ऐसा अक्सर माना जाता है कि सवाल करने वालों को हमेशा तर्कशील समझा जाता हैं यानि जो तर्क करना सीख जाता है समझो उसमें सवाल करने की प्रवर्ती जन्म लेने लगती है। लेकिन अब सवाल करने वालों को देश के विरूद्व जाकर साथ ही सिस्टम को कोसने वालों पर आरोप लगाना अब वर्तमान राजनीती का पहचान बनती जा रही है। देश का इतिहास गवाह है जब-जब सत्ता में बैठे लोगों से कोई जनता का प्रतिनिधि बनकर सवाल पूछता है तो उसको हमेशा भारी बदनामी झेलनी पड़ी है। यानी ऐसे लोगों को टारगेट उन्हें सलाखों के पीछे डालना या उनको नजरबंद करना यह अमूमन देखा गया है। जब भी कोई सत्ता की कुर्सी पर आसीन होता है। वह विपक्ष को हमेशा चुप कराने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाता है और उन्हें उल्टे सीधे केस में फंसाकर, बेइज्जत करके उसे आरोपी बना दिया जाता है। कहने का मतलब सत्ता में बैठे लोग कभी भी सवालों का सामना नही करते। ऐसा ही एक ताजा मामला काफी चर्चा का विषय बना हुआ है। तृणमूल कांग्रेस पार्टी की सांसद महुआ मोइत्रा की सदस्यता सदन में ध्वनिमत से पारित करके उनकी सदस्यता खत्म कर दी गई। केस फॉर क्वेरी मामले में फंसी महुआ मोइत्रा लगातार सत्तापक्ष पर हमेशा हावी होती दिखती रही हैं। महुआ मोइत्रा अपनी दमदार भाषा शैली के लिए जानी जाती है। वह कई मौकों पर बीजेपी को सदन में अपने सवालों के जरिये घेरती हुई नजर आई हैं। महुआ मोइत्रा संसद में वह जब भी किसी मुद्दे पर सत्तापक्ष से सवाल करती थी। पूरी संसद उनके भाषण को बहुत ध्यान से सुनती थी। लेकिन सदन में अब ऐसे सवाल पूछने वालों के लिए कोई जगह नहीं हैं। महिला आरक्षण बिल ‘नारी शक्ति वंदन’ पिछले सत्र में पास किया गया। यह बिल महिलाओं को उनके हक और अधिकार दिलाने के लिए लाया गया। ताकि कोई महिला अपने हक और अधिकार से वंचित नहीं रह सके। यह बिल उनके आत्मसम्मान को दिलाने की वकालत करता है। लेकिन वहीं जब कोई चुनी हुई सांसद जनता प्रतिनिधि के तौर पर संसद में अपना पक्ष रखती है, तो आखिर सत्ता में बैठे लोग क्यों घबराने लगते हैं। यानि इसका मलतब साफ है कि विपक्ष में बैठे लोग या तो सरकार का गुणगान करे या फिर चुप होकर सत्ता की हां में हां मिलाते रहे।
देश की राजनीति आखिर किस ओर जा रही है, यह सवाल अब हर आदमी के जेहन में कौंधने लगा है। देश में सत्ता से सवाल करने का मतलब है कि आप देश के सिस्टम के खिलाफ जाकर सत्ता पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। सत्ता से सवाल करना आखिर क्यों गुनाह बनता जा रहा है। ऐसा ही एक मामला राहुल गांधी को लेकर हुआ। जब उन्होंने सत्ता से गौतम अडाणी को लेकर सवाल खड़े किये तो राहुल गांधी की कुछ ही दिनों के भीतर संसदीय सदस्यता खत्म कर दी गई।
दिल्ली से बीजेपी सांसद रमेश बिधूड़ी (21 सितंबर 2023) ने जब भारतीय संसद में बहुजन समाज पार्टी के सांसद कुंवर दानिश अली के खिलाफ अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल किया था। तब सत्ता में बैठे लोगों में किसी की हिम्मत नही हुई कि कोई कह सके ऐसे बयानों से देश दुनिया में संसद और सांसदों की मर्यादा तार तार हुई है। ऐसी अभद्र टिपण्णी को पूरे देश की जनता ने रमेश विधूड़ी द्वारा अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करते हुए देखा और सुना। लेकिन सत्तापक्ष ऐसी बयानबाजी को कोई तवज्जों नही देता है, बल्कि ऐसे सांसदों का सीधे प्रमोशन होता हैं, और हुआ भी वही। इस बयानबाजी के बीच रमेश बिधूड़ी का प्रमोशन करके उनको राजस्थान का प्रभारी बनाया गया था, है न कमाल। रमेश बिधूड़ी के बयान की वजह से दुनियाभर में सांसदों की छवि खराब क्यों नहीं हुई। जनता के सवाल को सदन में उठाने वाली टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा की वजह से आज दुनियाभर में संसद की छवि खराब हो गई, वाह क्या गजब का तर्क है वर्तमान की राजनीति का। देश की संसद कोई कोर्ट नहीं है, यह सब जानते हैं। लेकिन जब देश में सर्वोच्च न्यायालय जैसी संस्था जिस पर सब भरोसा करते हैं, ऐसे मामलों की कोर्ट की देखरेख में क्यों जांच नहीं करायी जाती। लेकिन देश के चुने हुए किसी भी जनप्रतिनिधि की बिना जांच किए उनकी सदस्यता को ऐसे कैसे खत्म किया जा सकता है? अगर यह मामला कानूनी तौर पर कोर्ट में था तो क्यों नहीं कोर्ट की जांच का इंतजार किया गया। संसद की एथिक्स कमेटी की रिपोर्ट में कौन उसके अध्यक्ष हैं? यह सब जानते हैं, वह भी उन्हीं की पार्टी का नेता हैं। जब भी ऐसे मामलों पर कोई कमेटी बनाई जाती है, उसमें विपक्ष के किसी बड़े नेता को क्यों नहीं रखा जाता?
संसद में पहुंचने वाला हर वो नेता जो अपने क्षेत्र से चुनकर आता है। अगर वह जनता के हक और अधिकार उनके संरक्षण जैसे मुद्दों को अगर सदन में नहीं रख सकता, तो वह किसके प्रति जवाबदेह होगा? लेकिन अब ऐसा नहीं होता अगर आप सरकार के साथ हैं तो आपको किसी से डरने की जरूरत नहीं है। आप सदन में चाहे किसी को भी कितना भला बुरा बोले आप पर कोई कार्यवाही नहीं होगी। बल्कि आपका सीधे प्रमोशन होना तय है। लेकिन विपक्ष के नेता अगर सदन में सत्ता से सवाल करता है, तो उन पर कानून के सारे एथिक्स लागू होते हैं। आपने ऐसा क्यों बोला? ऐसा नहीं बोलना चाहिए था? आदि आदि..। यानी आपको तमाम तरह की दलीलों में उलछा दिया जाता है। यही हाल टीएमसी सासंद महुआ मोइत्रा का हुआ। पिछले नौ सालों में अब तक लोकसभा के 93 और राज्यसभा के 48 सांसदों को अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग आरोपों में रिकॉर्ड निलंबन किया गया है, जबकि सत्ता पक्ष के किसी भी सांसद के खिलाफ निलंबन की कार्रवाई नहीं की गई।