क्या इसको संयोग भर कहकर दरकिनार किया जा सकता है कि गत शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैदराबाद पुलिस अकादमी में प्रशिक्षण ले रहे भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए उन्हें ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का झंडाबरदार बता और कह रहे थे कि उन्हें अपने हर काम और कवायद में ‘राष्ट्र प्रथम, सदैव प्रथम’ की भावना रखनी चाहिए, तो उनकी पार्टी की गठबंधन सरकार द्वारा नियंत्रित मिजोरम पुलिस खुद को इस भावना की विलोम सिद्ध कर रही थी? पड़ोसी राज्य असम के साथ जारी सीमा विवाद को लेकर ‘तू बड़ा कि मैं’ के खेल में उलझते हुए उसने जवाबी कार्रवाई के तौर पर उसके मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा व वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के खिलाफ हथियार कानून के उल्लंघन और हत्या के लिए उकसाने जैसे मामलों में एफआईआर दर्ज कर ली थी। चूंकि उससे भी पहले असम ने मिजोरम के राज्यसभा सदस्य वनलालवेना और अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज कर उन्हें थाने में तलब कर लिया था, इसलिए इस सिलसिला में उसे भी दूध का धुला नहीं ही कहा जा सकता।
पिछले दिनों दोनों राज्यों के पुलिस अधिकारी ही नहीं, मुख्यमंत्री और सरकारें भी प्रधानमंत्री की ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की सीख के विरुद्ध काम करते दिखाई दिए हैं। न करते तो यह संभव ही नहीं था कि इस सीमा विवाद के बहाने दोनों राज्यों की पुलिस दो देशों की सेनाओं की तर्ज पर अस्त्र-शस्त्रों के साथ आमने सामने आकर हिंसक भिड़ंत को अंजाम देने लगे। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि उक्त भिड़ंत में असम पुलिस के छ: जवानों की जानें चली जाने के बाद भी दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों का रवैया सौहार्द बढ़ाने वाला न होकर टकराव आमंत्रित करने वाला ही दिख रहा था।
इन मुख्यमंत्रियों ने, और तो और, सोशल मीडिया पर एक दूजे से भिड़ने से भी परहेज नहीं किया। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा तो यह कहने की हद तक चले गए कि उनके पूलिस जवानों ने भले ही अपनी जानें दे दीं, लेकिन अपनी एक इंच भूमि भी मिजोरम के कब्जे में नहीं जाने दी। जैसे कि मिजोरम कोई अलग देश हो और उससे अपनी इंच-इंच भूमि की रक्षा करना असम की आन का सवाल हो। बात इतने तक पर ही रुक जाती तो भी गनीमत थी। लेकिन असम की सरकार ने एक एडवाइजरी भी जारी की, जिसमें अपने नागरिकों को मिजोरम यात्रा को लेकर कुछ इस तरह सचेत किया, जैसे वह कोई दुश्मन देश हो ओर वहां जाना खतरे से खाली न हो।
काबिलेगौर है कि प्रधानमंत्री जब भी किसी राज्य के विधान सभा चुनाव में प्रचार करने जाते हैं, जोर देकर कहते हैं कि मतदाता उनकी पार्टी की सरकार चुनेंगे तो ‘डबल इंजन सरकार’ चुनेंगे। इससे केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ उठाने के रास्ते की वे सारी बाधाएं स्वत: दूर हो जाएंगी, जो गैरभाजपा राज्य सरकारें केंद्र सरकार से नाहक टकराव बढ़ा कर पैदा करती रहती हैं। इससे दोनों सरकारों को मिलकर डबल इंजन की तरह उनका कल्याण सुनिश्चित करने में बहुत सुभीता होगा। लेकिन असम और मिजोरम के मुख्यमंत्रियों ने डबल इंजन सरकारों से ज्यादा जनकल्याण होने की उनकी अवधारणा को भी धूल चटाने में संकोच नहीं किया।
हम जानते हैं कि केंद्र और असम में तो भाजपा की चुनी हुई सरकारें हैं ही, मिजोरम में भी भाजपा गठबंधन की सरकार है। यानी डबल की जगह वहां ट्रिपल इंजन सरकारें हैं। फिर भी, न केंद्रीय गृह मंत्री अमितशाह दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक साथ बैठाकर पुराने सीमा विवाद को लेकर उनके बीच खूनी टकराव टाल सके और न उनके मुख्यमंत्रियों में इतनी सद्बुद्धि पैदा कर सके कि वे परस्पर दोषारोपण करते हुए ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की भावना को करारी ठेस लगाने के प्रयत्नों से पूरी तरह बाज आ सकें। असम के मुख्यमंत्री तो तब हद करते दिखे जब मिजोरम के मुख्यमंत्री से उलझते भी रहे और यह सफाई भी देते रहे कि उनके बीच कोई राजनीतिक विवाद नहीं है। भला क्या अर्थ है इसका?
क्या आ़श्चर्य कि भाजपा विरोधी पार्टियां इसे इस रूप में देख रही हैं कि वह भले ही चुनावी लाभ उठाने के लिए बार-बार राष्ट्रवादी नारे उछालती रहती है, उसके शासन में देश की एकता सुरक्षित नहीं हैं और उसे लेकर नाना प्रकार के अंदेशे पैदा हो रहे हैं? कौन कह सकता है कि अगर असम और मिजोरम में किसी विपक्षी पार्टी की सरकारें होतीं तो राष्ट्रीय एकता व अखंडता की राह में रोड़े डालने वाले उनके रवैये के लिए भाजपा उनको बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग न कर रही होती या कि उसकी केन्द्र सरकार इन सरकारों को अपनी हद में रहने को न चेता रही होती।
लेकिन, क्या किया जाए कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की भरपूर फजीहत कराने के बाद भी असम व मिजोरम के मुख्यमंत्रियों को अपनी सीमाओं का ठीक से भान नहीं है और उन्हें इतनी ही ‘सद्बुद्धि’ आई है कि वे अपने-अपने राज्यों में दुर्भावनापूर्वक दर्ज एफआईआर रद्द करने, सीमा विवाद को वार्ता के रास्ते सुलझाने और स्थिति को और न बिगड़ने देने पर सहमत हो गए हैं। लेकिन इस सहमति तक पहुंचने से पहले के उनके कृत्यों और कवायदों को लेकर कई सवालों के जवाब मिलने अभी भी बाकी हैं।
मसलन, जब पहले से पता था कि विवाद अंतत: वार्ता करके ही हल किया जाना है या जा सकता है तो उसे लेकर इस कदर आसमान सिर पर उठाये फिरने की क्या जरूरत थी कि सारा देश चिंतित हो जाए? क्या उन पुलिसकर्मियों की जानों की कोई कीमत नहीं थी जो अलानाहक जटिल बना दिए गए इस विवाद में हिंसक टकराव की बलि चढ़ा दिए गए? यह सवाल तो खैर केंद्र सरकार से पूछा जाना चाहिए कि उसने उपग्रह की मदद से उत्तर पूर्वी राज्यों की सीमाओं के निर्धारण का जो निर्णय अब किया है, उसे समय रहते क्यों नहीं लिया, जिससे न सिर्फ इन दोनों बल्कि सीमा विवाद झेलने वाले दूसरे राज्यों में भी अमनचैन बरकरार रहता?
निस्संदेह, इस सिलसिले में प्रधानमंत्री को खुद को इस सवाल के सामने करना होगा कि अगर उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री और निर्वाचित सरकारें तक ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के उनके विचार के विरुद्ध जाने से बाज नहीं आतीं, तो वे केवल आईपीएस अधिकारियों से ही यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वे अपने हर काम में ‘राष्ट्र प्रथम, सदैव प्रथम’ की भावना रखें? खासकर जब भाई लोगों ने पहले से ही इस देश के भीतर कई ऐसे देश बना रखे हैं, जिनमें साधन सम्पन्न और विपन्न किसी मोड़ पर मिल ही नहीं पाते।