Wednesday, December 4, 2024
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कश्मीर की जिंदा हकीकत

Samvad 52


PRABHAT KUMAR RAIसुप्रीम कोर्ट ने जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने को सही ठहरा दिया है। इस तरह मामला अब खत्म हो गया है। अब हकीकत यह है कि जम्मू कश्मीर विशेष राज्य नहीं रहा। लेकिन जम्मू-कश्मीर पर अक्सर की जाने वाली गलत बयानबाजी पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से सवाल तो किए ही जा सकते हैं। जम्मू कश्मीर का ज्वलंत प्रश्न फिर से संसद के पटल पर गूंजा, जबकि देश के गृहमंत्री अमित शाह द्वारा जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन संशोधन विधेयक और जम्मू-कश्मीर आरक्षण संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किए गए। दोनों विधेयकों पर अंजाम दी गई, अत्यंत तीखी बहस का प्रतिउत्तर देते हुए गृहमंत्री महोदय ने फरमाया कि जम्मू-कश्मीर में विगत अनेक दशकों से जिन नागरिकों को अपमान सहना पड़ा और जिनकी उपेक्षा अंजाम दी गई है, वस्तुत: पारित विधेयक उनको न्याय और अधिकार प्रदान करने वाले हैं। गृहमंत्री ने फरमाया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री प. नेहरू की खताओं का खामियाजा एक लंबे ऐतिहासिक दौर तक कश्मीर को भुगतना पड़ा है। गृहमंत्री ने आगे कहा कि सन 1948 में जब भारतीय सेना कश्मीर मोर्चे पर लगातार फतेहयाब हो रही थी, तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा अचानक सीजफायर का ऐलान कर दिया गया और कश्मीर विवाद को संयुक्त राष्ट्र के हवाले कर दिया गया। गृहमंत्री के मुताबिक भारत का सैन्य अभियान तीन दिन और अधिक जारी रह जाता तो संपूर्ण कश्मीर वस्तुत: भारत का अभिन्न हिस्सा बन जाता तथा पाक अधिकृत कश्मीर अस्तित्व में ही नहीं होता। आर्टिकल 370 का समापन बाकायदा संपन्न हुआ। धारा 370 वस्तुत: जम्मू-कश्मीर के लिए पृथकता की प्रतीक बनी रही। 1989 से विगत 34 वर्षों के दौरान दहशतगर्दी के कारण हजारों नागरिक हलाक हुए हैं। कश्मीर से 370 के खात्मा हुआ तो फिर दहशतगर्दी का भी किसी हद तक खात्मा मुमकिन हुआ है।

केंद्रीय हुकूमत के गृहमंत्री अमित शाह द्वारा संसद में कश्मीर पर दिए गए बयान की गहन विवेचना की जाए तो एक तथ्य स्पष्ट तौर पर उभर कर सामने आता है कि धारा 370 का बाकायदा खात्मा हो जाने के बावजूद कश्मीर घाटी के नौजवानों में पृथकतावादी जहनियत और फितरत निरंतर कायम बनी हुई है। कश्मीर घाटी में आतंकवादी वारदातों के आंकड़ों में यकीनन गिरावट आई है, किंतु आतंकवाद की खौफनाक धमक घाटी में निरंतर कायम बनी हुई है। अत्यंत आवश्यकता है कि कश्मीर के नौजवानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का गहन तौर पर संजीदा प्रयास किया जाना चाहिए। नौजवानों के लिए रोजगार के बदतरीन हालत समूचे देश की तरह से कश्मीर में भी अत्यंत अफसोसनाक तौर पर कायम बने हुए हैं। बेरोजगारी से अभिशप्त और संत्रस्त नौजवानों को दहशतगर्दी की तरफ आकृष्ट कर लेना दहशतगर्द सरगनाओं के लिए कश्मीर में बहुत आसान षड्यंत्र बना रहा है। कश्मीर की वादियों में दस्तकारी उद्योग और पर्यटन आमदनी का मुख्य जरिया रहा है। दीर्घकालीन तौर पर दहशतगर्दी के लगातार जारी रहते हुए मुख्य आमदनी के दोनों स्रोत तकरीबन सूख से गए हैं। कश्मीर में दहशतगर्दी के विरुद्ध जारी विकट संग्राम में भौतिक और मानसिक पहलू कायम रहे हैं।

