एक राजा ने एक पहुंचे हुए संत को अपने राजमहल में आमंत्रित किया और संत के लिए वैसी ही सुख सुविधाओं में रहने की व्यवस्था कर दी , जैसी में राजा स्वयं रहता था। कुछ दिन बाद राजा ने संत से पूछा, महात्मन, हम और आप तो अब एक ही स्थिति में पहुंच गए हैं। जिस वैभव और विलास का उपभोग मैं कर रहा हूं, उसी वैभव का उपभोग आप भी कर रहे हैं। इस तरह से देखा जाए तो हम दोनों ही आज समान स्थिति में हैं। इस स्तर पर आपका आध्यात्मिक ज्ञानी होना तथा मेरा आध्यात्मिक रूप से अज्ञानी होने में कोई विशेष अंतर नही रह जाता है।
संत ने कुछ समय तो उत्तर नही दिया। लेकिन दूसरे दिन प्रात: जब टहलने के समय दोनों कुछ मील चले गए तो संत ने कहा, राजन, हम आप इस समय एक ही स्थिति में हैं। शाही निवास से हम दोनों दूर इस जंगल में पहुंच गए हैं, जहां आपका कोई भी राजसी वैभव नहीं है। अब कुछ वर्ष वन में तप करें, घर न लौटें। संत की बात सुनकर राजा एक दम से बोला, महात्मन, मेरा सारा काम बिगड़ जाएगा। मैं तो वन में बैठ कर तप नहीं कर सकता। मुझे अपने राज्य में लौटना पड़ेगा। अब आप भले ही वन चले जाएं।
संत ने कहा, राजन, मनुष्यों का स्तर उनकी बाह्य स्थिति में नहीं, वरन आंतरिक स्थिति से लगाया जा सकता है। वन में रहकर भी लोभ, मोह में फंसा हुआ व्यक्ति अनुरक्त है और अनेक सांसारिक कार्यों को लोकहित की दृष्टि से करने वाला विरक्त, आप मोह और स्वार्थ त्यागकर राजकाज चलाएं तो गृहस्थ में रहकर भी विरक्त हो सकते हैं। आपको ईश्वर के ब्रह्म तत्व का ज्ञान हो सकता है। तब आपको अपने अंतर में लोभ और मोह नहीं, कर्तव्य ही प्रधान दृष्टिगोचर होगा। आप जो भी करेंगे उसे कर्तव्य निमित मानकर करेंगे।
प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा