Monday, December 30, 2024
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खतरे में देशज भाषाएं

Samvad


ARVIND JAY TILAKसंयुक्त राष्ट्र द्वारा दुनिया भर की ऐसी देशज भाषाओं को विलुप्ति से बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय देशज भाषा दशक की शुरुआत एक स्वागतयोग्य कदम है। यह पहल इसलिए महत्वपूर्ण है कि देशज भाषाओं के संरक्षण से उनसे जुड़ी संस्कृति, परंपरा और ज्ञान का भी संरक्षण हो सकेगा। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक व सामाजिक मामलों से जुड़े संस्था की मानें तो लगभग 6700 देशज भाषाओं का इस्तेमाल होता है। अगर इन्हें बचाने का ठोस पहल नहीं हुआ तो इन भाषाओं में से आधे से अधिक इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी। इसका असर जैव विविधता पर भी पड़ेगा। भाषा विद्वानों की मानें तो अगर हम प्रकृति को बचाना चाहते हैं तो इसके लिए देशज लोगों की भाषा का समझना-जानना होगा। इसलिए कि दुनिया में जो भी जैव विविधता बची है उसका लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं लोगों ने बचाकर रखा है। इसके बावजूद हर दो सप्ताह में एक देशज भाषा का अस्तित्व मिट रहा है। गत वर्ष मैक्सिको की पुरानतम देशज भाषाओं में से एक अयापनेको के विलुप्त होने की खबरें अच्छी खासी चर्चा में थीं। अयापनेको भाषा को जानने और बोलने वाले लोगों की संख्या विश्व में महज दो रह गई है।

इन शेष दो लोगों ने भी ठान लिया है कि वे आपस में इस भाषा के जरिए वातार्लाप नहीं करेंगे। मतलब साफ है कि अयापनेको भाषा का अस्तित्व मिटने जा रहा है। विश्व के तमाम देशों में बोली जाने वाली अन्य देशज भाषाएं भी दम तोड़ रही हैं। एक अन्य आंकड़े के मुताबिक दुनियाभर में तकरीबन 6900 देशज भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से 2500 से अधिक भाषाओं के अस्तित्व पर संकट है। इन्हें भाषाओं की चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची में रखने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

त्रासदी यह है कि विलुप्त हो रही देशज भाषाओं को बचाने के प्रयास के बावजूद भी इन्हें बोलने और लिखने-पढ़ने वाले लोगों की संख्या कम हो रही है। गत वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए एक तुलनात्मक अध्ययन से खुलासा हुआ कि 2001 में विलुप्तप्राय: देशज भाषाओं की संख्या जो 900 के आसपास थी वह बढ़कर तीन गुने से पार जा पहुंची है। एक आंकड़े के मुताबिक दुनियाभर में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने-लिखने वाले लोगों की संख्या एक दर्जन से भी कम है।

उदाहरण के लिए उक्रेन में बोली जाने वाली कैरेम भी इन्हीं भाषाओं में से एक है जिसे बोलने वालों की संख्या महज 6 है। इसी तरह ओकलाहामा में विचिता भाषा बोलने वालों की संख्या 10 और इंडोनेशिया में लेंगिलू बोलने वालों की संख्या सिर्फ 4 है। विश्व में 178 देशज भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या डेढ़ सैकड़ा तक है। किंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन देशज भाषाओं को बचाने का अभी तक कोई ठोस पहल नहीं हुई है।

गत वर्ष पीपल्स लिविंग्वस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया (पीएलएसआइ) के जरिए यह खुलासा हुआ कि देश में बोली जाने वाली आठ सैकड़ा भाषाओं में आधी भाषाएं आगामी 50 वर्ष बाद सुनाई नहीं देंगी। देश में तकरीबन 780 भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से 400 भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा है। पिछले पांच दशकों में 250 भाषाएं विलुप्त हुई हैं। इनमें से 22 आधिकारिक मान्यता प्राप्त भाषाएं भी हैं। गत वर्ष पहले भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर द्वारा प्रकाशित अपने सर्वेक्षण में कहा गया कि देश में बोली जाने वाली 250 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं। 130 से अधिक भाषाएं विलुप्ति की कगार पर हैं।

इस शोध की मानें तो असम की 55, मेघालय की 31, मणिपुर की 28, नागालैंड की 17, और त्रिपुरा की 10 भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा हैं। इन्हें बोलने वालों की संख्या लगातार तेजी से घट रही है। उदाहरण के तौर पर सिक्किम में माझी बोलने वालों की संख्या सिर्फ 4 रह गई है। कमोबेश ऐसी ही स्थिति देश के अन्य देशज भाषाओं की भी है। जिन देशज भाषाओं के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है उनमें ज्यादतर आदिवासी समुदायों की भाषाएं हैं। भारत के पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल में ही 90 से अधिक देशज भाषाएं बोली जाती है। इनमें से कई देशज भाषाओं को बोलने वालों की तादाद ऊंगलियों पर है।

ओडिशा में 47 और महाराष्ट्र एवं गुजरात में 50 से अधिक देशज भाषाएं बोली जाती हैं। लेकिन इनमें से कई देशज भाषाएं अब नाम भर की हैं। दरअसल इसका मूल कारण यह है कि आदिवासी समुदायों की बच्चों को अपनी भाषा में शिक्षा नहीं मिल रही है। वे स्कूल जाते हैं तो इन्हें 22 आधिकारिक भाषाओं में ही शिक्षा लेनी पड़ती है। उचित होगा कि इन बच्चों को उनकी देशज भाषाओं में भी शिक्षा की व्यवस्था हो। अगर ऐसा नहीं हुआ तो न सिर्फ दुनिया की बल्कि भारत की भी देशज भाषाएं खत्म हो जाएंगी।

ध्यान देना होगा कि जिन भाषाओं के अस्तित्व पर सबसे ज्यादा संकट मंडरा रहा है वह सर्वाधिक रुप से उन जनजाति समूहों के बीच बोली जाती हैं जो आज की तारीख में कई तरह के संकट से गुजर रहे हैं। सबसे बड़ा संकट इनके जीवन की सुरक्षा को लेकर है। अमेरिका हो या भारत हर जगह विकास के नाम पर जंगलों को उजाड़ा जा रहा है। रोजी-रोजगार के लिए जनजातिय समूह के लोग अपने मूलस्थान से पलायन कर रहे हैं। विलुप्त हो रही भाषाओं को बचाने की जिम्मेदारी सरकार की ही नहीं है।

स्वयंसेवी व सामाजिक संस्थाओं को भी आगे आना होगा। ये भाषाएं तभी बचेंगी जब उन्हें संवैधानिक संरक्षण के साथ-साथ इन्हें रोजगार से जोड़ा जाएगा। अगर इन भाषाओं को सिर्फ शब्दकोषों तक सीमित रखने का प्रयास हुआ तो फिर इन्हें इतिहास के गर्त में जाने से कोई बचा नहीं पाएगा। अच्छी बात यह है कि पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया दुनिया भर में बोली जाने वाली छ: हजार से अधिक भाषाओं पर अध्ययन करने जा रही है जिसकी रिपोर्ट 2025 में प्रकाशित होगी।


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