- बिहार के पावापुरी से प्रारम्भ है दीपावली जैन मान्यतानुसार
जनवाणी संवाददाता |
हस्तिनापुर: प्राचीन मान्यता के अनुसार हम सदैव से यह सुनते आ रहे हैं कि भगवान रामचन्द्र जी ने लंका से युद्ध में विजय प्राप्त करके वापस अयोध्या लौटे थे, तो अयोध्यावासियों ने सारे नगर को दीपमालिकाओं से सजाकर दीपावली पर्व मनाया था। तब से आज तक दीपावली पर्व उसी स्मृति के स्वरूप में मनाया जाता है। लेकिन, आश्चर्य कि बात यह है कि पूजन संध्याकाल में श्री गणेश एवं श्री लक्ष्मी की जाती है एवं रामचन्द्र जी को सिर्फ याद किया जाता है। यही इतिहास है। सनातन संस्कृति में आज भी दीपावली पर्व मनाने की यही परम्परा है।
कैसे मनाते हैं जैन परम्परा अनुसार दीपावली
जैन परम्परा के अनुसार प्रातःकाल बच्चे बूढे महिलायें और युवा केशरिया वस्त्र पहनकर के मन्दिरों में जाकर के भगवान महावीर की प्रतिमा के समक्ष सभी लोग निर्वाण लड्डू चढाते हैं, अभिषेक करते हैं, एवं भगवान महावीर की पूजन करते हैं। संध्या में भगवान के मोक्ष जाने की खुशी में अपने अपने घरों में दीप जलाकर के भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजन करते हैं एवं आपस में मिठाई बांटते हैं।
सरस्वती एवं लक्ष्मी की महापूजा की जाती है
जैन धर्म में लक्ष्मी का अर्थ होता है निर्वाण और सरस्वती का अर्थ होता केवलज्ञान इसलिये प्रातकाल भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण उत्सव मनाते समय भगवान की पूजा में लड्डू चढाये जाते हैं। भगवान महावीर को मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति हुई और गौतम गणधर को केवलज्ञान की सरस्वती की प्राप्ति हुई इसलिये लक्ष्मी सरस्वती का पूजन दीपावली के दिन किया जाता है। लक्ष्मी पूजा के नाम पर रुपयों की पूजा भी कहीं कहीं पर की जाती है।
कुण्डलपुर दिगम्बर जैन समिति नंद्यावर्त महल के मंत्री विजय कुमार जैन के अनुसार प्राचीनकाल से समाज में यह मान्यता रही है कि जैनधर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी, जिनका जन्म कुण्डलपर (नालंदा) बिहार में हुआ था, उस स्मृति में जैन साध्वी गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माता के अनुसार भगवान महावीर ने आज से 2546 वर्ष पूर्व पावापुरी के जल मंदिर से कार्तिक कृष्णा अमावस्या को मोक्ष प्राप्त किया था।
तभी से दीपावली पर्व मनाया जाता है और भगवान महावीर के निर्वाण जाने के उपलक्ष्य में सारे देश से लोग एकत्र होकर पावापुरी बिहार पहुंचते हैं निर्वाणलाडू चढ़ाने के लिए एवं जल मंदिर के अंदर रात्रि से ही लोग स्थान ले लेते हैं कि प्रातःकाल स्थान मिलेगा अथवा नहीं मिलेगा, क्योंकि जिन्होंने जल मंदिर को देखा है, वह जानते हैं कि उस जल मंदिर में ज्यादा बैठने का स्थान नहीं है।
लोग इसके लिए रात्रिकाल से ही मंदिर प्रांगण में आकर भगवान के निर्वाण की प्रत्यूष बेला में निर्वाणलाडू चढ़ाकर सायंकाल दीपमालिका करके दीपावली पर्व मनाते हैं, जो व्यक्ति भगवान महावीर के इस जल मंदिर तक नहीं पहुंच पाते हैं, वह अपने-अपने नगरों के मंदिरों में प्रातः भगवान महावीर का निर्वाणलाडू चढ़ाकर एवं मंदिर जी में पूजन करके भगवान का निर्वाण उत्सव मनाते हैं एवं उसी दिन सायंकाल अपने-अपने घरों में भगवान की पूजन करके दीपमालिका करके दीपावली पर्व मनाते हैं।
महावीर स्वामी ने इसी जल मंदिर से योग निरोध करके कार्तिक कृष्णा अमावस की प्रत्यूष बेला में मोक्ष प्राप्त किया, उसके पश्चात् सौधर्म इन्द्र आदि सभी देवताओं ने मिलकर उनका निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया पुनः अग्निकुमार देवों ने स्वर्ग से आकर अपने मुकुट से अग्नि निकालकर भगवान के शरीर का अंतिम संस्कार किया था।