अनेक कारणों से जब पित्त कुपित हो जाता है तो तलवों, हथेलियों, आंखों, हृदय या पूरे शरीर में दाह (जलन) पैदा हो जाता है। यह विशेष रूप से ग्रीष्म ऋतु की बीमारी मानी जाती है। पित्त के दाह में पित्त ज्वर के समान लक्षण दिखाई देते हैं किंतु दोनों में फर्क होता है। पित्त ज्वर में आमाशय के दूषित होने से ज्वर और दाह दोनों ही उत्पन्न हो जाते हैं किंतु दाह रोग में केवल जलन ही होती है। आयुर्वेद शास्त्र में दाह (जलन) के सात प्रकार बताये गये हैं जिन्हें-पित्त का दाह रूधिर का दाह, प्यास का दाह, रक्तपूर्ण कोष्ठज दाह, मद्य का दाह, धातु क्षयज दाह तथा मर्मातिद्यातज दाह के नामों से जाना जाता है।
शरीर में अधिक खून के बढ़ जाने से अर्थात शरीर का खून कुपित होकर जब दाह उत्पन्न करता है तो उसे रूधिर दाह कहा जाता है। इस स्थिति में प्यास बहुत लगती है तथा दोनों आंखें और शरीर लाल रंग के हो जाते हैं। शरीर एवं मुंह से गर्म लोहे पर पानी डालने से उत्पन्न गंध के समान गंध निकलती रहती है। उल्टी करने के बाद ही रोगी के शरीर का दाह कम होता है।
प्यास लगने पर पानी न पीने अर्थात निरंतर प्यास को रोकते रहने से शरीर का जल एवं धातु क्षीण होने लगता है और पित्त कुपित होकर शरीर के भीतर और बाहर जलन पैदा कर देता है। रोगी का गला, तालु एवं होंठ सूखने लग जाते हैं और हांफने की स्थिति आ जाती है। इस स्थिति में नींबू पानी, छाछ आदि शीतल पेय जल जितना शीघ्र हो, पीना चाहिए अन्यथा प्राणान्त होने तक की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
शराब पीने से पित्त कुपित होकर रक्त में गर्मी पैदा कर देता है और पूरा शरीर तथा हृदय जलने लगता है। इस स्थिति को मद्यदाह के नाम से जाना जाता है। मद्यदाह के कारण पेट में गैस बनना, भूख में कमी अजीर्णता आदि उनके लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और उल्टी करने की इच्छा प्रबल हो जाती है। शीतल जल की धार माथे पर डालने या झरने के नीचे रोगी को बिठाकर 15-20 मिनट तक तेज धार डालते रहने से मद्यदाह की प्रबलता कम होती है।
मस्तक, हृदय अथवा मूत्रशय आदि मर्मस्थानों पर चोट लगने के कारण जो दाह उत्पन्न होता है, उसे मर्मभिद्यातज दाह कहा जाता है। खून के बढ़ने या कुपित होने से, प्यास के रोकने, घाव होने से, शराब पीने से रक्त रस आदि धातुओं के कम होने से भी यह दाह उत्पन्न हो जाता है। घाव होने से जो दाह होता है उसमें भूख की कमी हो जाती है। शोक करने से जो दाह उत्पन्न होता है, उससे शरीर के भीतर अत्यंत जलन होती है तथा प्यास, मूर्च्छा एवं प्रलाप के लक्षण उत्पन्न हो जाते है।
किसी भी प्रकार के दाह (जलन) की उपस्थिति में तेज मिर्च मसालेदार, अधिक खट्टा, तली वस्तुएं, देर से पचने वाले आहारों का त्याग कर देना चाहिए। नारियल, पानी, म_ा, (छाछ) संतरे का रस, नींबू पानी, ग्लूकोज, अमझोरा, (कच्चे आम का पना) जलजीरा, कपूरजल, गुलाबजल, खस का जल, सत्तू आदि का सेवन करने रहने से ग्रीष्मऋतु में दाह (जलन) का प्रकोप नहीें होता।
शरीर पर चंदन का लेप लगाना, कमल के फूलों की माला पहनना, चंदन-जल से स्नान आदि द्वारा दाह के प्रकोप से बचा जा सकता है।
पूनम दिनकर
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