशकों पहले की होली की एक झलक की कल्पना करें फगवा के गीतों के नाम पर कितनी गालियां बरसती थीं, तब पर कोई बुरा नहीं मानता था। क्या अब ऐसा संभव है? यदि नहीं तो क्यों? क्योंकि तब गालियां प्रेम पगी होती थीं, मन के साफ गंगाजल से नहा कर आती थीं, उनमें खुन्नस या किसी के अपमान का भाव नहीं वरन अपनापन था और होली के नाम पर आज ‘ताक’ है मौका है किसी की इज्जत से खेलने का। इस गंदे भाव को हम हटा व धो पाएं तो आज की होली भी पावन व गंगाजल स्नात होली हो जाए!

होली की परंपराएं

अलग प्रदेशों में अलग अलग ढंग से होली का आधार रखा जाता है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में पांच उपले रख कर तो राजस्थान के जयपुर , सीकर , चुरु व झुंझुनूं सहित शेखावाटी में एक मोटा डंडा गाड़ कर प्रहलाद के रूप में होलिका का आधार रखा जाता है और फिर प्रतिदिन सवा महीने तक हर दिन र्इंधन जमा करके लोकगीत व नृत्य ‘गींदड़’ डाले जाते हैं डांडिया रास से मिलता जुलता नृत्य और मुंह में दो अलगोजे लेकर जब वातावरण में मधुर स्वर लहरी गूंजती है तो पूरा वातावरण ही सरस हो उठता है।

होली एक, रंग अनेक

वैसे ऐसा भी नहीं है कि होली के नाम पर बस गंदगी ही गंदगी हो आज भी कुछ सांस्कृतिक रूप से समृद्ध इलाकों में वहां के लोग होलिका के पर्व की महत्ता को जानते हैं यही वजह है कि आज भी बृज की लठ्ठमार होली, बस्तर की पत्थरमार होली, हरियाणा की कोड़ामार होली, राजस्थान की गाढ़े गुलाबी रंग की ‘गैर’, मथुरा की राधाकृष्ण होली व पंजाब के होला महला का रंग आज भी सर चढ़कर बोलते देख जा सकता है और वातावरण में इस भागमभाग व आपाधापी के बावजूद ‘होली आई रे कन्हाई, रंग बरसे बजा दे तोरी बांसुरी …’ जैसे सुमधुर गीत सुनाई देते हैं।

मनोविकारों का दहन करें

होली जहां एक और मनोविकारों के दहन का पर्व माना जाता है वहीं ओझा, तांत्रिक व टोने -टोटके वाले भी इस दिन अपना मायाजाल फैलाने का अवसर ढूंढ लेते हैं। कहते हैं इस दिन अपने बच्चों का खास ख्याल रखना जरुरी है क्यांकि कुछ लोग उनके बाल काट कर टोना टोटका कर सकते हैं अब इस प्रपंच में कितना सच है यह तो नहीं पता पर विज्ञान के युग में इसे अंध विश्वस ही कहा जाएगा।


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