एक तरफ आतंकवाद को सख्ती से लौह सैन्य हाथों कुचल डालना है और दूसरी तरफ भारत के प्रति बेजारी और बेरुखी अख्तियार करने वाले कश्मीरी नौजवानों का हृदय को बेपनाह मोहब्बत और सदाशयता से जीत लेना है। प. नेहरू की राजनीतिक और रणनीतिक खताओं को बार-बार बयान करते रहने से कश्मीर के जटिल विवाद का कदापि निदान नहीं किया जा सकेगा। हकीकत में कश्मीर मसअले के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार शख्स महाराजा हरि सिंह रहे, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर रियासत को भारत में विलय करना तब ही स्वीकार किया, जबकि पाक फौज द्वारा कबायली नकाब लगाकर कश्मीर पर 26 अक्टूबर 1947 को सैन्य आक्रमण कर दिया। यह तथ्य एकदम बेमानी और आधारहीन है कि तीन दिन और सैन्य संग्राम जारी रहता तो संपूर्ण कश्मीर भारत का हो जाता। 27 अक्टूबर 1947 को प्रारम्भ हुआ कश्मीर सैन्य संग्राम सोलह महीनों तक 29 दिसंबर 1948 तक लगातार जारी रहा था। 04 जून 1948 को सरदार पटेल ने पं नेहरू को लिखा था कि भारत सैन्य अभियान को दीर्घ काल तक जारी रखने की स्थिति में कदापि नहीं है। भारत बनाम पाक के पहले युद्ध के दौर में अमेरिका सहित सभी नाटो राष्ट्र पाकिस्तान का सैन्य समर्थन कर रहे थे, अत: इस युद्ध में नवोदित भारत की पाकिस्तान।पर निर्णायक विजय इतनी आसान नहीं थी जितना कि अब अमित शाह द्वारा निरूपित की जा रही है। यदि पाक अधिकृत कश्मीर पर सैन्य विजय इतनी आसान है तो भाजापा हुकूमत विगत नौ वर्षों में यह कारनामा क्यों अंजाम नहीं दे सकी है।

संयुक्त राष्ट्र कश्मीर में जनमत संग्रह करा नहीं सका, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की प्रथम शर्त के मुताबिक पाक-अधिकृत कश्मीर से पाकिस्तान हुकूमत अपनी फौज हटाने के लिए कदापि तैयार नहीं हई। जनरल अयूब खान ने सैन्य आॅपरेशन जिब्राल्टर के तहत कश्मीर हथियाने की कोशिश अंजाम दी थी, परिणाम स्वरूप 1965 में भारत-पाक युद्ध हुआ और इसमें पाकिस्तान को शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। पाक फौज द्वारा 1965 की पराजित जंग भी नाटो सैन्य संगठन द्वारा प्रदान किए हथियारों के बलबूते लड़ी गई थी। भारतीय सेना इच्छोगिल नहर पार करके लाहौर तक पहुंच गई थी। इसके बाद 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए गए और बांग्लादेश का निर्माण किया गया, लेकिन 1971 की प्रबल पराजय के बावजूद पाक हुकूमत बाज नहीं आई। 1972 के शिमला समझौते की मैत्रीपूर्ण भावना का घनघोर उल्लंघन करते हुए पाक हुकूमत द्वारा 1989 में कश्मीर में एक प्रॉक्सी वॉर छेड़ दी गई, जोकि अभी तक निरंतर जारी है। कश्मीर की पाक प्रॉक्सी वॉर का समर्थन अमेरिका निरंतर करता रहा था।

पाक अधिकृत कश्मीर को लेकर बड़े-बड़े ऐलान भारतीय हुकूमत की तरफ से प्राय: किए जाते रहे हैं। यकीनन संपूर्ण कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, यह प्रबल ऐतिहासिक संकल्प तो 1993 में भारतीय संसद द्वारा एकमत से लिया गया था। लेकिन इस ऐतिहासिक संकल्प को साकार रूप प्रदान करना और इसे वास्तविक अंजाम तक पहुंचाना अभी शेष कार्य है। पाकिस्तान हालांकि विश्व पटल पर अलग-अलग पड़ गया है, लेकिन पाक हुकूमत अपनी आतंकवादी साजिशों से बाज अभी भी नहीं आ रही है। पाक हुकूमत रक्तरंजित युद्ध कश्मीर को लेकर करती रही है। किंतु घनघोर नाकामियों के बावजूद पाक हुकूमत कश्मीर विवाद को शांति वार्ता द्वारा निपटाना ही नहीं चाहती। किसी भी युद्ध के दौर में कूटनीतिक वार्ताएं जारी रहनी चाहिए। पाकिस्तान के साथ भी कूटनीतिक वार्ता का प्रारंभ की जानी चाहिए। जिस तरह से चीन के साथ कूटनीतिक वार्ताएं लगातार जारी रही हैं। केंद्र से कश्मीर की हुकूमत चलाना सदैव बहुत मुश्किल काम रहा है। अत: जितना जल्द से जल्द हो सके कश्मीर में प्रजातांत्रिक प्रक्रिया को तत्काल बहाल किया जाना चाहिए।


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